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स्व-तालीम संस्था के सत्रः ‘पढ़ने की घंटी और शब्दों की दीवार’ केजीबीवी का हिस्सा बन गये – दीप्ति

मेरा नाम दीप्ति है। मेरा जन्म दिल्ली शहर में सन 1982 में हुआ है। मैं दिल्ली में ही पली-बढ़ी हूँ और पिछले साढ़े 6 सालो से हॉस्टल वार्डन के पद पर मेवात में केजीबीवी – नूंह में कार्यरत हूँ। मुझे शहर से दूर शांत परिवेश में रहना अच्छा लगता है। मेहनत करना और ईमानदारी से जीना अच्छा लगता है। अपने कार्यकाल 24 घंटे में अपनी दोनों इच्छाए पूरी कर लेती हूँ। अपने हॉस्टल के बच्चियों के साथ खुलकर मस्ती से जी लेती हूँ और जो भी अनुभव और ज्ञान है उसे उन बच्चों के साथ बाँट लेती हूँ। हर समय कुछ न कुछ नया सीखने की लालसा मन में निरंतर बनी रहती है।

स्व-तालीम संस्था के साथ पिछले छह सत्रों का एक सिलसिला KGBV नूंह से आरम्भ हुआ और दुर्भाग्यवश प्रथम सत्र में मेरी उपस्थिति नहीं रह सकी। उस सत्र से संबंधित जो भी जानकारी अपने साथी मित्रों से जुटा पाई उनके अनुसार मुझे पता चला कि मेरी साथी उस सत्र में सहज अनुभव नहीं कर पाई। उन सभी को उस सत्र में काफी अजीब अनुभव हुआ क्योंकि सत्र में पुरूष भी शामिल थे। इतना खुलकर महिलाओं के शरीर के विषय में सबके सामने बात की गई। मेरे साथी मित्रों के अनुसार पुरूष उस सत्र का आनन्द ले रहे थे जो महिला वर्ग को अच्छा नहीं लगा। इससे एक बात सामने आई कि आज भी हमारे शिक्षित समाज में महिला और पुरूष वर्ग के बीच एक गहरी खाई है। आज हम सबको यह तो सिखाते है कि लड़का-लड़की एक समान, खुलकर बोलो, खुलकर जीना सीखो ,आगे बढ़ो परन्तु कहाँ तक हम बोलना सीखने में सहजता का अनुभव करते हैं।

दूसरे सत्र के अनुभव

दूसरा सत्र तावडू में आयोजित किया गया जो मेरी ड्यूटी में सब से उत्तम सत्र रहा। क्योंकि इस सत्र में सीखने के लिए खेल कविताओं का माध्यम अपनाया गया। भाषा को खेल के माध्यम से और चित्रों द्वारा कैसे छात्राओं तक पहुंचाया जाए यह सिखाया गया। हम बच्चों को कहते तो हैं कि तुम्हे गाने तो कितनी जल्दी याद हो जाते हैं लेकिन प्रश्न/ उत्तर याद नहीं होते क्यूँ ? इसका उत्तर हमें इसी सत्र के माध्यम से मिला। इस सत्र में बच्चों की जो भी क्रियाएं हमें करवाई गयी उसका पूरा आनंद हमारे हॉस्टल के बच्चों ने भी उठाया। कुछ नए गीतों, खेलों में शामिल होकर बच्चे भी बहुत खुश हुए।

वाकई में बच्चों के पाठ , प्रश्न-उत्तर का माध्यम भी अगर हम गीतों को बना लें तो बच्चे को ये पढाई बोझ नहीं लगेगी। इस सत्र में गीत के माध्यम से ही महिलाओं को शारीरिक परिवर्तन के बारे में समझाया गया, जो हॉस्टल की छात्राओं को भी हमने आकर बताया। बच्चे भी हमारी बातें सुनने और समझने में सहजता महसूस कर रहे थे। किसी भी प्रकार की असहजता का भाव उनके चेहरे पर नहीं था।

तीसरा सत्र : पढ़ने की घंटी और हॉस्टल में प्रयोग

तीसरा सत्र जो पुन्हाना में आयोजित किया गया उसमे कागज़ को मोड़कर हाथी बनाना सिखाया गया। पढ़ने की घंटी, कहानी को पढ़कर एक्शन के माध्यम से बताना यह सब भी हमारी छात्राओं को करना अच्छा लगा और पढ़ने की घंटी और शब्दों की दीवार (word wall) को हमने अपने हॉस्टल का अभिन्न हिस्सा बना लिया। कुछ ही दिन में बच्चों को लाइब्रेरी की किताबों को पढ़ने की आदत सी हो गयी। यह अच्छा हुआ कि इस सत्र के माध्यम से किताबों को खोलने का मौका मिला। अब तो हमारी सभी किताबें बच्चों के लिए आजाद हैं, जिनको पहले हम डर के कारण बांध करके रखते थे कि कहीं फट या फिर खो ना जाएं।

चौथा सत्र : बातचीत और मन के भाव

चौथा सत्र, फिरोजपुर झिरका में आयोजित हुआ, जिसमें हमारी अधिकारी से खुली वार्ता हुई। लेकिन हमें नहीं लगता की बातचीत का कोई नतीजा निकल पाया। बस हमें अपनी परेशानी को कहने का मौका मिला। इस सत्र में हमारे कुछ मन के भावों को लेकर चर्चा हुई बच्चों को भी हमने बताया। लेकिन छात्राओं में कोई उत्साहित करने वाली प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिली।

पाँचवा सत्र : अंग्रेज़ी और शब्दावली

पाँचवा सत्र नगीना में आयोजित किया गया। जिसमें एक खेल था, जहाँ हमें हिंदी शब्दों की अंग्रेजी बतानी थी। सत्र से हॉस्टल वापस आकर अपनी छात्राओं के साथ भी हमने यह खेल खेला। तब हमें यह बात समझ आई कि बच्चे अंग्रेजी से क्यों कतराते हैं। इसके पश्चात हमने इसी समस्या पर कार्य किया और हॉस्टल में बोर्ड लगाकर उस पर अंग्रेजी के शब्दों को लिखना और उनकी हिंदी बताना शुरू किया। रोज़ नए-नए शब्दों को बच्चों के सामने लाना आरम्भ किया। इसका लगभग 50% बच्चों पर असर दिखा। कुछ बच्चे बढ़-चढ़ कर इस गतिविधि में भाग लेने लगे। लेकिन कुछ छात्राओं में इसका नाममात्र ही असर दिखा। कुछ छात्राएं इस प्रकार की गतिविधियों में भागीदारी से कतराती हैं कि कहीं उनसे कुछ पूछ ना लिया जाये ?

छठा सत्र : कहानी और आसपास का परिवेश

छठा सत्र नूंह में आयोजित हुआ, जिसमें हमने सीखा कि कैसे बाहर के कूड़े को उठाकर कहानी बनाई जा सकती हैं। इस गतिविधि में हमारे बच्चों ने भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया। अच्छी प्रतिक्रिया मिली। यह भी देखने को मिला कि सक्रिय बच्चे तो अपना रास्ता बना लेते हैं। परन्तु कुछ बच्चे बार-बार प्रोत्साहित करने पर भी संकोच करते हैं। शायद हमें भी सोचना होगा कि हम कैसे उन बच्चों के जीवन को जानकर उन्हें उत्साहित करने का तरीका खोज सकते हैं।

मुझे लगता है कि सभी गतिविधियों को एक चार्ट पर लिखकर डिसप्ले कर सकते हैं और हर वार्डन के रूम में इसकी कॉपी दीवार पर लगी होनी चाहिए। ताकि हम भी अगले सत्र में इन विषयों को याद रख सकें और ये सभी गतिविधियाँ बार-बार करवाते रहें। हर साल नए बच्चों को हमारे पास आना है, ऐसे में हमारे पास भी एक स्थायी संसाधन रहेगा जिसकी मदद से हम बच्चों के साथ काम कर सकेंगे।

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