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रेखा चमोली: प्राथमिक स्तर पर भाषा शिक्षण में समावेशन के मसले- पार्ट-1

रेखा चमोली जी, शिक्षिका, उत्तराखण्ड

रेखा चमोली, शिक्षा के क्षेत्र में एक बेहद परिचित नाम है। आपने उनकी डायरी जरूरी  पढ़ी होगी, अगर नहीं तो जरूर पढ़िए। आपने एजुकेशन मिरर के लिए भाषा शिक्षण के क्षेत्र में काम करते हुए अपने अनुभवों के माध्यम से समावेशन के मुद्दों को पहचानने के साथ-साथ उसे व्यावहारिक जीवन में समाधान देने का कार्य भी बेहद कुशलता और सफलता के साथ किया है। हमें पूरी उम्मीद है कि यह लेख आपको पसंद आएगा और इसके अगले हिस्से का इंतज़ार भी करेंगे। शेष विस्तार से पढ़िए रेखा चमोली जी के शब्दों में।   

प्राथमिक स्तर पर स्कूल आने वाले बच्चे अलग-अलग पृष्ठभूमि से आते हैं। अपनी पृष्ठभूमि से बनी पहचान के प्रति ये बच्चे एक स्तर की समझ भी रखते हैं। बच्चे अपनी व्यक्तिगत रूचियों, कमियों, मजबूत पक्षों ,समस्याओं व विशेषताओं के साथ स्कूल आते हैं। अपने संपूर्ण परिवेश से बनी पहचान व अस्मिता के परिणामस्वरूप इनके जीवन जगत को लेकर कुछ अनुभव होते हैं। एक जीवंत भाषा होती है। इसी अनुभव के साथ ये औपचारिक शिक्षा की दुनिया में कदम रखते हैं। मुझे अपनी भाषा की कक्षा में इस विविधता का समावेश करते हुए बच्चों के भाषा सीखने को समृद्ध करना होता है।

भाषा शिक्षण और विविधता

प्रत्येक भाषा में शब्दों को कुछ ख़ास तरीके से उच्चारित किया जाता है। कोई दूसरी भाषा सीखने के दौरान मौखिक क्रिया कलाप व पढने की प्रक्रिया में अधिक मुश्किल नहीं आती पर जब बच्चे अपनी बात को लिखने लगते हैं तो उनका मातृभाषा में सोचना व उच्चारण उनके लेखन को प्रभावित करता है। इस तरह का लेखन अर्थ समझने में तो उन्हें कोई बाधा नहीं पहुंचाता लेकिन पठन व मानक लेखन सिखाने में खासी समस्याएं पैदा करता है। यह समस्या पठन के स्तर पर ज्यादातर तब होती है जब उनके लिखे को उनके अलावा कोई दूसरा पढ़ता है। अपने लिखे को क्योंकि उन्होंने स्वयं समझ कर लिखा होता है तो वे उसे पढ़ पाते हैं। पहले से लिखी सामग्री को उतारकर लिखते समय भी मातृभाषा का उच्चारण शब्दों को पहचानने व अर्थ ग्रहण करने में थोड़ी समस्या उत्पन्न करता है। भाषा शिक्षण में मुझे इस तरह की समस्याओं से जूझना पड़ता है।

इसी तरह अलग-अलग जातियों, वर्गों व स्थानीय पहचान के बच्चों के अनुभव भी अलग-अलग होते हैं। अनुसूचित जाति के बच्चे शुरू में अन्य बच्चों से अधिक सकुचाए व डरे होते हैं। अमूमन अभाव के चलते उनके सामाजिक व आर्थिक अनुभव उच्च जाति के बच्चों से अलग होते हैं। नेपाली बच्चों को अन्य बच्चों द्वारा बाहरी बच्चों की तरह देखा जाता है। इसी तरह की बात लड़कियों के विषय में भी कही जा सकती है। ऐसे में मुझे अपनी कक्षा के प्रत्येक बच्चे की भाषाई, सामाजिक, आर्थिक , सांस्कृतिक व भावनात्मक जरूरतों की पहचान करना व समझना जरूरी है।

मेरे स्कूल का परिवेश

मेरा स्कूल जिस परिवेश में है, वहां गढ़वाली और नेपाली पृष्ठभूमि के बच्चे अधिक हैं। लगभग 70 प्रतिशत बच्चों की मातृभाषा गढ़वाली तथा 30 प्रतिशत की मातृभाषा नेपाली है। लगभग 50 प्रतिशत बच्चे अनुसूचित जाति की पृष्ठभूमि से आते हैं। लड़कियों की संख्या कुल संख्या का लगभग 60 से 70 प्रतिशत होती है। गांव के ज्यादातर लड़के किसी न किसी प्राइवेट स्कूल में पढते हैं जिसका कारण कि तथाकथित अंग्रेजी माध्यम और सामाजिक प्रतिष्ठा है। पुरूष अभिभावक छोटी मोटी नौकरी ( ज्यादातर प्राइवेट) खेती , मजदूरी , खच्चर चलाना तथा महिलाएं मजदूरी व खेती के काम करती हैं । मेरे स्कूल में पिछले 8 सालों में प्रति वर्ष लगभग 40 से 60 बच्चे रहे हैं।

इस लेख में मैंने बच्चों की विभिन्न विशेषताओं और अनुभवों का उपयोग उनके भाषा ’शिक्षण में कैसे किया, इसको साझा करने का प्रयास किया है। मेरे भाषा ’शिक्षण में सामाजिक समावेशन का भाव शामिल रहा है ताकि बच्चों की भाषा का विकास सामाजिक समरसता से समृद्ध हो।

सामाजिक पृष्ठभूमि का समावेशन तथा भाषा शिक्षण-

स्कूल को एक ऐसी जगह होना चाहिए जहां बच्चे रोज खुशी-खुशी आना चाहें। अपने को हर तरह से सुरक्षित महसूस करें। अपनी बात कहने में उन्हें जरा भी संकोच न हो। उनके मन में यह विश्वास हो कि वे सीख सकते हैं। तमाम चुनौतियों और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद वे आगे बढ़ सकते हैं। बहुत छोटे बच्चों के मन में यह सारी बातें आना और इनकी समझ होना पता नहीं कितना संभव है पर उन्हें स्कूल आने में खुशी और अपनापन लगे यही बहुत है। स्कूल के प्रति बच्चों के लगाव की यही पहली कड़ी है।

जब भी कोई बच्चा स्कूल आता है तो उसके साथ उसकी पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक परिस्थितियों से बना प्रभाव भी उसके साथ स्कूल आता है। जरूरी नहीं कि यह प्रभाव सकारात्मक ही हो। जरूरी नहीं कि बच्चे के आसपास के लोग व स्थितियां बच्चे के प्रति संवेदनशील हों। आर्थिक तंगी से उपजी स्थितियों से तो बच्चा किसी तरह निपट भी लेता है पर भावात्मक रूप से जो चोट बच्चे को लगती है वह बहुत गहरी होती है उससे उभरने के लिए उसे मदद चाहिए होती है। कोई ऐसा व्यक्ति जो उसे समझे, उससे प्यार व भरोसे का व्यवहार करे जिसमें वह अपने मन की बात कह पाए। एक शिक्षिका और स्कूल को ऐसा होना ही चाहिए। शिक्षिका को हमेशा बच्चे की पहुंच में होना चाहिए।

ऐसे बच्चे जो किसी कारण नियमित स्कूल नहीं जा पाते या जिनके पूर्व स्कूल के अनुभव बहुत खराब हों उन्हें भी स्कूल के साथ सामंजस्य बिठाने में परेशानी होती है। इन बच्चों के साथ एक समस्या यह भी होती है कि ये अपने से छोटे बच्चों के साथ काम करने में हीन भावना महसूस करते हैं। घुमन्तु बच्चों के सामाजिक नियम भी जरा हटकर होते हैं। ये बच्चे स्वतंत्र व्यक्तित्व के होते हैं इन्हें अपनी स्वतंत्रता व निर्णय लेने की क्षमता पर अभिमान होता है। अपने समूह के साथ की कमी की पूर्ति किसी खास खिलौने या जानवर को पालकर पूरा करना चाहते हैं। ये कुछ न कुछ ऐसी हरकत करते रहते हैं जिससे सबके आकर्षण का केन्द्र बने रहें फिर चाहे इनकी हरकतों से पढ़ना-लिखना बाधित ही क्यों न होता रहे। अपनी बात के संदर्भ में मैं गोपाल का उदाहरण देना चाहूंगी।

गोपाल के लिए सीखने का जरिया बनी दोस्ती

गोपाल 12 साल का मजबूत शरीर का बच्चा था जो हिमाचल से अपने परिवार के साथ आया था इसके पिता इसका दाखिला इंटर कालेज में करवाना चाहते थे पर इसे कुछ भी पढ़ना-लिखना न आने के कारण वहां के शिक्षकों की सलाह पर प्राथमिक स्कूल में भर्ती कराने आए। ताकि कुछ पढ़ना-लिखना सीख जाए फिर आगे बढ़े। ये एक खुशमिजाज बच्चा था। हरदम कुछ न कुछ करने वाला।

गोपाल ने अपना पहला स्कूल इसलिए छोड़ा क्योंकि वहां बहुत मार पड़ती थी। बड़ी दीदी 16-17 साल की थी जिसकी शादी हो गयी थी। छोटा भाई 5 साल का था जो जो कक्षा 1 में आया। चूंकि गोपाल को पढ़ना-लिखना बिल्कुल नहीं आता था तो वो बाकि बच्चों को पढ़ने-लिखते देख हैरान परेशान होता वह उनके साथ शामिल होना चाहता था पर बाकि बच्चे उसे भगा देते तब तो अपनी शारीरिक क्षमता का फायदा उठाता कभी-कभी उन्हें मार भी देता। इसके पास हमेशा कोई न कोई ऐसी चीज होती जो बाकि बच्चों के लिए आकर्षण का केन्द्र होती जैसे चुम्बक या गाड़ी। कभी-कभी यह अपनी बिल्ली भी अपने साथ लेकर आता।

शुरू-शुरू में मैं इसे हमेशा अपने साथ ही बैठाती क्योंकि इसकी कक्षा में (कक्षा-4) बिठाने पर। यह शान्त नहीं बैठता। कुछ न कुछ गड़बड़ बनी रहती और गड़बड़ हो भी क्यों न, न तो किताब पढ़ना आ रहा ना, सवाल ही हल हो पा रहे जबकि करना सब कुछ चाह रहा। धीरे-धीरे जब इसका छोटा भाई पढ़ने लगा तो यह उसे भी अजीब तरह से देख्ता गोपाल को मैंने सबसे पहले जिस बात का अहसास कराया वह यह कि अगर उसे पढ़ना-लिखना नहीं आ रहा था और वह अपनी कक्षा में सबसे बड़ा बच्चा है तो उसके लिए वह जिम्मेदार नहीं है। और वह अब भी सीख सकता है। वह अपने नए दोस्त बना सकता है। अगर वह उनकी बातें माने और उनसे मारपीट न करें।

बच्चों की दोस्ती गोपाल से करवाने के बाद वे उसकी मदद करने लगे व ऐसे कामों में उसे अपने साथ अपनी टीम में रखने लगे जिसमें ताकत की जरूरत हों। धीरे-धीरे गोपाल शांत हुआ और स्कूल की गतिविधियाों में बिना डरे-झिझके प्रतिभाग करने लगा। सबसे पहले उसने प्रार्थना सभा में एक कविता सुनाई। प्रोत्साहित करने पर वह मौखिक गतिविधियों में बढ चढ कर प्रतिभाग लेने लगा व धीरे-धीरे छोटी छोटी कहानियों की मदद से शुरु किया। अपनी किताबों को पढने में अन्य बच्चों की मदद भी लेने लगा।

बाद में मैं जब उससे उसके कक्षा स्तर के निम्न स्तर काम करने को कहती तो वह कहता उसे भी बाकि बच्चों जैसा ही काम करने को दूँ, सिखाऊं, ये बच्चे ऐसा नहीं कर रहे तो मैं क्यों करुं? आदि। व्यावहारिक ज्ञान तो उसे था ही जिससे गणित की मूलभूत संक्रियाओं को समझने में उसे आसानी रही। साथ ही उसने औसत छात्र की तरह पढ़ना-लिखना भी सीखा।

बच्चों की पारिवारिक परिस्थिति का असर

जिन बच्चों की पारिवारिक स्थितियां खराब होती हैं जैसे कि माता-पिता का लड़ाई-झगड़ा, पिता का शराबी होना या किसी कारण बच्चे का माता-पिता से दूर रहना, माता या पिता में से एक का ना होना, वे बच्चे अति संवेदनशील होते हैं। अक्सर इनमें आव्मदया का भाव भी आ जाता है जो कि दूसरों की बातों को सुन-सुनकर पनपता है। कभी-कभी दूसरों के जरा से नरम व्यवहार को भी ये बच्चे अपनी प्रति दया मान लेते हैं और कभी तो इस दया वाले व्यवहार का आनंद भी लेने लगते हैं। इन्हें लगता है यह अलग व्यवहार ही इनकी ताकत है जो इन्हें बाकि बच्चों से अलग करती है।

ये बच्चे अपने सामान के प्रति भी जरूरत से ज्यादा सजग होते हैं इन्हें डर होता है कि कहीं कुछ खो न जाए काई इनका सामान ले न ले। कापी-किताब फट न जाए आदि। अपने दोस्तों के प्रति भी इनका गहरा लगाव होता है जिसका साथ वे बांटना नहीं चाहते और कई बार तो अपने पक्के दोस्त से सिर्फ अपना दोस्त बनाए रखने के लिए दांव-पेंच भी खेलते हैं। इन बच्चों के भीतर एक अकेलापन होता है जो भी उस अकेलेपन को जरा सा प्रेम या सहानुभूती से स्पर्श कर ले, उससे ये लगाव महसूस करने लगते हैं और फिर उस व्यक्ति या भावना को किसी से बांटना नहीं चाहते।

जैसा कि रविना महसूस करती थी। आज रविना कक्षा 5 में आ गयी है। वह कक्षा 1 से ही अपने परिवार से अलग अपनी मौसी के परिवार के साथ रहती है। रविना शुरू में बहुत चुप और डरी रहती थी। कोई बात बहुत बार पूछने पर ही बताती थी। कोई चीज खो जाने पर बुरी तरह रोने लगती। इसने चेहरे पर जब तक दाग धब्बे बने रहते और सिर डेंड्रफ से भरा होता। स्कूल में आती स्वास्थ्य विभाग की टीम से अतिरिक्त दवा लेने और पास के अस्पताल में इलाज करवाने पर कुछ राहत मिली।

इसके साथ ही उसका कोई सामान खोने पर मैं लाकर दूंगी, जो भी सामान चाहिए स्कूल से ले लेना , स्कूल में उसके लिए अतिरिक्त सामान पहले से ही लाकर रखने और उसे सौंप देने , किसी चीज की जरूरत होने पर मुझे बताना, आदि का भरोसा मिलने पर सामान के प्रति सजगता कम हुयी व पढ़ने-लिखने के तरफ ध्यान गया। पुस्तकालय के संचालन की मुख्य जिम्मेदारी मिलने से रविना ने अच्छी तरह से जिम्मेदारी निभायी जिसमें समय समय पर पुस्तकालय की साज सज्जा व किताबें छांटना, छोटे बच्चों की मदद करना, उन्हें किताबें पढकर सुनाना आदि ने उसकी पठन व लेखन दक्षता को भी संवारा।

रविना अभी कक्षा 5 में है स्कूल की अन्य गतिविधियों में प्रतिभाग के साथ बाहर भी प्रतिभाग करती है और कक्षा में अकादमिक रूप से प्रथम या द्वितीय रहती है। बच्चों की भावनात्मक जरूरतों व उनके मन में हो रही उथल-पुथल को सीखने और स्मृति से अलग नहीं किया जा सकता। सीखने में बच्चों के भवनात्मक पक्ष का ध्यान रखना बेहद जरूरी है। (क्रमशः जारी….)

(एजुकेशन मिरर पर प्रकाशित रेखा चमोली का यह लेख आपको कैसा लगा? जरूर बताएं और अपनी टिप्पणी लिखें। लेख का शेष हिस्सा भाग-2 में पढ़िए)

5 Comments on रेखा चमोली: प्राथमिक स्तर पर भाषा शिक्षण में समावेशन के मसले- पार्ट-1

  1. रेखा चमोली // October 27, 2021 at 7:21 pm //

    बहुत बहुत शुक्रिया Educationmirror ।।

    प्रथमेश जी , दूर्गा जी खूब आभार आपका।

  2. Prathmesh // October 19, 2021 at 3:58 pm //

    बाल मनोविज्ञान पर शिक्षाप्रद लेख

  3. Durga thakre // October 19, 2021 at 10:24 am //

    हम सभी शिक्षकों को ऐसा ही प्रयास करते रहना चाहिए कि बच्चे खुशी खुशी स्कूल आए , उन्हें वो वातावरण मिले जहाँ उनका उत्तरोत्तर विकास हो । बच्चे हमसे जितना सीखते हैं उससे कहीं ज्यादा हम बच्चों से सीखते हैं ।

  4. Durga thakre // October 19, 2021 at 10:19 am //

    👌👌👌👌💐💐💐💐
    बिल्कुल सही मैम , बच्चे अपनी व्यक्तिगत रूचियों, कमियों, मजबूत पक्षों ,समस्याओं व विशेषताओं के साथ स्कूल आते हैं , बच्चे अपने साथ विविधता लाते हुए एक शिक्षक को भी बहुत कुछ सिखाते हैं । इसमे कोई दोराय नही है कि हम बड़े /व्यस्क नई चीजों को सीखने या उन में नवाचार करके एक नया आयाम स्थापित करने में इन विविधताओं से भरपूर की सहायता लेते हैं और अपना ज्ञान कोष बढ़ाते हैं ।

    बहुत ही जानकारी से ओतप्रोत लेख
    भाषा शिक्षण को एक नए प्रकार से हमारे सामने प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद ।

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