Trending

शिक्षा दर्शनः बच्चों की स्वतंत्रता और सीखने की सहजता के समर्थक थे रूसो

रूसो मनुष्य को मूलतः एक भावनाप्रधान और संवेदनशील प्राणी मानते थे, अतः उसके बौद्धिक विकास की बजाय भावनात्मक विकास पर उनका अधिक आग्रह रहा। बालक की स्वतंत्रता और सीखने की सहजता का समर्थक होने के नाते रूसो बच्चों पर किसी तरह के अनुशासन थोपने, ख़ासतौर पर शारीरिक दण्ड के ख़िलाफ़ थे।

रूसो के युग में और जो कुछ हद तक आज भी है – शिक्षा अध्यापक केंद्रित रही। (तस्वीर साभारः टेलीग्राफ़)

रूसो ने व्यक्तित्व के सहज विकास के लिए शिक्षा की भूमिका पर ज़ोर देते हुए उसके स्वरूप और प्रणालियों में क्रांतिकारी परिवर्तन के सुझाव दिये। रूसो के युग में और जो कुछ हद तक आज भी है – शिक्षा अध्यापक केंद्रित रही। उन्होंने शिक्षा के बारे में बाल-केंद्रित नजरिये से सोचने की नींव डाली।

क्योंकि उनके समय में शिक्षार्थी के आंतरिक गुणों और व्यक्तित्व के विकास की बजाय अध्यापक द्वारा कुछ विषयों का पढ़ाया जाना और शिक्षार्थियों द्वारा उन विषयों से संबंधित सूचनाओं का रट लेना ही शिक्षा की पूरी प्रक्रिया थी। छात्र की अपनी आवश्यकता और मौलिकता का इस पूरी प्रक्रिया में कोई स्थान नहीं था। अपनी ‘एमिली’ नामक कृति में रूसो ने शिक्षा के प्रति एक बिल्कुल भिन्न और मौलिक विचार का प्रतिपादन करते हुए बालक के स्वाभाविक आवेगों और वृत्तियों का दमन न करने का आग्रह किया।

शारीरिक दण्ड का विरोध

रूसो की मान्यता थी कि शिक्षा-प्रक्रिया के माध्यम से हम अपने पूर्वग्रह बच्चों पर आरोपित कर देते हैं, इसलिए बच्चों पर अपने विचारों को उपदेशात्मक शैली में लादने की बजाय उसे स्वयं अपने अनुभवों से सीखने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। रूसो मनुष्य को मूलतः एक भावनाप्रधान और संवेदनशील प्राणी मानते थे, अतः उसके बौद्धिक विकास की बजाय भावनात्मक विकास पर उनका अधिक आग्रह रहा। बालक की स्वतंत्रता और  सीखने की सहजता  का समर्थक होने के नाते रूसो बच्चों पर किसी तरह के अनुशासन थोपने, ख़ासतौर पर शारीरिक दण्ड के ख़िलाफ़ थे।

रूसो के इन विचारों ने तत्कालीन शिक्षा दर्शन के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन किया, जिनकी तुलना कुछ इतिहासकार खगोल विद्या में कोपरनिकस द्वारा की गई क्रांति से करते हैं। इस समय तक शिक्षा विषय प्रधान और अध्यापक केंद्रित थी। लेकिन अब बालक की अपनी आवश्यकताओं, उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व और मौलिकता के विकास की ओर ध्यान दिया जाने लगा। लेकिन फिर भी यह स्वीकार नहीं किया जा सका कि बालक को पूर्णतः अनिर्देशित छोड़ दिया जाय।

बाल-केंद्रित शिक्षा का विचार

रूसो का तर्क था कि माता-पिता और अध्यापक का कुप्रभाव पड़ सकता है, लेकिन यह बात भी इतनी ही विचारणीय है कि सामाजिक वातावरण भी बिल्कुल निर्दोष नहीं है। अध्यापक और माता-पिता की देख-रेख के बिना उसके दोषों और विकृतियों से बालक को बचाया नहीं जा सकेगा। लेकिन इस बात में संदेह नहीं है कि रूसो के बाद बालक को शिक्षा के केंद्र में रखकर देखने की प्रवृत्ति विकसित हुई और उसकी समस्याओं पर सहानुभूतिपूर्ण तरीके से विचार किया जाने लगा।

जबकि पारम्परिक शिक्षा-व्यवस्था में वह ऐसा कुम्हारा था जिससे बालक रूपी मिट्टी को अपनी कल्पना और सांचे के अनुसार गढ़ने की अपेक्षा की जाती थी। वास्तव में रूसो को बाल-शिक्षा मनोविज्ञान की पृष्ठभूमि तैयार करने वाले विचारकों में अग्रणी कहा जा सकता है।

इस लेख के बारे में अपनी टिप्पणी लिखें

Discover more from एजुकेशन मिरर

Subscribe now to keep reading and get access to the full archive.

Continue reading