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परीक्षा से डरते हैं बच्चे?

सर्दियों में सुबह पासबुक से सवाल रटते बच्चे। रिक्शे पर बैठकर किताब पढ़ते हुए स्कूल जाते बच्चे परीक्षा के बारे में कुछ कहते हैं। नंबरों की कहानी। पास होना कितना जरूरी है। ये बताते हैं पर क्या हम बच्चों को उनकी ही नज़र से देख पाते हैं। इस पोस्ट में चर्चा परीक्षा पर बच्चों के नज़रिये की। हम परीक्षाओं को सॉफ्ट करने के लिए भले ही असेसमेंट का नाम दे दें। ग्रेडिंग प्रणाली ले आएं। मगर मूल्यांकन की बुनियादी प्रवृत्ति तो ज्यों की त्यों कायम है।

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परीक्षा के लिए जाने से पहले धूप का आनंद लेते बच्चे।

शिक्षा के संदर्भ में सबसे ज्यादा डरावना शब्द कौन सा है? अगर ऐसा सवाल पूछा जाय तो बच्चों की तरफ़ से एक ही शब्द आएगा, परीक्षा। इसी से सबसे ज्यादा डर लगता है बच्चों के साथ-साथ बड़ों को भी।

परीक्षा आने वाली है। कल परीक्षा है। सबसे कठिन विषय की परीक्षा कल है, ऐसे वाक्य दिल की धड़कन बढ़ा देने वाले वाक्य हैं। तमाम उपायों के बावजूद यह डर आज भी क़ायम है। क्योंकि डराने वाले काम में परिवार, पड़ोसी, समाज और शिक्षक तो एक साथ हो लेते हैं मगर बच्चा अकेला पड़ जाता है।

ऐसे में बच्चों की निराशा स्वाभाविक है क्योंकि पढ़ने वाली उम्र में उनसे कहा जाता है, “पढ़ाई छोड़ दो। यह तुम्हारे लिए नहीं है।” तीसरी कक्षा में पढ़ने वाली एक बच्ची को पढ़ाई न करने वाली स्थिति में घरेलू कामों का जिक्र करने पर गुस्सा आता है। वह जवाब देती है, “ऐसा मत कहो।” अपनी भाषा में बच्चे शायद कहते हैं कि हमारे साथ थोड़ी संवेदनशीलता से पेश आओ। अपनी यथार्थवादी सोच से हमें डराने की कोशिश मत करो।

पहले परीक्षा से लगता था डर, अब नहीं

दूसरा उदाहरण केजी में पढ़ने वाली एक बच्ची के पापा कहते हैं कि इसकी परीक्षाएं चल रही हैं। बच्ची मजे से बिस्किट और नमकीन का आनंद ले रही है। उसे भी इस डरावने शब्द से परिचित कराया जा रहा है। 12वीं कक्षा में पढ़ने वाली एक छात्रा कहती है कि इस साल भी उसके बोर्ड एक्जाम हैं। पहले उसे भी परीक्षा से डर लगता था। लेकिन अब परीक्षा के नाम से उतना डर नहीं लगता। परीक्षा के बारे में सबसे ज्यादा डर इसी बात का होता है कि जो सवाल पूछे जा रहे हैं, अगर उनका जवाब नहीं आया तो क्या होगा?

क्या वास्तव में परीक्षा के सवाल इतने महत्वपूर्ण होते हैं कि उससे बच्चों की ज़िंदगी पर कोई विशेष प्रभाव पड़ता है। छोटी कक्षा के बच्चों को असेसमेंट से डरते हुए देखकर लगता है कि हम शायद उनके साथ संवेदनशीलता से पेश नहीं आ रहे हैं या फिर उनको प्रतिस्पर्धा की वास्तविकता से रूबरू नहीं करवाना चाहते हैं। एक बच्चा परिस्थिति का सामना करने से कतराए, इससे बेहतर होगा कि उसको इसका सामना करने के लिए तैयार किया जाये। उसे इसके लिए प्रशिक्षित किया जाए।

ताकि वास्तविक जीवन में जाने के बाद उसे स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय की दुनिया और वास्तविक जीवन में विरोधाभाष की गहरी खाई न मिले। उसे ऐसा लगे कि दोनों जगहों में समानता है। हाँ, रियल लाइफ थोड़ी ज्यादा कठिन है और यहां स्कूल के मुकाबले ज्यादा तैयारी के साथ प्रतिस्पर्धा करनी होगी।

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