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कविता: हम हैं इंसान

भ्रम है ये भ्रम
कि तू स्त्री है
और मैं पुरूष
हम हैं इंसान
वही है सर्वश्रेष्ठ धर्म।

दो आँखें, दो हाथ, दो पाँव
तो क्यों करें स्त्री और पुरुष
दोनों में कोई भेदभाव।

ईश्वर-अल्लाह की जन्नत की ज़मीन
तो क्यों करें भेदभाव स्त्री व पुरुष में
और इसे बनाएं जहन्नुम की ज़मीन।

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दुनिया में नव-जीवन की उत्पत्ति के लिए
दोनों लगे समान तो क्यों न हम
काम, नाम, दाम का उखाड़कर
दोनों का करें बराबर सम्मान

आसमान में न भेदभाव
ज़मीन भी न करे भेदभाव
स्त्री-पुरुष दोनों की जली चिता
रखने में भेदभाव
भ्रम है यह भ्रम।

– रोहित म्हस्के

(एजुकेशन मिरर के लिए यह कविता रोहित म्हस्के ने मुंबई से भेजी है। अपनी कविता में आप स्त्री और पुरुष के बीच होने वाले भेदभाव न करने की गुजारिश करते हैं और दोनों के पूरक होने वाले भाव को सहजता से रेखांकित करते हैं। आपने इतिहास में ग्रेजुएशन किया है। रोहित को लिखना, खेलना और बहुत से समसामयिक मुद्दों के बारे में विचार करते रहना पसंद है। पहली कविता के लिए हम रोहित का उत्साहवर्धन कर सकते हैं ताकि वे आगे भी लिखने का सिलसिला जारी रखें। यह उनकी पहली पोस्ट है। उम्मीद है कि आप आने वाले दिनों में भी ऐसे ही लिखते रहेंगे।)

 

1 Comment on कविता: हम हैं इंसान

  1. बहुत अच्छी कविता है आपकी सर

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