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भारत में 8 करोड़ बच्चे नहीं जाते स्कूलः जनगणना के आँकड़े

किताब पढ़ते बच्चे, अर्ली लिट्रेसी, प्रारंभिक साक्षरता, रीडिंग रिसर्च, भाषा शिक्षणहाल ही में जारी साल 2011 की जनगणना के आँकड़े शिक्षा के अधिकार की चिंताजनक स्थिति की तस्वीर सामने रखते हैं। इसके मुताबिक़ भारत में ऐसे बच्चों की संख्या 78 लाख है जो स्कूल तो जाते हैं मगर उनको परिवार की तरफ से काम करने के लिए मजबूर किया जाता है। जबकि 8.4 करोड़ बच्चे स्कूल ही नहीं जाते।

हालांकि काम करने वाले बच्चों की संख्या स्कूल जाने वाले बच्चों की पूरी आबादी की तुलना में कम है, मगर यह संख्या काफी बड़ी है। जो यह दर्शाती है कि परिवार और बच्चों द्वारा शिक्षा को कितना कम महत्व दिया जा रहा है

‘स्कूल से आने से अच्छा है, भैंस चराने जाऊं’

कुछ दिन पहले एक स्कूली बच्चे ने कहा, “मेरे स्कूल में कम शिक्षक है। मैं तीन किलोमीटर से पैदल स्कूल आता हूँ। पूरा दिन खाली बैठने से तो अच्छा है कि मैं अपने बड़े भाई के साथ भैंस चराने के लिए चला जाऊं।” यह स्थिति बच्चे को स्कूल से विमुख करने वाली है, जिसका एक प्रमुख कारण स्कूल में शिक्षकों की कमी है।

भारत में शिक्षा, वास्तविक स्थिति, असली सवाल, समस्या और समाधान

इस तस्वीर में स्कूल जाने की तैयारी और काम के लिए परिवार के साथ जाने की मजबूरी दोनों को एक साथ देखा जा सकता है।

स्कूलों में ऐसी स्थिति भी नज़र आती है कि आठवीं कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे को हिंदी की किताब पढ़ने में परेशानी हो रही है। काम व अन्य कारणों से स्कूल में अनियमित होने वाले बच्चे के सीखने पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। शिक्षा पर शोध व ज़मीनी रिपोर्टों में बार-बार यह तथ्य सामने आता है।

वहीं आदिवासी इलाक़ों में और गाँवों में परिवार के लोगों को इस बात की फिक्र नहीं होती कि बच्चा स्कूल जा रहा है या नहीं। अगर बच्चे ने पहली-दूसरी कक्षा में पढ़ना सीख लिया तो ठीक है। पढ़ाई में कमज़ोर होने वाली स्थिति में स्कूल छूटने की आशंका और बढ़ जाती है। हमारे देश में 8.4 करोड़ बच्चे स्कूल ही नहीं जाते। यह संख्या शिक्षा का अधिकार कानून के तहत आने वाले कुल बच्चों की संख्या का 20 फीसदी है।

फेल नहीं करने की नीति

इस नीति के कारण आठवीं तक लगातार पास होने वाले बहुत से बच्चे नौंवी कक्षा में फेल होकर पढ़ाई छोड़ देते हैं। इस बारे में एक शिक्षक प्रशिक्षक कहते हैं, “बहुत से शिक्षकों का अभी भी मानना है कि बड़ी कक्षाओं के ऊपर ध्यान देना जरूरी हैं, ख़ासतौर पर जिनमें बोर्ड की परीक्षाएं होती हैं। राजस्थान में आठवीं में बोर्ड परीक्षा होती है। इसलिए पहली-दूसरी और बाकी प्राथमिक स्तर की कक्षाओं में पढ़ाई की उपेक्षा होती है। इसका परिणाम यह होता है कि जब बच्चे को पढ़ना-लिखना सीख लेना चाहिए। उस उम्र में वह इस क्षमता के विकास से वंचित हो जाता है।”

शिक्षा के अधिकार कानून तहत किसी बच्चे को फेल नहीं करने की नीति के कारण भी अभिभावक बच्चों को काम पर लगा देते हैं और स्कूल केवल परीक्षा वाले दिनों में भेजते हैं, इस वजह से भी काम करने वाले बच्चों की संख्या काफी बढ़ी है। स्कूल के साथ-साथ काम पर जाने वाले बच्चों में 57 फ़ीसदी लड़के हैं, जबकि 43 फ़ीसदी लड़कियां हैं। काम करने वाले बच्चों में कुछ की उम्र मात्र छह साल है।

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