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क्या नीति आयोग सरकारी स्कूलों का निजीकरण करना चाहता है?

20180409_1707331968328550.jpgसरकारी स्कूल के शिक्षकों के बीच निजीकरण को लेकर अक्सर बात होती है। वे अक्सर सवाल पूछते हैं कि क्या सरकारी स्कूलों की निजीकरण हो जायेगा? जब से राजस्थान में शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाली कुछ ग़ैर-सरकारी संस्थाओं ने सरकारी स्कूलों को पीपीपी मोड में चलाने का फैसला किया है और उन स्कूलों का संचालन ख़ुद से शुरू किया है, उनके इस डर को एक वाज़िब कारण मिल गया है कि सरकार की तरफ से आने वाले दिनों में ऐसे प्रयास जो छोटे स्तर पर हो रहे हैं, वो बड़े स्तर पर भी हो सकते हैं। पहली बार औपचारिक रूप से इस कयास को आधार तब मिला जब नीति आयोग की तरफ से वर्ष 2017 में खराब स्थिति में चल रहे सरकारी स्कूलों को पीपीपी मोड में देने की संभावनाओं को तलाशने की बात शुरू हुई।

जब नीति आयोग ने कहा खराब हालत वाले सरकारी स्कूल निजी कंपनियों को दे देने चाहिए

पिछले वर्ष अगस्त-2017 के महीने में ही नीति आयोग ने सिफारिश की थी कि इस बात की संभावना तलाशी जानी चाहिए कि क्या निजी क्षेत्र प्रति छात्र के आधार पर सार्वजनिक वित्त पोषित सरकारी स्कूल को अपना सकते हैं, इस बात को नीति आयोग ने अपने तीन साल के कार्य एजेंडा में भी शामिल किया है।

उस समय नीति आयोग की तरफ से जारी रिपोर्ट में कहा गया था कि समय के साथ सरकारी स्कूलों की संख्या बढ़ी है, लेकिन सरकारी स्कूल में होने वाले प्रवेश में काफी कमी आई है। वहीं दूसरी तरफ निजी स्कूलों में बढ़ते प्रवेश के कारण सरकारी स्कूलों की स्थिति और ख़राब हुई है। आयोग का कहना था कि शिक्षकों की अनुपस्थिति की ऊंची दर, शिक्षकों के क्लास में रहने के दौरान भी पढ़ाई पर ध्य़ान ने देने के कारण शिक्षा की गुणवत्ता में गिरावट आई है, इसके कारण भी सरकारी स्कूल में बच्चों के प्रवेश में उल्लेखनीय गिरावट आई है। इसके समाधान के रूप में पीपीपी मॉडल की संभावना तलाशने का सुझाव आयोग ने दिया है।

वर्ष 2010-2014 के दौरान सरकारी स्कूलों की संख्या में 13,500 की वृद्धि हुई है लेकिन इनमें दाखिला लेने वाले बच्चों की संख्या 1.13 करोड़ घटी है। वहीं दूसरी तरफ निजी स्कूलों में दाखिला लेने वालों की संख्या 1.85 करोड़ बढ़ी है। आंकड़ों के अनुसार 2014-15 में करीब 3.7 लाख सरकारी स्कूलों में 50-50 से भी कम छात्र थे। यह सरकारी स्कूलों की कुल संख्या का करीब 36 प्रतिशत है।

सरकारी स्कूलों की छवि बेहतर करने की जरूरत

आज के दौर में सबसे अहम सवाल है कि सरकारी स्कूलों की छवि को खराब किसने किया है? अगर वहाँ पर बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं? स्कूल की फर्श टूटी हुई है? बच्चों के पास बैठने के लिए दरी नहीं है? या फिर स्कूल के चारो तरफ चार-दीवारी नहीं है, स्कूलों की पुताई अच्छी नहीं है तो यह सब करने की जिम्मेदारी और जवाबदेही किसकी है? जिनकी जवाबदेही है, उनको अधिकार देने चाहिए और ऐसी स्थिति में सुधार करना चाहिए। सारा खेल छवि के निर्माण का है, ऐसे सरकारी स्कूल भी हैं जो न्यून्तम सुविधाओं में बेहतर करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन निजी स्कूलों को प्रोत्साहन देने की नीति के कारण आज स्थिति यह हो चली कि बहुत से सरकारी स्कूल बच्चों के लिए तरस रहे हैं। ऊपर से सिंगल टीचर जैसे कांसेप्ट के कारण सरकारी स्कूलों की छवि बहुत खराब हुई है।

हर कल्याणकारी योजना को जमीनी स्तर पर पहुंचाने की जिम्मेदारी शिक्षा विभाग के ऊपर डाल दी जाती है। ज़मीनी सच्चाइयों को अनदेखा किया जाता है। आदेश और निर्देश वाली व्यवस्था एक समय के बाद खानापूर्ति वाले मोड में आ जाती है। जब तक ज़मीनी स्तर की परिस्थितियों का वास्तविक, वस्तुनिष्ठ और बहुआयामी अध्ययन नहीं होता और जिले व प्रदेश स्तर पर शिक्षकों के साथ संवाद नहीं होता कि हालात को बेहतर कैसे करना है, निजीकरण की सलाह और सिफारिश आती रहेगी। एक दिन ऐसा भी आ सकता है, जब बड़े स्तर पर ऐसे फैसलों को अमल करने की कवायद भी शुरू हो जाये क्योंकि अगर किसी स्कूल में बच्चे नहीं हैं तो उसे जारी रखने का क्या तर्क हो सकता है।

स्थानीय स्तर पर चीज़ों को बेहतर करने के प्रयास होने चाहिए। उदाहरण के तौर पर एक ही गाँव या कैंपस में अगर एक से ज्यादा स्कूल संचालित हो रहे हैं तो उनको मिलाकर एक स्कूल बनाना चाहिए ताकि शिक्षकों की पर्याप्त संख्या हो और बच्चों को हर क्लास के लिए कम के कम एक शिक्षक मिल सकें।

क्या निजीकरण एक अच्छा विकल्प है?

निजी स्कूल में आर्थिक रूप से पिछड़े और कमज़ोर तबके के बच्चों को 25 फीसदी सीटों पर प्रवेश देने का प्रावधान शिक्षा के अधिकार में किया गया है। लेकिन हर साल रिपोर्ट आती हैं और तमाम खबरें छपती हैं कि स्कूल में ऐसे बच्चों के साथ भेदभाव किया जाता है। या फिर तमाम तरीके अपनाकर बच्चों को प्रवेश देने से मना कर दिया जाता है। इसलिए निजीकरण का आँख मूंदकर समर्थन करना एक खतरनाक पहल होगी। जरूरत है कि सरकारी स्कूलों को फिर से नया जीवन दिया जाये। उनकी स्थिति को बेहतर करने के लिए होने वाले प्रयासों को गति दी जाये।

एक शिक्षक को काम करने की आज़ादी मिले और उसके ऊपर से अतिरिक्त काम की जिम्मेदारी का बोझ व्यवस्थित योजना के तहत धीरे-धीरे खत्म किया जाये। शिक्षक जब शिक्षण का काम करेगा तो फिर उसकी जवाबदेही भी होगी, इसके अभाव में शिक्षकों को एकतरफा ढंग से बदनाम करने का खेल चलता रहेगा। उनकी अंधी आलोचना होती रहेगी। एक लेख में हम पहले ही जिक्र कर चुके हैं कि भारत जैसे विशाल और विविधता वाले देश में हमें बड़े स्तर पर काम करने का अनुभव हासिल करना होगा। हमें कोशिश करनी होगी और गलतियों से सीखना होगा और आगे बढ़ना होगा। इसका कोई विकल्प नहीं है। क्योंकि इस कोशिश के अभाव में यही होगा कि निजी स्कूलों में भी गुणवत्ता की वही समस्या होगी, जो सरकारी स्कूलों के साथ है।

हमारे देश में एक भी अध्ययन ऐसा नहीं है जिसमें निजी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को मिलने वाली शिक्षा की गुणवत्ता  की परख व्यवस्थित ढंग से की गई हो। बस एक हवा है कि निजी स्कूल अच्छे हैं और यह बात बेरोक-टोक एक अफवाह की भांति एक कान से दूसरे कान में होती हुई, सफर कर रही है। इसलिए जरूरी है कि हम सिर्फ हवा में बात न करें, तथ्यों के आधार पर बात करें। नीति आयोग की सिफारिश का क्या अंजाम होता है, इसके लिए तीन साल की कार्य योजना का कार्यकाल पूरा होने का इंतज़ार करना होगा। अगर बीच में सरकार कोई फ़ैसला नई शिक्षा नीति के दस्तावेज़ में लेती है तो उससे भी भविष्य की दिशा तय होगी।

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