शिक्षा क्षेत्र के लिए कैसा रहा साल 2017?
विद्यालय में बच्चों की सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम हों, इसकी माँग विभिन्न राज्यों के अभिभावक कर रहे हैं।
साल 2017 में बच्चों की सुरक्षा के मुद्दा सुर्खियों में सबसे ऊपर रहा। इसको लेकर विभिन्न राज्यों में बच्चों की सुरक्षा के लिए जरूरी दिशा-निर्देश जारी किये गये। रेयान इंटरनेशनल स्कूल में दूसरी कक्षा के छात्र प्रद्युमन ठाकुर की हत्या के बाद से ये मुद्दा सुर्खियों में बना रहा।
सीबीआई जाँच में इसी स्कूल के 11वीं कक्षा के एक छात्र का नाम सामने आया, उसको बालिग मानकर मामले की सुनवाई करने के मुद्दे पर भी पूरे देश में चर्चा हो रही है कि ऐसा करना सही है या गलत।
बच्चों की सुरक्षा को लेकर चिंतित अभिभावक
इस मुद्दे के कारण अभिभावकों की चिंता भी बढ़ी है कि स्कूल जाने वाले बच्चे वास्तव में कितने सुरक्षित हैं। स्कूल में बच्चों के खिलाफ होने वाली हिंसा और यौन शोषण जैसे संवेदनशील मुद्दों पर चिंता का साल रहा 2017। साल 2018 में स्थितियों को बदलने की उम्मीद हर किसी को है, अभिभावक और नागरिक समाज इसके लिए विभिन्न उपायों को अमल में लाने की माँग कर रहे हैं।
नये साल में मिलेगी, नई शिक्षा नीति?
इसके बाद दूसरा सबसे चर्चित मूद्दा रहा नई शिक्षा नीति के आने का। जून में इसरो के पूर्व अध्यक्ष के कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनाने के लिए एक समिति का गठन किया गया था।
समिति को साल 2017 के दिसंबर माह में अपनी रिपोर्ट पेश करती थी, मगर हाल ही में छपी खबरों के मुताबिक समिति ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय से तीन महीने का समय और माँगा है। यानि नई शिक्षा नीति के मार्च 2018 तक का इंतजार करना पड़ेगा। नई शिक्षा नीति, नये साल में मिलेगी इस बात की उम्मीद जताई जा सकती है। मौजूदा शिक्षा नीति साल 1986 में बनी थी, जिसको समसामयिक बनाने के लिए साल 1992 में कुछ संसोधन किये गये थे।
क्यों बंद हो रहे हैं सरकारी स्कूल?
सरकारी स्कूलों के बंद होने का मुद्दा भी साल 2017 में शिक्षा से जुड़े मुद्दों में से एक रहा। सरकारी स्कूलों को पीपीपी मोड में देने या सरकारी स्कूलों को बंद करने का शिक्षक समुदाय की तरफ से विरोध किया गया।
इस बारे में शिक्षकों को कहना था कि सरकार को विद्यालय में बच्चों की संख्या के अनुसार शिक्षकों की व्यवस्था करनी चाहिए, ऐसे विद्यालय जहाँ पर बच्चे कम हैं उनको दूसरे स्कूलों में शामिल करने को बहुत से शिक्षकों ने सही ठहराया। इस बारे में अभिभावकों का भी कहना है कि ऐसे स्कूलों को बंद करना ही सही है। यह सवाल अभी भी चर्चा में बना हुआ है कि सरकारी स्कूल क्यों बंद हो रहे हैं?
आठवीं तक फेल न करने की नीति में हुआ बदलाव
इसी साल आठवीं तक बच्चों को फेल न करने की नीति में बदालव ने भी शिक्षक समुदाय के साथ-साथ अभिभावकों व शिक्षाविदों का ध्यान आकर्षित किया। इसके तहत 5वीं से 8वीं तक के छात्र-छात्राओं को परीक्षा पास करने के दो मौके मिलेंगे। यह फ़ैसला उस जड़ता को तोड़ता है जिसमें परीक्षा को सर्वोपरि माना जाता था और एक बार मिलने वाले परीक्षा परिणाम को अंतिम माना जाता है।
नए प्रावधान में सरकार बच्चों को परीक्षा पास करने के लिए दो अतिरिक्त अवसर दे रही है, इससे साक्षरता के प्रतिशत में बढ़ोत्तरी को मदद मिलेगी। लेकिन जो बच्चे दूसरी बारे में भी परीक्षा पास नहीं कर पाएंगे, उनको फिर से अपनी ही कक्षा में पढ़ना होगा।
बीएड या अन्य डिग्री हासिल करने के लिए मिला 2019 तक का समय
साल 2017 में ही एक और फ़ैसला मानव संसाधन विकास मंत्रालय में हुआ जिसमें सरकारी व निजी स्कूल में पढ़ाने वाले लोगों को साल 2019 तक बीएड या समतुल्य डिग्री हासिल करने का समय दिया गया है। इस अवधि में बीएड की डिग्री हासिल न करने वाले शिक्षकों को अपनी नौकरी से वंचित होना पड़ेगा। बहुत से शिक्षक इस फ़ैसले की आलोचना कर रहे हैं कि इसके बारे में पहले से सूचना देनी चाहिए थी। इसके लिए ऑनलाइन कोर्सेज का संचालन किया जायेगा। स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों के पास जरूरी डिग्री हो, इस बात से हर कोई सहमत ही है। इस साल बिहार से शिक्षा के क्षेत्र से जुड़ी ऐसी खबर आई, जिसने लोगों का ध्यान आकर्षित किया
10वीं में फेल होने वाली ‘टॉपर’

बिहार की प्रियंका सिंह ने अपने आत्मविश्वास से बोर्ड के परीक्षा परिणाम में बदलाव की कहानी लिखी।
साल 2017 में शिक्षा के क्षेत्र में एक अनोखी स्टोरी बिहार से आई। यहां के सहरसा के सिमरी बख्तियारपुर की सिटानाबाद पंचायत के गंगा टोला की एक छात्रा प्रियंका सिंह ने बिहार बोर्ड द्वारा फेल किये जाने को पटना उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। इस मामले में उन्होंने जीत पायी।
प्रियंका को बिहार बोर्ड की तरफ से 5 लाख का हर्जाना भी मिला। उनको पेंटिंग करने का शौक है। वह 10वीं के बाद मेडिकल की तैयारी करना चाहती थीं, मगर ‘फेल’ वाले अंकपत्र ने उनके हिस्से संघर्ष और जीत की कहानी दर्ज की।
शिक्षा मित्रों के लिए आगे की राह आसान नहीं
इसके अलावा उत्तर प्रदेश में सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की ड्रेस बदलने, बग़ैर मान्यता के संचालित हो रहे निजी स्कूलों को बंद करने की भी चर्चा रही। मगर सबसे ज्यादा सुर्खी जिस मुद्दे को मिली थी वह थी शिक्षा मित्रों के टीईटी (उत्तर प्रदेश शिक्षक पात्रता परीक्षा) पास करने और लिखित परीक्षा में हिस्सा लेने का मुद्दा। इसके अलावा सहायक अध्यापक बने शिक्षा मित्रों के मूल पद और मूल स्थान पर वापस लौटने संबंधी आदेश। इससे उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों में शिक्षण कार्य भी प्रभावित हुआ। जनवरी-फरवरी में 68,500 सहायक अध्यापकों की भर्ती के लिए लिखित परीक्षा होनी है, शिक्षा मित्र इसमें हिस्सा लेंगे। दिसंबर मे्ं आये टीईटी के परीक्षा परिणाम में महज 11.11 फीसदी परीक्षार्थी सफल हुए हैं, ऐसे में शिक्षा मित्रों के लिए आगे की राह आसान नहीं है।
मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार टीईटी के लिए कुल नौ लाख 76 हजार 760 अभ्यर्थी पंजीकृत हुए थे। प्राथमिक स्तर की टीईटी के लिए कुल तीन लाख 49 हजार 192 तथा उच्च प्राथमिक स्तर के लिए कुल छह लाख 27 हजार 568 पंजीकरण हुए। इसमें 1.37 लाख वे शिक्षामित्र भी शामिल थे, जिनका समायोजन निरस्त हुआ था। समायोजन में शेष रह गए 26000 शिक्षामित्रों ने भी टीईटी के लिए आवेदन किया था। इसमें आठ लाख आठ हजार 348 अभ्यर्थी शामिल हुए। ग़ौर करने वाली बात है कि प्राथमिक स्तर के लिए सबसे ज्यादा आवेदन शिक्षामित्रों ने ही किए लेकिन परिणाम में प्राथमिक स्तर पर मात्र 47 हजार 975 अभ्यर्थियों के सफल होने से शिक्षामित्रों को बड़ा झटका लगा है।
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