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सरकारी स्कूलों के बारे में अच्छा क्या है?

पठन कौशल के विकास में निरंतर अभ्यास की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

एक सरकारी स्कूल में पहली कक्षा का बच्चा पढ़ने का अभ्यास करता हुआ।

साल 2013-14 के सरकारी आँकड़ों के मुताबिक भारत में 7,90,640 प्राथमिक और 4,01,079 उच्च प्राथमिक स्कूल हैं। इन सरकारी स्कूलों में तकरीबन 14 करोड़ बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं। इन बच्चों को स्कूल में मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा क़ानून, 2009 के अनुसार सारी सुविधाएं मुहैया कराई जा रही हैं। यह संख्या काफी बड़ी है। मगर आमतौर पर होने वाली बातचीत में यह पहलू कहीं खो जा सकता है।

सरकारी स्कूलों के बारे में अच्छा क्या है? आमतौर पर अगर यह सवाल किसी सामान्य व्यक्ति से पूछा जाए तो शायद चार-पांच बिंदुओं के बाद जवाब मिलने बंद हो जाएंगे। ऐसा क्यों है?

इस सवाल का एक काफी सरल सा जवाब होगा कि हम अपने देश में सरकारी स्कूलों के बारे में इतनी नकारात्मक कहानियां सुन चुके हैं। अपने मन में सरकारी स्कूलों, वहां के शिक्षकों और बच्चों के बारे में ऐसी छवि निर्मित कर चुके हैं, जिसे बदलने के लिए शायद किसी प्रत्यक्ष अनुभव की दरकार होगी।
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एक ऐसा अनुभव जो आपकी बहुत सारी मान्यताओं पर फिर से सोचने के लिए मजबूर कर दे। मगर ऐसा अनुभव मिलना, बहुत सामान्य सी बात भी नहीं है। क्योंकि आमतौर पर बहुत से स्कूलों में पुराने ढर्रे पर चीज़ों का संचालन होता है। एक हद दर्ज़े की लापरवाही और उदासीनता चारो तरफ पसरी होती है। इसे लांघकर कुछ नया करने और चीज़ों को बदलने की कोशिश करने वाले शिक्षकों को भी व्यवस्था के साथ समायोजन में काफी दिक्कत होती है।

शिक्षक हैं, ‘लकीर के फकीर’ नहीं

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एक छात्र मोर का चित्र बनाने की कोशिश करते हुए।

एक तरफ व्यवस्था चाहती है कि शिक्षक लकीर के फकीर हो जाएं। वहीं नए या स्व-प्रेरणा से काम करने वाले शिक्षकों के भीतर चीज़ों को बदलने की परवाह होती है। ऐसे शिक्षक अपने काम से बार-बार साबित करते हैं कि वे सही मायने में शिक्षक हैं, ‘लकीर के फकीर’ नहीं

ऐसे शिक्षकों के काम करने जज्बा और प्रेरणा उनको बाकी शिक्षकों से अलग करती है। ऐसे शिक्षक का बच्चों के साथ काफी सहज रिश्ता होता है। वे उनके साथ संवाद करते हैं। वे बातचीत करके बच्चों की परेशानी को समझने की कोशिश करते हैं ताकि उनकी मुश्किलों का समाधान किया जा सके।
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ऐसे शिक्षकों का इस बात में भरोसा होता है कि स्कूल बच्चों के लिए हैं। इसलिए हमें ऐसा काम करना चाहिए जिससे बच्चों को खुशी मिले। स्कूल में उनका आना सार्थक हो। वे स्कूल से रोज़ाना कुछ न कुछ सीख करके जाएं। अपने जीवन में तमाम बाधाओं को पार करके आगे बढ़ें। क्योंकि सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षक जानते हैं कि यहां आने वाले बच्चे आदिवासी समुदाय से हैं, ऐसे समुदाय से हैं जो समाज में उपेक्षित है, पिछड़ा है, शिक्षा के महत्व से पूरी तरह परिचित नहीं है।

‘ठहराव’ की चुनौती का अंत नहीं

सरकारी स्कूलों मे भी निजी स्कूलों की तरह शुरुआत में सारा जोर नामांकन पर होता है। मगर सरकारी स्कूल में प्रवेश लेने वाले बच्चे निजी स्कूलों की तरह नियनित नहीं आते। वे स्कूल छोड़कर लंबी अवधि के लिए रोज़गार, परिवार की जरूरत और अन्य कारणों से अपने मूल स्थान से पलायन भी कर जाते हैं। ऐसे में उनका रोज़ स्कूल जाना संभव नहीं हो पाता।

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एक सरकारी स्कूल में मिड डे मील खाने की तैयारी करते बच्चे।

यही कारण है कि भारत के बहुत से सरकारी स्कूलों में पर्याप्त नामांकन होने के बावजूद लगभग 45-50 फीसदी बच्चे ही नियमित स्कूल आते हैं। बाकी बच्चे नामांकन के बाद अन्य कार्यों में व्यस्त रहते हैं और कभी-कभार स्कूल आते हैं ताकि किसी तरह से अपनी आठवीं तक की पढ़ाई पूरी कर लें।

जिन राज्यों में नामांकन का लक्ष्य हासिल करने के बावजूद ठहराव संबंधि चुनौतियां जस की तस बनी हुई हैं, वहां इसका असर बच्चों के अधिगम स्तर (या सीखने) पर भी दिखाई देता है।

पढ़ाई छूटने का खतरा

ऐसे अनियमित बच्चों की पढ़ाई बार-बार कोशिश के बाद पटरी पर आती है, फिर से पुराने ढर्रे पर लौट जाती हैं।
अगर ऐसे बच्चों पर घर और स्कूल में पर्याप्त ध्यान न दिया जाए तो ऐसे बच्चे पढ़ाई पूरी करने के बावजूद अपने कक्षा के अनुरूप भाषा, गणित और अन्य विषय संबंधी कौशलों का विकास नहीं कर पाते। ऐसे बच्चों के आगे जाकर पढ़ाई छोड़ देने की आशंका बढ़ जाती है। ऐसा उन बच्चों के साथ भी होता है जिनको रोज़गार के सिलसिले में पढ़ाई को छोड़कर काम के लिए जाना पड़ता है।
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रोज़ाना स्कूल आने वाले वे बच्चे भी पढ़ाई छूटने के खतरे का सामना करते हैं जो सातवीं-आठवीं में पहुंचने के बाद भी बहुत अच्छे से पढ़ना नहीं सीख पाए हैं। इन बच्चों का आत्मविश्वास काफी कमज़ोर हो जाता है। वे ऐसे अवसरों पर बाकी बच्चों से दूर रहना पसंद करते हैं, जहाँ पढ़ाई की बात को ज्यादा तवज्जो दी जाती है। बच्चों से बातचीत के दौरान ऐसी बातों का ध्यान रखना आवश्यक है ताकि हम अनजाने में बच्चों के स्वाभिमान व आत्म-सम्मान को ठेस न पहुंचाएं।
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ऐसे बच्चों के लिए शिद्दत से काम करने वाले लोगों की मौजूदगी सरकारी स्कूलों को ख़ास बनाती है। ये स्कूल वास्तव में ऐसे स्कूल हैं जो समाज के सबसे जरूरतमंद लोगों को शिक्षित करने का काम कर रहे हैं। यही बात सरकारी स्कूलों के बारे में सबसे अच्छी बात है, जो इस तरफ ध्यान देने के महत्व को रेखांकित करती है। हमें सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाले ऐसे शिक्षकों का शुक्रगुजार होना चाहिए जो तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद अपने काम को पूरी लगन और मेहनत के साथ अंजाम दे रहे हैं। नकारात्मक विचारों को भाव न देकर, काम के सकारात्मक असर और खुशी को लोगों के साथ साझा कर रहे हैं।

1 Comment on सरकारी स्कूलों के बारे में अच्छा क्या है?

  1. Virjesh Singh // July 25, 2019 at 12:25 am //

    एजुकेशन मिरर की नियमित रीडर और लेखक ज़ैतून ज़िया ने इस पोस्ट के बारे में लिखा, “Very well written , a positive thought towards those who are working well not only motivate them to do more better, but also to those who worked well at their times but because of less appreciation and recognition lost their hope by saying कुछ नहीं बदलेगा !! Those teachers will also get positive vibes by this type of appreciation.
    And the perspective of society will also change when they came to know the hurdles via this post which government teachers have to face in day to day life.”

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