गांवों के हालत का पता देती “असर” रिपोर्ट
सरकारी स्कूलों की स्थिति योजनाओं के मकडजाल में उलझे कीड़े जैसी हो गयी है. एक योजना खत्म हुई नहीं कि दूसरी के लागू होने की भूमिका बन जाती है. स्कूलों की स्थिति को बेहतर बनाने में अगर इनके योगदान की बात करें तो इनके हिस्से में सिर्फ भौतिक तरक्की ही आती है. बाकी मोर्चों पर इनकी स्थिति में सुधार की उम्मीद की जा रही है कि आने वाले वर्षों में जब राज्य सरकार शिक्षा के अधिकार कानून को लागू करेगी तो हालात कुछ बेहतर होंगे.
“प्रथम” संस्था हर साल प्राथमिक शिक्षा की वार्षिक स्थिति पर “असर” नाम से एक रिपोर्ट प्रकाशित करती है. इस साल की रिपोर्ट 2011 के अगर मुख्य पहलुओं की बात करें तो यह बताती है कि स्कूल में बच्चों के नामांकन में राष्ट्रीय स्तर पर बृद्धि हुई है.इसके साथ ही स्कूल जाने वाली लड़कियों की संख्या भी बढ़ी है. बिहार और पश्चिम बंगाल की स्थिति सबसे बेहतर है. वहीँ उत्तर प्रदेश में स्कूल न जाने वाली लड़कियों की संख्या सबसे अधिक है. इस मामले में वह बाकी राज्यों से पीछे है.
यह रिपोर्ट प्राइवेट स्कूलों में नामांकन बढ़ने की पुष्टि भी करती है. भारत के कुल बच्चों का पच्चीस प्रतिशत प्राइवेट स्कूलों में जा रहा है. अगर केरल और मणिपुर की बात करें तो वहां के साठ फीसदी से ऊपर बच्चे प्राइवेट स्कूलों में जा रहे हैं. खास बात यह है कि इसमें सरकार से सहायता प्राप्त स्कूलों की संख्या अधिक है.
स्कूलों में बच्चों का नामांकन तो बढ़ रहा है लेकिन इसके ठीक विपरीत बच्चों के पढ़ने के स्तर में गिरावट देखी जा रही है. असर की हाल में आई रिपोर्ट के अनुसार “पांचवीं क्लास के ऐसे बच्चे जो तीसरी की किताब बढ़ सकते हैं उनकी संख्या 2010 में 53.7 % थी. नई रिपोर्ट के अनुसार पांचवीं क्लास के ऐसे बच्चे जो तीसरी की किताब पढ़ सकते हैं उनकी संख्या घटकर 48.2%रह गयी है.” इसका मतलब यह हुआ कि ग्रामीण क्षेत्रों के ऐसे बच्चे जो तीसरी की किताब नहीं पढ़ सकते उनका प्रतिशत लगातार बढ़ता जा रहा है.
इस स्थिति से एक इशारा मिलता है कि आने वाले समय में यह स्थिति और चुनौतीपूर्ण होगी. प्राइवेट स्कूलों की संख्या बढ़ेगी , उसमें बच्चों का नामांकन बढ़ेगा. ट्युशन लेने वाले बच्चों की संख्या भी लोगों की जागरूकता बढ़ने के साथ बढ़ेगी. हर कोई अपने बच्चे को अच्छी शिक्षा दिलाना चाहता है.
लोगों की यह मान्यता मजबूत हो रही है कि निजी स्कूलों में बेहतर शिक्षा मिलती है. अगर वर्तमान में अपने अनुभव की बात करूँ तो एक बात बहुत स्पष्ट तौर पर दिखाई दे रही है कि कस्बे और शहरों के सरकारी स्कूलों में बच्चों की संख्या धीरे-धीरे कम हो रही है.उनका रुझान प्राइवेट स्कूलों की तरफ हो रहा है.वहीँ दूसरी तरफ गांवों में स्कूल में बच्चों की संख्या अध्यापकों के कम होने के बावजूद भी बहुत है.इसका एक कारण उनके पास किसी और विकल्प का न होना भी है.
वर्तमान की तस्वीर में इसे और बेहतर बनाने के रास्ते हमें मिलकर खोजने होंगे.
मैं बच्चों को घर पढ़ाने और इसे सामुदायिक सहयोग तक ले जाने की बात कर रहा हूं। ताकि गरीब लोगों के बच्चों को बी प्रायवेट ट्यूशन जैसी सहूलियत मिल सके। इसके लिए लोगों से बात करने और उनको इस तरह का काम करने के लिए राजी करने की जरूरत पड़ेगी। फायदे और नुकसान के बीच झूलते लोगों को इसतरह का काम करने के लिए प्रेरित करना एक चुनौती है। उसको सतत बनाए रखने का संबल बनाए रखनें में मदद करना एक सार्थक प्रयास हो सकता है।
मैं बच्चों को घर पढ़ाने और इसे सामुदायिक सहयोग तक ले जाने की बात कर रहा हूं। ताकि गरीब लोगों के बच्चों को बी प्रायवेट ट्यूशन जैसी सहूलियत मिल सके। इसके लिए लोगों से बात करने और उनको इस तरह का काम करने के लिए राजी करने की जरूरत पड़ेगी। फायदे और नुकसान के बीच झूलते लोगों को इसतरह का काम करने के लिए प्रेरित करना एक चुनौती है। उसको सतत बनाए रखने का संबल बनाए रखनें में मदद करना एक सार्थक प्रयास हो सकता है।
वाह, बहुत सुंदर प्रस्तुति । मेरे पोस्ट पर आपका स्वागत है ।..
raste to dikh hi rhe hai..par imaandaari se chalne ki jarurat hai . jo koi karna hi nahi chaahta hai bas apna duti pura karta hai..