बच्चों से बातचीत कैसे करें?

स्कूल में बच्चों के साथ बातचीत जरूरी है। इससे बच्चों को लगता है कि उनको सुना जा रहा है। उनको महत्व दिया जा रहा है। इससे बच्चे के मन में अपनी सकारात्मक आत्म-छवि का निर्माण होता है।
बच्चों के साथ बातचीत जरूरी है। इससे उनको अपने जीवन के अनुभवों को क्लास में बाकी बच्चों के साथ बाँटने का मौका मिलता है। उदाहरण के लिए एक किताब में छपे चित्रों के ऊपर चर्चा हो रही थी। इस कहानी में एक बंदर को खेत में दवा छिड़कते हुए देखकर बच्चे ने कहा, “बंदर खेत में दवाई सोंट रहा है।”
उसके वाक्य से स्पष्ट हैं कि बच्चे के पास हिंदी की वाक्य संरचना है। वह अपने स्थानीय परिवेश के शब्दों का इस्तेमाल अपनी बात को कहने के लिए सहजता से कर पा रहा है।
अगर किसी बच्चे को अपनी भाषा में अपनी बात रखने का मौका नहीं मिले तो वह खामोश हो जाता है। ऐसे में जरूरी है कि बच्चों को अपनी बात रखने के लिए प्रोत्साहित करें। बच्चों के साथ होने वाली बातचीत में भाषा को एक बाधा न बनने दें। क्लासरूम में बच्चे को एक से अधिक भाषाओं के इस्तेमाल का मौका मिलना। बच्चों के संज्ञानात्मक विकास की दृष्टि से काफी उपयोगी होता है। यह बात भाषा वैज्ञानिकों की तरफ से बार-बार दोहराई जाती है। इसी परिप्रक्ष्य में क्लासरूम में बहुभाषिकता को बढ़ावा देने वाली बात कही जाती है। ताकि क्लासरूम में होने वाली चर्चा में हर बच्चे की बराबर भागीदारी संभव हो सके।
पहली-दूसरी क्लास के बच्चों की ऊर्जा और उनके सीखने की ललक में एक सहजता होती है। इन बच्चों के साथ बातचीत वाले लम्हों में बच्चे कैसे सीखते हैं, इसकी झलक साफ-साफ दिखाई देती है। वे खेल समझते हैं। पढ़ाई को भी बच्चे एक खेल की तरह देखतें हैं, पर शर्त है कि हम इसे बहुत ज्यादा औपचारिक न बनाएं। क्लास में काम करने के लिए एक न्यून्तम आत्म-अनुशासन की जरूरत होती है ताकि किसी बच्चे को चोट न लगे। बच्चों के व्यवहार पर बहुत सारे कारकों का असर होता है। जैसे बच्चों का पारिवारिक परिवेश, स्कूल का माहौल, क्लास में बच्चों के साथ होने वाला व्यवहार, बच्चों का बच्चों के साथ रिश्ता कैसा है, बच्चे सामने वाले व्यक्ति को किस तरीके से देखते हैं? जैसे अगर वे सामने वाले से डरते हैं तो उसकी मौजूदगी मात्र से वे कही गई बातों का अनुकरण करने को तत्पर हो जाते हैं।
कहानी पर बातचीत है जरूरी
अगर किसी शिक्षक के साथ वे बहुत सहज हैं तो वे किसी भी तरीके से उनका ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करना चाहते हैं, वे चाहते हैं कि उनको सुना जाय, बच्चों के बीच शिक्षक का ध्यान आकर्षित करने को लेकर एक प्रतिस्पर्धा भी होती है। इसे एक क्लास में देखा जा सकता है अगर आपका बच्चों के साथ अच्छा रिश्ता है। आप बच्चों को अपनी बात रखने का स्पेश देते हैं। उनको सुनते हैं। हर बच्चे पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान देते हैं। पहली क्लास में एक बात देखने को मिली कि बच्चे अक्षरों को जोड़कर शब्द बनाने की कोशिश खुद से कर रहे हैं। वे किताबों की पसंद खुद कर रहे हैं। चित्रों को देखकर बता पा रहे हैं कि किताब की कहानी क्या है?
आठवीं क्लास के एक बच्चे ने कजरी गाय वाली कहानी पर हँसते हुए कहा, “हमारे गाँव में तो गाय पेड़ पर नहीं चढ़तीं, वे तो आसमान में उड़ती हैं।” दिन में चाँद दिखाई देता है क्या? पूरी क्लास एक साथ बोली, “नहीं।” इसके बाद फिर बात हुई कि चांद तो दिन में भी दिखाई देता है तो उन्होंने कहा, “हाँ, थोड़ा-थोड़ा दिखाई देता है। पर रोज़ दिखाई नहीं देता।” फिर एक सवाल सामने था, “दिन में तारा दिखाई देता है क्या? बच्चों ने जवाब दिया, “नहीं।” फिर एक सवाल उनके सामने था, “सूरज क्या है? एक ग्रह, एक उपग्रह या एक तारा?” इस सवाल का जवाब बड़ी क्लास के बच्चों ने दिया, “सूरज एक तारा है।” तो फिर इस सवाल का जवाब क्या होगा कि दिन में तारा दिखाई देता है? उनका जवाब था, “हाँ, दिन में भी तारा दिखाई देता है। क्योंकि सूरज भी एक तारा ही है।” बच्चों के साथ इस बारे में बात हुई कि कैसे सुबह की असेंबली की शुरुआत एक कहानी के साथ की जाये। शाम को घर जाने से पहले भी स्कूल का समापन एक कहानी के साथ किया जाय। इस दौरान सुनने के ऊपर बात हुई कि क्या हम सुनना जानते हैं? सबने कहाँ, “हाँ।”
देखना, सुनना और पढ़ना
इसके बाद थोड़ी देर तक सबने ख़ामोश रहने के बाद सुनी आवाज़ों पर बात की। बच्चों ने बताया, ” हमने गाड़ी की आवाज़ सुनी. झाड़ू लगने की आवाज़ सुनी. बच्चों के खांसने की आवाज़ सुनी. कुछ बच्चे हँस रहे थे, उनके हँसने की आवाज़ सुनी। क्लास में बच्चे बात कर रहे थे, हमने उनके बात करने की आवाज़ सुनी।” इसके बाद फिर बच्चों से बात हुई कि इतनी सारी आवाज़ों पर हम ध्यान क्यों दे पाए? बच्चों ने इस सवाल का जवाब दिया, “क्योंकि हम चुप थे? इसलिए इतनी सारी आवाज़ों को सुन पाए। उन पर ध्यान दे पाये।” इसके बाद कहानी की एक किताब के चित्रों को देखने की बात हुई कि सारे बच्चे इसे चुप रहकर देखने की कोशिश करेंगे। बड़े बच्चे उसे देखते हुए बोल रहे थे। छोटे बच्चे भी किताब में बने सुंदर चित्रों को देखकर अपनी प्रतिक्रिया दे रहे थे। इससे उनकी जिज्ञासा का अंदाजा लग रहा था। थोड़ी देर बाद बच्चों ने एक-दूसरे को सेल्फ करेक्ट किया कि हमें इस किताब को चुपचाप देखना है। फिर इस किताब के बारे में बात करनी है कि हमने क्या-क्या देखा है?
किताब पूरी होते ही, बहुत सारे बच्चों के हाथ ऊपर थे, जो किताब के बारे में बताना चाहते थे। लेकिन किताब के ऊपर होने वाली चर्चों को इस बात के साथ विराम देना पड़ा कि कल शाम के समय हम साथ में यह कहानी पढ़ेंगे। उस दौरान ही इसके ऊपर आपस में बात करेंगे। इस तरह से बच्चों के साथ होने वाली बातचीत एक रोचक मोड़ पर आकर रुकी। एक कहानी के चित्रों पर होने वाली बातचीत के माध्यम से कहानी आगे बढ़ गई थी। अब बच्चे खुद इस किताब को खोज लेंग, पढ़ने के लिए। अगर पहली के बच्चे चित्रों पर होने वाली चर्चा के बाद कहानी की किताब तक पहुंच सकते हैं तो बाकी बच्चों के लिए ऐसा करना तो बड़ी आसन सी बात है। पर ऐसी चीज़ें स्कूल में रोज़ाना हो रही हों, यह सुनिश्चित करने के लिए स्कूल में एक माहौल का होना जरूरी है। जो सतत प्रयास से बनाया जा सकता है। पढ़ने की एक्टिंग पढ़ने के पहले की एक अवस्था है। जो बच्चे यहां पहुंच जाते हैं, वे अगले स्तर पर बढ़ने के लिए तैयार होते हैं। क्योंकि वे अनुमान लगाने की कला को पुख्ता बना रहे होते हैं। वाक्यों की एक आधारभूत संरचना से उनका परिचय हो चुका होता है। वे जानते हैं कि पढ़ने के दौरान क्या होता है? पढ़ने की ख़ुशी का अंदाजा पढ़ने का अभिनय करते बच्चों के चेहरों पर साफ़-साफ़ पढ़ा जा सकता है।
बच्चों को सिखाने के लिए कहानी सर्वोतम माध्यम है | बहुत अच्छी जानकारी दी है |