लेखः ‘बच्चे मशीन नहीं हैं’
अच्छे विचार, व्यवहार या उद्धरण के रूप में प्रचलित कुछ बातों के हम इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि कभी न तो उन पर प्रश्न उठाते हैं और न ही अलग ढंग से सोच पाते हैं। पर क्या इन बातों में इतनी ही पूर्णता या अच्छाई होती है कि इनसे अलग सोचना और करना बुरा या गलत होने को ही पुष्ट करे। पिछले दिनों एक सामूहिक शैक्षिक चर्चा में हमारा समूह एक ऐसे ही संदर्भ से जूझते हुए कुछ अलग तरह की समझ तक पहुँचा। दरअसल चर्चा का मुद्दा था कि कैसे बच्चों को नियमित रूप से स्कूल आने को प्रोत्साहित किया जाए और ‘अनुपस्थिति’ की समस्या से निपटा जाए।
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समूह में इस बात को लेकर तो आम सहमति थी ही कि विद्यालय में नियमित उपस्थिति बच्चों के सीखने की प्रक्रिया का जरूरी हिस्सा है। वरना बच्चों के सीखने की गति धीमी या बाधित होती है। सभी अपने समझ और अनुभव के आधार पर अलग-अलग सुझाव दे रहे थे। इस चर्चा में आए एक सुझाव पर एक प्रतिभागी की प्रतिक्रिया बहुत रोचक और भिन्न रही जिसने हम सबको लीक से हटकर सोचने पर विवश किया।
वह प्रतिभागी जो स्वयं एक विद्यालय प्रमुख हैं इस रणनीति को अपने स्कूल में लागू कर चुके हैं। उनके अनुसार पिछले दिनों हुए स्कूल के कार्यक्रम में सौ प्रतिशत उपस्थिति वाले बच्चों और उनके अभिभावकों को सभी बच्चों के सामने प्रशस्ति पत्र और उपहार देकर सम्मानित किया गया जिससे बाकी बच्चे इससे प्रेरित हो सकें। उनके अनुसार विद्यालय में इसका सकारात्मक असर भी दिखाई दे रहा है।
बग़ैर छुट्टी रोज़ाना स्कूल आने की अपेक्षा कितनी सही है?
उनके इस प्रयास को सुनकर जहाँ हम सभी अभिभूत थे और उनकी प्रंशसा कर रहे थे वहीं चर्चा में शामिल एक अन्य प्रतिभागी ने इस पर प्रश्न उठाकर भिन्न दृष्टिकोण दर्शाया। उन्होंने जानना चाहा कि ऐसे कितने बच्चे उस स्कूल में थे। पता चला कि उनकी संख्या दो हजार बच्चों में मात्र चार थी जो बिना एक भी छुट्टी किये पूरे साल विद्यालय आए। प्रश्न उठाने वाले प्रतिभागी ने कहा ‘लम्बे समय तक बिना एक भी छुट्टी किये रोज स्कूल आने की उम्मीद करना बच्चों के साथ अन्याय है। आखिर बच्चे भी समाज के सदस्य हैं। आकस्मिक रूप से कुछ अलग प्राथमिकतायें कभी कभी आ ही जाती हैं। उन्हें भी तो पारिवारिक-सामाजिक आयोजनों, दुख-सुख में सहभागी होने का अवसर मिलना चाहिए। ऐसा होने पर वे अधिक जिम्मेदार, संवेदनशील और जागरूक नागरिक बनेंगे।
शिक्षा के उद्देश्य इनसे अलग नहीं हैं। आखिर बच्चे मशीन भी तो नहीं हैं कि वे कभी बीमार न पड़ें या उनका अपना मन स्कूल आने का न हो।’ इस प्रतिक्रिया ने अब तक की चर्चा को एक नया मोड़ दे दिया। सब एक नये दृष्टिकोण से सोचने पर विवश हो गये। यह बात सबको समझ आ रही थी कि शत-प्रतिशत उपस्थिति की माँग व्यवहारिक नहीं है। हाँ उच्च उपस्थिति दर वांछित जरूर है और इसके लिए विद्यालय का सहज, आनंदपूर्ण व बाल केन्द्रित शैक्षिक माहौल बहुत आवश्यक है।
‘बच्चे मशीन नहीं हैं’
यह कथन कि ‘बच्चे मशीन नहीं हैं’ स्कूल संबंधी अन्य पक्षों पर भी सोचने को मजबूर करता है। स्कूल में लगने वाले विषय आधारित पीरियड जो निश्चित समय अंतराल पर एक के बाद एक घंटी बजने के साथ ही बदलते रहते हैं वस्तुतः इस समझ के खिलाफ है। बच्चों से यह उम्मीद की जाती है कि वे घंटी बजते ही पिछले पीरियड में कर रहे क्रियाकलाप, उससे जुड़ी चिंतन प्रक्रिया को रोककर और किताब कापी समेटकर तुरंत प्रारम्भ हुए पीरियड के विषय की किताब कापी निकालकर नये निर्देशों के अनुसार संचालित होने लगें। चित्रकारी में डूबे बच्चे तत्काल गणित के सवालों से आकर उलझे यह उम्मीद ही नहीं की जाती बल्कि इसे लागू कर दिया जाता है। अभी तक कविता का रस ले रहे बच्चे तुरंत सल्तनत काल की प्रशासनिक व्यवस्था पर फोकस करें यह सामान्य अपेक्षा होती है।
इस बदलाव को सहज बनाने के लिये कोई सायास प्रयास विद्यालयों में बड़े पैमाने पर होता हुआ कुछ दिखाई नहीं देता। कितना मुश्किल होता होगा यह आपात बदलाव बच्चों के लिये, हमने शायद कभी सोचा नहीं। अब तक हम व्यवहार में बच्चों को मशीन ही समझते रहे हैं। शिक्षा सहित समाज के अन्य संस्थाओं की संरचना, उनके उद्देश्य और व्यवहार के निर्धारण में बच्चों की भागीदारी मूल्यवान व समान सदस्य के रूप में कहीं नहीं दिखाई देती है। उन्हें मात्र निर्भर उपभोक्ता या नासमझ कर्ता के रूप में देखे जाने का चलन रहा है जिन्हें लगातार नियंत्रित और निर्देशित किये जाने की जरूरत है।
हालाँकि बच्चों के मनोविज्ञान और व्यवहार को लेकर पश्चिमी देशों में अध्ययन हुए हैं और उन्हें शिक्षा की अंतर्वस्तु में पिरोने के प्रयास हुए हैं। पर सभी सामाजिक सांस्कृतिक परिस्थितियों में उनका सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता। और फिर शिक्षा सहित अन्य संस्थाओं का प्रबंधन पूरी तरह से समाज में प्रचलित और विकसित हो चुके वयस्क समाज की समझ पर आधारित होता है। बिना बच्चों की इच्छा, जरूरत और संवेदना को शामिल किये हम वास्तव में उनके लिए समानुभूति पूर्वक निर्धारण नहीं कर सकते। यहाँ बच्चों की इच्छा, मत या जरूरत से अर्थ यह नहीं है कि उनसे हर बात पूछकर की जाये बल्कि यहाँ बच्चों को जानना और समझना महत्वपूर्ण है।
बच्चों को सम्मानित- मूल्यवान सदस्य मानकर लोकतांत्रिक मूल्यों और लक्ष्यों के अनुरूप सीखने सिखाने के संदर्भ व अवसर मिलना ही चाहिए। इसकी लिए संस्थाओं, उनके उद्देश्यों व व्यवहारों की पुनर्रचना बहुत आवश्यक है। थोप दिये जाने की सामंती प्रवृत्ति को हटाकर नये सिरे से सोचने और किये जाने की जरूरत है।
(लेखक परिचय: आलोक कुमार मिश्र वर्तमान में दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में सामाजिक विज्ञान के शिक्षक हैं। उन्होंने एजुकेशन मिरर के लिए अपना एक अनुभव लिखा है जो शिक्षा के क्षेत्र में उस मान्यता को चुनौती देता है जो बच्चों को मशीन मानकर रोज़ स्कूल आने की बात की वकालत करता है। बच्चों को एक मानवीय नज़रिए से देखने की गुजारिश इस लेख में की गई है।)
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