शिक्षा विमर्शः ‘बच्चों की क्षमता पर भरोसा करें शिक्षक’
शिक्षक होना क्या है? एक शिक्षक के मायने क्या हैं? शिक्षक की भूमिका क्या है? ये ऐसे सवाल हैं जिससे एक शिक्षक का बार-बार सामना होता है। शिक्षक होने की पहली शर्त है सतत सीखते रहना। ताकि सीखने-सिखाने की प्रक्रिया को जीवंत बनाने का काम सुगम तरीके से हो सके। बतौर शिक्षक हमें बच्चों और बचपन को भी समझना चाहिए।
बच्चे तो हर हाल में सीखते हैं
बच्चे ख़ुद से सीखते हैं। दूसरों का अनुकरण करके सीखते हैं। दूसरों के निर्देश से सीखते हैं। निर्देश के बग़ैर भी स्वतंत्र रूप से सीखते हैं।
बहुत से शिक्षक प्रशिक्षक मानते हैं और कहते हैं कि बच्चा खुद से सीखता है, शिक्षक तो महज सुगमकर्ता है। इसलिए एक शिक्षक को बच्चों का सम्मान करना चाहिए। उसे शिक्षण की प्रक्रिया में बच्चों को केवल रिसीवर की भूमिका में नहीं देखना चाहिए।
बच्चों को भी भागीदारी का बराबर मौका देना चाहिए। बच्चे किसी नए तरीके से भी सीख सकते हैं, इस बात को समझना चाहिए।
इस बारे में शिक्षक साथी कहते हैं, “अगर बच्चा खुद से सीखता है तो हमारी क्या जरूरत है। बच्चे के सीखने में तो हमारी कोई भूमिका नहीं है।”इस बारे में यही कहा जा सकता है कि आपकी जरूरत है और खूब है। पहले से कहीं ज्यादा है। क्योंकि स्कूल में बच्चों का नामांकन बढ़ा है। सब बच्चों के सीखने का स्तर अलग-अलग है। कहीं पर आपको ज्यादा सपोर्ट देने की जरूरत है तो कहीं पर बच्चे को बस एक रास्त भर दिखाना है। उसे किसी कांसेप्ट के बारे में बताना भर है। एक स्पष्ट निर्देश देना है और बच्चा खुद से आपकी बताई बात को बड़े अच्छे से कर लेगा।
पहली कक्षा के बच्चे भी पढ़ सकते हैं
पहली कक्षा के बच्चे पढ़ना सीख सकते हैं। इस बात पर बहुत से शिक्षकों को यक़ीन नहीं होता। उनको लगता है कि पहली कक्षा में तो बच्चे वर्ण पहचान लें यही बहुत होगा। इस कारण से वे बच्चों को सबसे पहले अ से ज्ञ तक रटाने की कोशिश करते हैं। इसके बाद पूरी बारहखड़ी रटाते हैं। फिर मात्रा ज्ञान कराते हैं। इतनी सारी कवायद बच्चों को पढ़ाने के लिए एक साथ करना, बच्चों के ऊपर भरोसा नहीं करना है। आपका सवाल होगा कैसे? यह तो बच्चों के रटने वाली क्षमता के ऊपर भरोसा है। आप तो बच्चों के समझने और कांसेप्ट बनाने वाली क्षमता पर भरोसा नहीं कर रहे हैं।
इसलिए बेहतर होग कि छोटे बच्चों को कांसेप्ट बनाने और चीज़ों को समझने का मौका दीजिए। उनकी क्षमता पर भरोसा कीजिए। चार साल का बच्चा भी बोलते समय पूरे वाक्य का इस्तेमाल करता है। बस ऐसे लिखे वाक्यों को पढ़ना उसके लिए संभव नहीं होता। ऐसे में बेहतर होगा कि उसकी क्षमता पर भरोसा करते हुए, उसे सार्थक तरीके से पढ़ाने की कोशिश करें। ऐसे वर्णों को रटाने की कोशिश न करें, जो बहुत कम प्रयोग में आते हैं। उसे थोड़े से वर्ण पढाएं, उसकी आवाज़ से परिचित कराएं। फिर मात्राओं की तरफ लेकर आएं। वर्णों को जोड़कर शब्द बनाना सिखाइए। वर्ण व मात्राओं को जोड़कर बनने वाली आवाज़ का कांसेप्ट समझाइए। फिर देखिए। वे छोटे-छोटे वाक्य पढ़ने लग जाएंगे। फिर धीरे-धीरे किताब भी पढ़ने लग जाएंगे।
आखिर में हमें इस बात पर यकीन करने की जरूरत है कि हर बच्चासीखता है। वह सीखे बगै़र रह ही नहीं सकता। हाँ, यह और बात है कि आप जो-जो सिखा रहे हों, उसको ज्यों का त्यों न सीख रहा हो। सीखने के लिए थोड़ा वक़्त ले रहा है। अगर सीखने में समय लगता है तो हमें धैर्य का परिचय देना चाहिए। बच्चों को बच्चा समझना चाहिए, बड़े होने के नाते उनकी मुश्किलों को समझना चाहिए। बच्चों के सीखने की क्षमता पर भरोसा करना चाहिए और भूलने की स्वाभाविक प्रक्रिया को भी अप्रत्याशित घटना के रूप में नहीं देखना चाहिए।
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