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‘इंग्लिश मीडियम’ की पढ़ाई किसके काम आई?

उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के लोगों ने हिंदी के आंदोलन में हिस्सा लिया। मगर क्या इस देश में हिंदी का वर्चस्व कायम हो पाया या हिंदी को अंग्रेजी के बराबर महत्व मिल पाया। इस सवाल का जवाब शायद नहीं में ही होगा। रोजगार के लिए अंग्रेजी का पर्चा सिविल सर्विस की परीक्षा में अनिवार्य होने के बाद बहुत से युवाओं के सपने मिट्टी में मिल गये, जबकि उनकी प्रशासनिक क्षमता किसी अंग्रेजी वाले से किसी मायने में कम न रही होगी। मगर अंग्रेजी की अनिवार्यता ने उनके मौके तो छीन ही लिए।

हिंदी के आंदोलन से ‘इंग्लिश मीडियम’ और मजबूत हुआ?

हिंदी का आंदोलन करने वाले प्रदेश के बच्चों के मन में अंग्रेजी के प्रति बैर का भाव शुरू से भरना शुरू हो जाता है, पिछले कुछ सालों में माहौल बदला है तो इंग्लिश मीडियम के नाम पर  बरसाती कुकुरमुत्तों की भांति तमाम निजी स्कूल खुल गये जो अंग्रेजी माध्यम के नाम पर रट्टा मार प्रतियोगिता में बच्चों को धकेल रहे हैं। जहाँ बच्चे हिंदी भाषा में आसानी से समझे जाने वाले विषयों को भी अंग्रेजी में पढ़ रहे हैं। वे सिर्फ डिकोडिंगद वाली क्षमता के सहारे इन विषयों में रट्टा मारकर पास होने भर का अंक हासिल करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

20180728_163130.jpgऐसे में लगता है कि नारों से प्रेम करने वाली जनता, किसी बात के मर्म तक पहुंचने की कोशिश नहीं करती। अंग्रेजी जरूरी है तो स्पोकेन क्लासेज की बाढ़ आ गई। छोटे-छोटे शहरों में दिन-दहाड़े अंग्रेजी बोलना सिखा देने का दावा करने वाले संस्थान खुल गये।

इंग्लिश मीडियम की पढ़ाई किसके काम आई?

गाँव, छोटे कस्बों और शहरों के औसत दर्जे के इंग्लिश मीडियम स्कूलों में पढ़ाई करने वाले बच्चे और ख़ासतौर पर बेंच की आखिर में बैठने वाले बच्चे, इस बात को समझ नहीं पा रहे हैं कि किताबों में क्या लिखा है। जब वे समझ नहीं पा रहे हैं तो रट रहे हैं। परीक्षा के कम नंबर पा रहे हैं। अपना आत्मविश्वास खो रहे हैं। बाकी बच्चों की नज़र में अपना आत्म-सम्मान खो रहे हैं, मगर इस बात की किसको पड़ी है? अभिभावक भी इस बात से अंजान हैं कि बच्चों की मुश्किल क्या है, वे तो बस इस बात से खुद संतुष्ट हो लेना चाहते हैं कि पढ़ाई की महंगी फीस दे रहे हैं, ट्युशन करा रहे हैं और पढ़ाई अच्छी हो इसके लिए घर के तमाम काम से बच्चों को फ्री कर रहे हैं। इससे ज्यादा की क्या अपेक्षा हो सकती है? यानि इंग्लिश मीडियम की पढ़ाई बच्चों की समझ में औऱ बच्चों के बेहतर भविष्य में सीधा-सीधा योगदान नहीं दे पा रही है।

हाँ, इसके नाम पर इंग्लिश मीडियम की दुकानों को फायदा जरूर हो रहा है। उनके कस्टमर बढ़ रहे हैं। कोचिंग सेंटर फल-फूूल रहे हैं। गाइड्स की बिक्री बढ़ रही है। स्कूली शिक्षा के नाम पर एक वैकल्पुिक रोजगार सृजन हो रहा है, जहाँ बच्चे और अभिभावक दोनों ठगे जा रहे हैं।

कंप्यूटर जरूरी है तो छोटे-छोटे कस्बों में भी बच्चों ने सीपीयू और कंप्यूटर के फुल फॉर्म रटने शुरू कर दिये। बाकी की कसर मोबाइल इंटरनेट ने दूर कर दी। बच्चे अपनी सेल्फी लेने और स्टेट्स अपडेट करने में लग गये। वे गिटिर-पिटिर अंग्रेजी बोलकर, स्टेटस अपडेट करके और फेसबुक पर तस्वीर चिपकाकर उन्होंने भी खुद को 21वीं सदी का नागरिक घोषित कर दिया।

TET की परीक्षा, रोजगार की राह में चुनौती बनी

वे इस बात से अनजान बने रहे कि उनके सामने प्रतियोगी परीक्षाओं की प्रतिस्पर्धा मुँह बाये खड़ी है। उनको भी प्रतिस्पर्धा में अंग्रेजी मीडियम में पढ़े, कोचिंग सेंटर में लाखों-हज़ारों की फीस देकर पढ़ने वाले छात्र-छात्राओं से प्रतिस्पर्धा करनी है। नकल करके ज्यादा नंबर पाने वाले प्रदेश में TET की परीक्षा पास करने की बात पर उन परीक्षार्थियों के हाथ-पाँव फूल गये तो नकल करके या जुगाड़ से या प्रतियोगी परीक्षाओं के बग़ैर पढ़ाई करके सिर्फ अच्छे नंबर पाकर मेरिट के आधार पर नौकरी में आने की राह देख रहे थे।

आज के दौर में हालात ऐसे हैं कि हर भर्ती की परीक्षा विवाद के साथ शुरू होती है, विवाद के साथ खत्म होती है। फिर हाईकोर्ट में याचिका लगती है और तारीख पर तारीख पड़ने लगती है। शिक्षक व अन्य भर्तियों की कहानी चयन आयोग और कोर्ट के बीच पेंडूलम की तरह झूलने लगती है। शिक्षा मित्रों का क्या हुआ और क्या हो रहा है, टेट व बीएड की परीक्षा पास करने वाले उन अभ्यर्थियों का क्या हुआ जो भर्ती परीक्षा के बाद नियुक्ति पत्र का इंतज़ार कर रहे थे। 68,500 की हाल ही में होने वाली भर्ती में भी गड़बड़ी के आरोप लग रहे हैं, मामला कोर्ट तक पहुंच चुका है। सरकार के फैसले के कारण एक ही भर्ती के पक्ष और विपक्ष एक ही राज्य के युवाओं में बन रहे हैं। शिक्षामित्र भी अपनी पीड़ा सरकार तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे हैं, मगर ऐसी स्थिति और हालात के लिए जिम्मेदार कौन है? यह देखने और समझने वाली बात है।

जुगाड़ का सिलसिला, आखिर कब तक?

जुगाड़ से काम चलाने का तरीका और लोगों को अस्थाई तौर पर संतुष्ट करने की कोशिश और रोजगार को चुनाव की राजनीति का हिस्सा बनाने की कोशिश इस स्थिति को बद से बदतर ही बनाएंगी। हमें यह तमाशा देखना भी है और इसके समाधान की राह भी खोजनी है। सरकारी स्कूलों की इस स्थिति को देखकर यही कहने का मन होता है, “आप तो हिंदी के आंदोलन में कूदो, उनके बच्चे इंग्लिश मीडियम स्कूल में अपना भविष्य चमका रहे हैं।”

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