प्रोफेसर कृष्ण कुमार की किताब ‘पढ़ना, ज़रा सोचना’ को पढ़ने की जरूरत क्यों है?

The Director of NCERT. Prof. Krishna Kumar addressing a press conference on National Curriculum Framework in New Delhi on November 16, 2004.
अपनी किताब ‘पढ़ना, ज़रा सोचना’ में प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार लिखते हैं, “जो पढ़ नहीं सकते, उन्हें अनपढ़ कहकर हम ऐसे लोगों के लिए कोई शब्द नहीं छोड़ते जो पढ़ सकते हैं मगर पढ़ते नहीं। उनसे भी बड़ी संख्या में वे हैं जो पढ़ते हैं, पर समझते नहीं। यह पुस्तक इन्हीं दो समस्याओं के बारे में हैं – पहली पढ़ने की आदत का अभाव और दूसरी- समझने की चिंता किये बग़ैर पढ़ते जाना।“
किताब का यह अंश इसलिए रोचक लगा क्योंकि ये शब्द बड़े सटीक तरीके से उस सच्चाई को सामने ले आते हैं जो समाज में बड़े स्तर पर व्याप्त है। लेकिन उसका सामना करने के लिए हम तैयार नहीं हैं। वास्तव में हमारी पढ़ने की आदत बड़े संकट के दौर से गुजर रही है। उदाहरण के तौर पर टाइम पत्रिका पर भारत के प्रधानमंत्री के बारे में प्रकाशित किसी लेख की आलोचना या तारीफ केवल शीर्षक के आधार पर हो रही है। उसको खुद से पढ़ने व उसका विश्लेषण करने की जरूरत नहीं समझी जा रही है। उस लेख के बारे में लिखे आलेख को पढ़ना ज्यादा सुकून देता है या फिर उस लेख पर कोई चर्चा हो जाए।
पढ़ने की परेशानी उठाने को भी तैयार नहीं
यानि पढ़ने की परेशानी उठाने को तैयार नहीं है हमारी नई पीढ़ी, वह किसी और के भरोसे है कि कोई किताब पढ़कर कोई वीडियो या पीपीटी बना देगा और उसका काम आसान हो जाएगा। ऐसा अनुभव मैंने खुद से देखा है। समझने वाले पहलू की तरफ अपने दिल्ली में रहने वाले एक मित्र के साथ होने वाला संवाद याद आता है कि जिंदगी में चार किताबें पढ़िए, मगर उनको पूरा समय दीजिए। समझ के साथ चुनिंदा किताबों को पढ़ना, सरसरी निगाह से ज्यादा किताबें पढ़ने की तुलना में वाकई बेहतर है। समझने की चिंता एक सजग समाज की परिचायक है, जो बतौर पाठक व नागरिक हमारे सरोकारों से गधे के सिर से सींग की तरह ग़ायब हो रही है, प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार इसी तरफ हमारा ध्यान दिलाना चाहते हैं।
दूसरा अंश इस किताब के आलेख ‘पढ़ना, बचपन और साहित्य’ का है। जो इस प्रकार है, “दूसरों को पढ़ता देखकर बच्चे भी पढ़ना चाहते हैं। वे उत्सुक होते हैं कि पिताजी, माँ या किसी अन्य बड़े की तरह वे भी अखबार या किताब लेकर बैठें। कई बच्चे पढ़ने की मुद्रा का अभिनय करते-करते स्वयं पढ़ने लगते हैं, भले ही उन्हें पूरी वर्णमाला न आती हो और न ही किसी ने उन्हें अक्षर लिखने व उसकी ध्वनि मुँह से निकलवाने का अभ्यास कराया हो। बचपन में किसने कैसे पढ़ना सीखा, इसे लेकर आप कई निजी कहानियां सुना सकते हैं। इन कहानियों से इतना तो सिद्ध हो जाएगा कि बच्चे पढ़ना चाहते हैं, इसलिए सीख लेते हैं।“ पृष्ठ संख्या 7
बच्चों के सीखने की क्षमता पर भरोसा
इस अंश की आखिरी पंक्ति बच्चों के सीखने की क्षमता पर भरोसा करने की गुजारिश करती सी प्रतीत होती है। इसे पढ़ते हुए मुझे सरकारी विद्यालय में पहली कक्षा की एक बच्ची याद आई जो पाठ पढ़ने के दौरान किताब को उल्टी रखकर बड़ी तल्लीनता से पढ़ने का अभिनय कर रही थी। उस दौरान रीडिंग की एक्टिंग के बारे में जानने की बड़ी जिज्ञासा हुई थी कि इसका पढ़ने से क्या रिश्ता है? क्या जो बच्चे पढ़ने का अभिनय करते हैं, वे बड़े होकर पढ़ना सीख पाते हैं। इसके साथ ही उन बच्चों के बारे में सोचने का अवसर मिलता है कि जो बच्चे आठवीं कक्षा में होकर भी नहीं पढ़ पाते, स्कूल आना उनके लिए कैसा अनुभव होता होगा? क्या उनको किसी तरह की मानसिक परेशानी या पीड़ा से गुजरना होता होगा।
राजस्थान में आठवीं कक्षा के बच्चों की बोर्ड परीक्षा के दौरान डरा हुआ देखकर परीक्षा के दहशत का अहसास हुआ कि कैसे इस तरह की परिस्थितियों के कारण बच्चों पर एक दबाव होता है कि वे महसूस करें कि वे काबिल नहीं हैं। वे पढ़ने के क्षेत्र में आगे नहीं जा सकते। उनको आगे बढ़ने का साहस या दुस्साहस नहीं करना चाहिए। इस तरह की बातें इस अंश को पढ़ते हुए मन में आती हैं। शब्दों का मसीहा कहे जाने वाले सार्त के बारे में पढ़ा था कि उन्होंने लाइब्रेरी की किताबों को खंगालते-खंगालते खुद से पढ़ना सीख लिया। इस तरह की बातें पहली नज़र में तो हैरान करती हैं, लेकिन लगता है कि ऐसा भी संभव हो सकता है।
पढ़ना और पढ़ाई का अंतर
तीसरा अंश इस प्रकार है, “पढ़ना मूलतः जिज्ञासा के सहारे आगे बढ़ने वाला काम है। ‘पढ़ाई’ में निहित ‘पढ़ना’ इस बात से एकदम अलग और आमतौर पर उसके विपरीत है। ‘पढ़ाई’ में ‘पढ़ना’ एक बार शुरू में थोड़ी बहुत जिज्ञासावश हुआ हो ‘मेहनत’ और परीक्षा की ‘तैयारी’ में जिज्ञासा का कोई जोश नहीं रहता। ‘पढ़ाई’ और ‘पढ़ना’ एक प्लेटफॉर्म से छूटकर बिल्कुल विपरीत दिशाओं में जाने वाली गाड़ियां बन जाती हैं।“
इस अंश को पढ़कर हैरानी होती है कि कैसे कोई लेखक इतनी बारीक सी बात को शब्दों में ढाल देता है। यह अंश ‘पढ़ना’ में शामिल ख़ुशी और जिज्ञासा के तत्व को उभारता है, जो पढ़ाई यानि पाठ्यक्रम की किताबों के सवालों के जवाब रटने व परीक्षा में अच्छे नंबर पाने वाली रेस में नदारद होती है। वास्तव में पढ़ना तब शुरू होता है जब हम पढ़ाई के बोझ से मुक्त हो जाते हैं।
अगर मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव की बात करूँ तो साहित्य की तरफ वास्तविक रूझान बीए की पढ़ाई के दौरान पनपा, जब बोर्ड परीक्षाओं का समय बीत गया। पास-फेल की चिंता मन से ग़ायब हो गई।
हालांकि पढ़ने के प्रति एक लगाव पहले से था कॉमिक्स व अन्य बाल पत्रिकाओं के कारण। मेरे पास एक पीएचडी की थीसिस थी ललित निबंध के ऊपर जो मेरे पास विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए बनारस जाने के लिए साथ में थी। उसे खाली समय निकालकर बड़े मनोयोग से पढ़ता था, जबकि इस पढ़ाई का नंबर पाने व परीक्षा से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं था। क्योंकि सोशल साइंस के विषय अंग्रेजी, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र व समाजशास्त्र थे।
लेखक की एक बात कि पाठ्यक्रम वाले विषयों में पढ़ने का चाव नहीं होता, पूरी तरह से सहमत होने का मन नहीं करता। मनोविज्ञान विषय के बहुत से टॉपिक व किताबें साहित्य जैसी ही रोचक लगीं, व उनको पढ़ते समय वैसा आनंद मिलता था जो साहित्य को पढ़ते हुए मिलता था।
लेकिन उन्मुक्त होने व आज़ादी का जो भाव साहित्य में मिलता था, वह वाकई इन किताबों को पढ़ते समय नहीं होता था। क्योंकि हर पाठ के पहले उस पाठ को पढ़ने के बाद आप क्या जान जाएंगे, इस बात से शुरू होता था। जैसे कहानी की कोई किताब इस बात से शुरू हो कि यह कहानी पढ़ने से आप जान जाएंगे कि लालच बुरी बला है, लोभ का अंत बुरा होता है इत्यादि।
बदलाव की आहट का भी जिक्र जरूरी है
चौथा अंश ‘वाचन और पाठ’ नामक लेख से है, “सरकारी स्कूलों में भी पुस्तकालय बनाए गए हैं। इन कोशिशों के बावजूद एकाकी, चुपचाप बैठे किताब पढ़ते हुए बच्चे कम ही दिखाई देते हैं। किताब घर ले जाने की अनुमति ज्यादातर स्कूल नहीं देते और पुस्तकालय की तीस-पैंतीस मिनट की घण्टी में कोई कितना पढ़ लेगा?”
इस किताब को पढ़ते हुए इस अंश पर नज़र ठहरी और लगा कि परिस्थितियां ज्यों की त्यों ठहरी हुई नहीं हैं। उनमें बदलाव हो रहा है। अब ऐसे बच्चे दिखाई देते हैं को चुपचाप बैठकर किताब पढ़ते हुए दिखाई देते हैं। उत्तर प्रदेश के अपने अनुभव में भी ऐसे बदलाव को जीवंत रूप में देखा है। लेकिन इस बात से पूरी सहमति है कि ऐसे प्रयासों को व्यवस्थागत रूप से प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है।
जो लड़कियां किताब पढ़ने में रुचि ले रही हैं या पढ़ना चाहती हैं, क्या वे 10वीं में जाकर भी वैसे ही आजादी के साथ कहानी की किताबें पढ़ सकेंगी या फिर उनपर पाठ्यक्रम की किताबों को पढ़ने का दबाव बाकी बच्चों की तरह बढ़ जाएगा, जो साहित्य की किताबें नहीं पढ़ना चाहते और पाठ्यक्रम की किताबों को भी बहुत मजबूरी में पढ़ते हैं या फिर फेल होने के डर और उसके बाद होने वाली सामाजिक आलोचना से डकर पढ़ते हैं।
पढ़ने का सुख
पाँचवां अंश, “अब हम इस प्रश्न का जवाब दे सकते हैं कि पढ़ने का सुख आखिर है क्या? यह एक निरुद्देश्य सुख है, अर्थात इसमें जो कुछ है, वह पढ़ने की आदत डालकर ही जाना या महसूस किया जा सकता है। यदि आप किसी बच्चे से पूछें कि उसे कहानियां पढ़ना क्यों अच्छा लगता है तो वह कुछ असमंजस में पड़ जाएगा, बशर्ते उसे कोई उत्तर पहले से रटा न दिया गया हो।
कहानी का आकर्षण मनुष्य के बुनियादी स्वभाव का अंग है और इस अंग का विकास बचपन में अपने आप शुरू हो जाता है।“ यह अंश रोचक इसलिए लगा कि पढ़ने का सुख और पढ़ने की आदत दो चीज़ें जीवन में बेहद महत्वपूर्ण हैं।
स्वयं से पढ़ने की आदत का न होना कैसे हमारी ज़िंदगी से इस सुख को छीन सकता है, जिसे पढ़ने का सुख कहते हैं। दो दिन पहले ही सुबह स्कूल जाने से पहले द अलकैमिस्ट किताब के कुछ पन्ने बीच से पढ़ रहा था, उस दौरान लग रहा था कि यह सिलसिला जारी रहे। किताब हाथ में रहे और यह समय ठहरा सा रहे। इसी सुख को शायद लेखक यहाँ रेखांकित कर रहे हैं।
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