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बाल-साहित्य में कविताएंः ‘कैसे दीप जलाएँ बोलो’

वे कविताएँ जिन तक मैं पहुँच सका, लगभग 1700 कविताएँ पढ़ने का समय मिला। मुझे हैरानी हुई कि मात्र छह फीसदी कविताएं ही मुझे आनन्द दे सकीं। मैं यह मानता और जानता हूँ कि आनंद की अपनी सीमा है। हर किसी की अपनी मनोवृत्ति भी है।

यह क़तई ज़रूरी नहीं है कि मुझे पसंद आने वाली कविताएँ आपको भी पसंद आएँ। यह भी हुआ कि पढ़ते-पढ़ते मैं कई बार अपना बालमन छोड़कर बड़ापन में आ गया। कभी मुझे लगा कि ये कविता तो बड़ों की कविता है! कभी लगा कि ये कविता बच्चों के लिए हो ही नहीं सकती ! कभी-कभी लगा कि यह कविता तो सभी को अच्छी लगेगी। कभी-कभी ऐसी कविताएं भी आँखों के सामने से गुजरीं जिन्हें पढ़कर मन प्रसन्न हुआ।

कविता में बच्चों का बचपन

मधु पंत बच्चों की काल्पनिकता,जिज्ञासा को बेहतर समझती हैं। उनकी कविता में बच्चों का बचपना शामिल होता है। वह बडों की कलम से नहीं बच्चों के हाथ में पकड़ाई कलम के आधार पर कविताएँ लिखने में सफल रही हैं। एक अंश-

यदि पेड़ों के होते पैर?
सारा दिन वे करते सैर।
आम तोड़ने बिट्टू आता,
पेड़ भाग जाता,छिप जाता।

सरोजिनी कुलश्रेष्ठ की कविताओं में सामाजिक सरोकारों की महक मिलती हैं। वे बच्चों की नज़र से भी रचनाओं को अलग अंदाज़ में प्रस्तुत करती हैं। एक अंश-

माँ मैं भैया बन जाऊँ तो,
मज़ा बहुत ही आएगा।
बस्ता लेकर बड़े ठाठ से
जब मैं पढ़ने जाऊँगी
भैया देगा टिफिन लगाकर
बड़े चाव से खाऊँगी
खेलूँगी, कूदूँगी जी-भर
डटकर मौज मनाऊँगी।

सरोजिनी कुलश्रेष्ठ की कविताओं में बच्चों के सवाल भी शामिल रहते हैं। एक अंश-

जिनके पास नहीं हैं पैसे
तेल कहाँ से लाएँ बोलो
प्यारे तारो, तुम्हीं बताओ
कैसे दीप जलाएँ बोलो।
इसलिए इनकी ख़ातिर तुम
आज राज धरती पर आओ।,

‘जो सोचा वह कर न पाऊं’

प्रभुदयाल श्रीवास्तव लम्बे समय से बाल कविताएँ लिख रहे हैं। बेहद सक्रिय वरिष्ठ कवि नए भाव-बोध के लिए भी जाने जाते हैं। पिज्जा के पेड़ उनकी मशहूर कविता है। एक अंश-

पर मम्मी-पापा के कारण,
जो सोचा वह कर ना पाऊँ,
नहीं मानते बात हमारी,
उनको अब कैसे समझाऊँ?

रोहिताश्व अस्थाना बच्चों की ओर से ये बताने में सफल होते हैं कि बच्चे कोई वर्ग-धर्म विशेष अन्तर नहीं करते। बच्चों के लिए सब उनका है। उनके लिए है। एक अंश-

कभी न कम हों,
जिसकी खुशियाँ
ऐसा है भंडार ईद का।

अश्वघोष साहित्य जगत में पुराना नाम है। वे ग़ज़लकार भी हैं। कवि तो हैं ही। शिक्षक रहे हैं। बच्चों के मनोविज्ञान को भली-भांति समझते हैं। बच्चों के गीत-कविता ख़ूब लिखी हैं। एक अंश-

मम्मी,पापा,नानी,भैया,
दिन भर करते तात-ता-थैया।
मेरी समझ नहीं आता है,
इनका समय कहाँ जाता है!
अश्वघोष की एक और कविता का अंश आप भी पढ़िएगा-
जिन्हें नहीं है ख़बर आज भी
प्यार किसे कहते हैं,
भाग्य-भरोसे ही रहकर जो,
भूख-प्यास सहते हैं
उन पर प्यार लुटाएँ हम।

‘इन बच्चों की यही कहानी’

योगेंद्रकुमार लल्ला बाल-साहित्य के प्रचार-प्रसार में कार्य करने वालों में एक हैं। उन्होंने बाल-साहित्य को सराहनीय रचनाएँ दी हैं। बच्चे हड़ताल,कोरोना,परमाणु बम,मौत,लाश,शादी-बारात आदि पर भी सोचते हैं। एक अंश-

कर दो जी,कद दो हड़ताल,
पढ़ने-लिखने की हो टाल।
बच्चे घर पर मौज उड़ाएँ,
पापा-मम्मी पढ़ने जाएँ

श्यामसिंह शशि बौद्धिक एवं सामाजिक लेखन के लिए जाने जाते हैं। वे सामाजिक विषमताओं पर भी खूब लिखते रहे हैं। बाल कविता में यही भाव दिखाई भी देता है। एक अंश-

जब तक भीख माँगता बच्चा
कैसे बाल-वर्ष तब अच्छा
पापा-मम्मी, नाना नानी
इन बच्चों की यही कहानी।

भगवती प्रसाद द्विवेदी ने भी बाल मन को छूने का प्रयास किया है। हालांकि बच्चों को ही शामिल करके कोई रचना बाल-साहित्य में शामिल नहीं हो सकती। मुझे लगता है कि किसी रचना का सरलीकरण कर देना भी बाल-साहित्य नहीं है। बाल-साहित्य यह भी नहीं कि वह सिर्फ बच्चों के लिए ही होती है। सरल,सपाट,तुकबन्दी और सीखप्रद। बाल-साहित्य में बालजगत की आवाज़ें हों। उनकी दुनिया हो। उनके मसअले भी हों। उनका सरल,निष्कपट स्वभाव भी दिखाई दे। एक अंश-

छुटकी नहीं रहेगी चुप
रोना नहीं उसे छुप छुप
धरती बेलेगी छुटकी
नभ से खेलेगी छुटकी!

(मनोहर चमोली जी शिक्षा और बाल साहित्य लेखन व अध्ययन में सक्रियता से काम कर रहे हैं। कविताओं पर होने वाली यह चर्चा आपको कैसी लगी, लिखिए कमेंट बॉक्स में)

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