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पुस्तक चर्चाः ‘अकम से पुरम तक – लोककथाओं का घर और बाहर’ – तेजी ग्रोवर

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‘अकम से पुरम तक- लोककथाओं का घर और बाहर’ किताब का लेखन तेजी ग्रोवर ने किया है। इस किताब का प्रकाशन किया है एकलव्य संस्था ने। इस किताब को टाटा ट्रस्ट् के पराग इनीशिएटिव का भी सहयोग प्राप्त है। इस किताब की कीमत है 40 रूपये। यह किताब लोककथाओं की दुनिया से हमें रूबरू कराती है और इसके साथ ही साथ हमें ऐसी बहुत सी बारीकियों से परिचित कराती है जो हमें बतौर पाठक और बतौर शिक्षक कहानियों के इस्तेमाल को लेकर सजग भी करती हैं।

इस किताब के बारे में लिखी बात भी पढ़ने योग्य है, “कहानी रूप बदलती है। कहानी के जन्म से लेकर दुनिया में उसके फैलने तक उसका रूप बदलता है। उसमें कहने-सुनने वाले कितना कुछ जोड़ते हैं, बदलते हैं और इससे कहानी विस्तार पाती है। कहानियों के इस बदलाव और उसके घरेलू संदर्भ से निकलकर दुनिया में अलग-अलग रूपों में ज़िंदगी से जुड़ने को विस्तार देते लेखों से सजी है यह किताब जो शिक्षकों पालकों और बच्चों के साथ काम करने वालों के लिए अत्यन्त उपयोगी है।

इस किताब के लेख ‘एक कहानी और एक गीत’ लेख का एक अंश, “इतना कहना पर्याप्त होगा कि सन्दर्भ से कटी हुई कहानी, जिसे उसके परिवेश से बाहर आकर अपनी जगह बनानी है, कुछ अतिरिक्त संवेदन की माँग करती है। जिस परिवेश में बच्चे एक घेरे में बैठे हुए हैं और कोई स्नेहमयी स्त्री थाली में दाल-भाक मिलाकर हर बच्चे को बारी-बारी से एक-एक ग्रास खिला रही है, वहाँ कही गई कोई कहानी अगर किताब में छपकर किसी अकेले कमरे में पढ़ रहे किसी बच्चे के पास आती है तो इन परिस्थितियों में ज़मीन-आसमान का अंतर है। बुन्देलखण्ड की ऐसी कहानियां जिनमें पिटाई, कत्ल, हाथ-पाँन-नाक-कान काट देना आम बातें हैं, अपने आत्मीय परिवेश से हटकर एखदम वीभत्स प्रतीत हो सकती हैं।“

“ए एस नील के अनुसार ऐसी कहानियां समभाव से हरेक को नहीं सुनाई जा सकतीं – अन बच्चों को कतई नहीं जो एकदम से घबरा या डर जाते हैं। बड़े होने पर ऐसे बच्चे अपने पढ़ने लायक सामग्री का चुनाव खुद कर सकते हैं। कुछ तो आजीवन ही डरावनी कहानियां पढ़ने से परहेज करते हैं और धोखे से भी ऐसी किसी फिल्म या दृश्य टीवी आदि पर देख लेने भर से मन में दहशत सदा के लिए बैठ जाती है।

आधुनिक युग में बड़े पैमाने पर युद्ध और औद्योगीकरण से उपजे सर्वव्यापी भय की तुलना निश्चित ही, मिशाल के तौर पर, बुन्देलखण्ड की कुछ हिंसक कहानियों से नहीं की जा सकती है। किसी ने ठीक ही इस और इशारा किया है कि हाइड्रोजन बम की खोज तो ऐसे (बुन्देल भाषी) परिवेश की देन नहीं है, और न ही ऐसी जीवन शैली जिसके परिणामस्वरूप समुद्र का स्तर बढ़कर पृथ्वी को लील लेता है।”

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