भाषा शिक्षण सिरीज़ः क्लासरूम की दिनचर्या और प्रिंट समृद्ध वातावरण का निर्माण कैसे करें?
बच्चों द्वारा स्कूली शिक्षा के शुरूआती दिनों में ‘भाषा शिक्षण’ पर जोर दिये जाने का प्रमुख कारण है कि भाषा के सीखने पर ही अन्य विषयों का सीखना और उनकी विषय सामग्री का सार्थक ढंग से इस्तेमाल करना संभव होता है। यहाँ पर एक और रेखांकित करने वाली बात है कि एक भाषा का सीखना, हमेशा दूसरी भाषा के सीखने में मदद करता है। इस अर्थ में हिन्दी भाषा सिखाने की सक्रियता का असर अन्य भाषाओं के सीखने पर भी पड़ेगा, यह बात पूरे विश्वास के साथ कही जा सकती है।
‘भाषा शिक्षण सिरीज’ की पहली कड़ी में हमने बच्चों के साथ परिचय, उनको स्कूल के माहौल में सहज करने के लिए बालगीत और खेल गीतों के इस्तेमाल को लेकर चर्चा की थी। इन गतिविधियों को आगामी दो-तीन महीनों तक भाषा कालांश का अभिन्न हिस्सा मानते हुए जारी रखने का भी जिक्र किया था।
भाषा शिक्षण सिरीज़ पार्ट-1 पढ़ेंः बच्चों के साथ परिचय, बालगीत और खेलगीत से करें शुरुआत
हिन्दी में भाषा शिक्षण की शुरुआत में बच्चों के साथ होने वाला परिचय और एक-दूसरे को जानना बेहद महत्वपूर्ण है। इसलिए शिक्षक साथियों की तरफ से प्रत्येक बच्चे को व्यक्तिगत रूप से जानने का प्रयास करना चाहिए ताकि हम उनकी जरूरत के अनुसार उनकी मदद कर सकें। उदाहरण के तौर पर अगर कोई बच्चा स्कूल में शर्मीला और अपनी बात कहने में डरता तो पहली जरूरत उसको स्कूल के माहौल या कक्षा-कक्ष में सहज करने की है। ताकि वह बाकी बच्चों व शिक्षकों के साथ घुलमिल सके। इसके साथ ही साथ अपनी आत्मविश्वास और बिना किसी झिझक के अपनी बात कहने का भरोसा हासिल कर सके।
बालगीत और खेल गीतों के बाद मौखिक भाषा के विकास में कहानियों ख़ासतौर पर लोककथाओं की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अगर यह बच्चों की अपनी भाषा में हों तो इसका जादुई असर होता है और बच्चे स्कूल की कक्षा में बैठे हुए और एक शिक्षक के साथ किसी गतिविधि में शामिल होते हुए खुद को सहज पाते हैं। उनको लगता है कि हमारे घर की भाषा के लिए स्कूल में जगह है। यानि स्कूल भी घर की तरह आश्वस्त करने वाली और मानसिक रूप से सुरक्षित होने का अहसास दिलाने वाली जगह है।
क्लासरूम की दिनचर्या से बच्चों को परिचित कराएं
- अगर हम योजना बनाकर काम करते हैं तो बच्चों को उससे चीज़ों को व्यवस्थित रूप से समझने और स्वयं से करने में काफी मदद मिलती है।
- अगले दिन की शुरूआत एक बालगीत या लोककथा के साथ करें। बच्चों को कहानी व कविता के आनंद से परिचित होने दें। सुनने के आनंद को महसूस करने का अवसर दें।
- इसके बाद पिछले दिन के काम की पुनरावृत्ति या दोहरान करें। पिछले दिन के काम को संक्षेप में याद दिलाएं और कुछ बच्चों से पूछें। इसके बाद फिर नया काम शुरू करें।
- कालांश शुरू होने से पहले बैठक व्यवस्था, शिक्षण सामग्री व अन्य तैयारियों को एक बार जरूर देख लें ताकि उस दिन की कक्षा सुगम तरीके संचालित हो सके।
- कक्षा में ज्यादा से ज्यादा बच्चों की भागीदारी हासिल करने का प्रयास करें और नये बच्चों को बोलने के लिए प्रोत्साहित करें। इसके लिए बालगीतों व खेल गीतों से काफी मदद मिलेगी।
- आखिर में एक बात का ध्यान जरूर रखें कि बच्चे कुछ काम स्वतंत्र रूप से करें, कुछ काम समूह में करें और कुछ काम दो-दो की जोड़ियों में करें ताकि उनको अपनी भाषा के इस्तेमाल का व्यावहारिक अनुभव भी मिल सकें।
सुबोपलि (LSRW) वाले फॉर्मूल को फिर से देखें
आमतौर पर यह कहा जाता है कि बच्चों के भाषा सीखने की प्रक्रिया में सबसे पहले सुनना, फिर बोलना और फिर पढ़ना और आखिर में लिखना आता है। इस बात से सहमति है, लेकिन रीडिंग रिसर्च के क्षेत्र में होने वाले शोधों व अध्ययनों के हवाले से यह बात कही जा सकती है कि भाषा सीखने की प्रक्रिया काफी गतिशील व बहुआयामी है। इसके सीखने का दायरा घर, गाँव के माहौल, हाट-बाज़ार से लेकर स्कूल की चारदीवारी और क्लासरूम तक फैला हुआ है। नीचे हम एक ग़ौर करने वाली बात करेंगे –
स्वयं से संवाद
(खुद से बातचीत खेलों के दौरान)
सुनना – समझना
बोलना – समझना
लिखना – समझना
पढ़ना (डिकोड करना) – केवल उच्चारण करना
पढ़ना (डिकोड करना और अर्थ निर्माण) – समझना
बच्चे भाषा का इस्तेमाल किस-किस तरीके से करते हैं, इसे ऊपर के विवरण से समझा जा सकता है। स्वयं के साथ बातचीत करते हुए, दूसरे बच्चों से बातचीत करते हुए सुनना और फिर उसका जवाब देना यानि बोलना। किताबें पढ़ना और लिखना सीखना।
यहाँ एक बात स्पष्ट कर देना जरूरी है कि सुनना, बोलना, पढ़ना व लिखने की प्रक्रियाएं साथ-साथ चल सकती हैं और चलती हैं। किसी बच्चे के लिए चित्र बनाना भी लिखना है। चित्रों के बारे में बताना ही उनको पढ़ना है, इस प्रक्रिया में बच्चे उन अर्थों को डिकोड करते हैं जो उन्होंने अपने बनाये चित्रों पर आरोपित किये हैं। सुनना और बोलना तो साथ-साथ चल ही सकता है, इस बात से सभी सहमत होंगे। पूरी प्रक्रिया में सब जगह समझना शामिल है। समझने का रिश्ता एक संदर्भ के साथ है, इस बात को भी ध्यान में रखना जरूरी है।
प्रिंट समृद्ध वातावरण बनाएं व चित्रों पर चर्चा का अवसर दें

इकतारा से प्रकाशित पोस्टरों का इस्तेमाल भी आप प्रिंट समृद्ध वातावरण के निर्माण के लिए कर सकते हैं।
प्रिंट समृद्ध या प्रिंच रिच माहौल बनाने को भाषा शिक्षण की पूर्व तैयारी के रूप में देखा जा सकता है। इसके लिए छोटी-छोटी कहानियों व कविताओं के पोस्टर का इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके अलावा बच्चों के काम को भी इसका हिस्सा बनाना चाहिए। इससे बच्चे प्रिंट के साथ परिचित होना और उससे एक जुड़ाव महसूस करना शुरू करते हैं। बच्चों के साथ शुरुआती गतिविधि के लिए आप कुछ चित्रों का भी इस्तेमाल कर सकते हैं और बच्चों से पूछ सकते हैं। बच्चों को देखने, सुनने और जवाब देने का मौका उपलब्ध करवाकर हम उनको भाषा के इस्तेमाल की शुरूआती गतिविधि में शामिल कर सकते हैं। उदाहरण के लिए आप एकलव्य संस्था द्वारा प्रकाशित दूध जलेब जग्गग्गा कविताओं से दो-दो लाइन की कविताओं वाले पोस्टर का इस्तेमाल कर सकते हैं जैसे
इसके लिए बच्चों के आसपास व परिवेश वाले चित्रों का इस्तेमाल किया जा सकता है। जैसे भैंस के चित्र को देखकर सिरोही जिले में कोई बच्चा कह सकता है कि यह तो डोबा है, वहीं उत्तर प्रदेश का कोई बच्चा उसे हाथी कह सकता है। उल्लू के चित्र को देखकर राजस्थान के चुरू जिले में बच्चे उसे कोचरी कह सकते हैं, जबकि उसी चित्र पर उत्तर प्रदेश के किसी बच्चे का जवाब उल्लू या इससे मिलता जुसता कोई अन्य स्थानीय भाषा का शब्द हो सकता है। बिग बुक के चित्रों को दिखाकर बच्चों से बात हो सकती है कि चित्र में क्या क्या दिख रहा है? यह कहाँ का चित्र हो सकता है इत्यादि। एक बार कक्षा में बच्चों के साथ बुद्धू बंदर और चतुर चूहा पर चित्रों पर बात हो रही थीं, एक बच्चे ने चित्र को देखते ही कहा कि बंदर दवाई सोंट रहा है। यानि बंदर खेत में दवाई का छिड़काव कर रहा है।
भाषा शिक्षण सिरीज़ की तीसरी कड़ी में हम बात करेंगे मौखिक भाषा विकास में लोककथाओं और कहानियों की क्या भूमिका है और भाषा कालाश में इनका समायोजन कैसे कर सकते हैं? भाषा शिक्षण की यह दूसरी सिरीज़ आपको कैसी लगी टिप्पणी करके जरूर बताएं।
(एजुकेशन मिरर के लिए अपने लेख भेजने व सुझाव देने के लिए लिखें।
(Whatsapp: 9076578600 Email: educationmirrors@gmail.com)
(लेखक परिचयः वृजेश सिंह पिछले 8-9 सालों से शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रहे हैं। आपके पास गाँधी फेलोशिप, बीबीसी हिन्दी, रूम टू रीड इंडिया, स्टर एजुकेशन और टाटा ट्रस्ट्स जैसी संस्थाओं में खबरों की दुनिया के साथ-साथ लिट्रेसी और लाइब्रेरी, शिक्षक अभिप्रेरण (टीचर मोटीवेशन) और लाइब्रेरी कार्यक्रम को लीड करने और उसके क्रियान्वयन को उत्तर प्रदेश में ज़मीनी स्तर पर मजबूत करने का अनुभव है।)
सीखने -सीखाने की प्रक्रिया मे कक्षा -कक्ष का प्रिंट समृद्ध वातावरण बच्चों मे रचनात्मकता को बढ़ाने मे सक्रिय भूमिका निभाता है।बच्चों से बातचीत ,दिनचर्या निर्माण जैसे बिंदु बहुत महत्वपूर्ण हैं ।कक्षा प्रक्रियाओं के लिए बहुत लाभकारी लेख है।
प्रिट भरा वातावरण यह लेख रचनात्मक क्रियाक्रलाप के लिये मददगार साबित होगा.विद्यालय की कक्षागत प्रक्रिया का संचालन आनन्ददायी बनेगा. बच्चों में शब्द संग्रह की प्रवृति बढे़गी.सीखने में सकारात्मक प्रतिस्पर्धा भी बढ़ेगी. नये शब्दों से परिचय होगा.
विद्यालय का वाह्य एवं आंतरिक वातावरण प्रिंट स्टीकरों से भरा होना चाहिये. इस विषय पर लेख में चर्चा काफी ज्ञानवर्धक है. ऐसे वातावरण से कक्षागत संचालन प्रर्किया सहज और सरल हो जाती है. सीखने का आनन्ददायी माहौल तैयार होता है. सीखने के प्रतिफल में समृद्धता उत्पन्न होती है.बच्चों के पास शब्द -संग्रह पवृति मजबूत होती है.
प्रिंट समृद्ध वातावरण बनाने में भी कुछ खास बातें ध्यान दी जानी चाहिए।
यह सिर्फ दीवार भरना या आम केला सेब, या शेर बाघ मोर, झंडे के चित्र बना देना नहीं, अपितु कुछ ऐसा है कि जो पठन की प्रक्रिया में सहायक हो। जैसे कोई पोस्टर जिसमे बड़े चित्र के साथ कुछ शब्द या कोई दो पंक्तियां लिखी हों, जो बच्चों में पढ़ने की रुचि को पैदा भी करे और बढ़ाए भी।
बनाए गए पोस्टर समय समय पर बदलते रहना चाहिए।
यह लेख वाकई काम का है और अधिकाधिक अध्यापकों को इन विषयों पर बार बार विचार करना चाहिए, क्योंकि विद्यालयों में एक तरफ़ा लेखन ही पढ़ाने का मुख्य उपकरण बन जाता है, और मौखिक भाषा विकास, ध्वनि चेतना और पठन पर पर्याप्त अवसर न बना पाने के कारण हमारा शिक्षण संघर्षपूर्ण, परिणाम शून्य और अप्रभावी रह जाता है।