भाषा सिखाने का उद्देश्य केवल ‘अच्छे डिकोडर’ बनाना भर नहीं है
भारत में भाषा शिक्षण की ज़मीनी स्थिति में काफी विभिन्नताएं व्याप्त हैं। पहली भाषा के शिक्षण के लेकर भी हर जगह की स्थिति और परिस्थिति काफी अलग-अलग है। उदाहरण के तौर पर हिन्दी भाषी राज्यों में भी भाषा सीखने में बच्चों को परेशानी होती है क्योंकि बच्चों के रोज़मर्रा की भाषा स्कूल की मानक हिन्दी से अलग होती है। लेकिन इन स्थानीय भाषाओं को भी हिन्दी मानने की पुरानी परंपरा को जारी रखने के कारण हम उन क्षेत्रों की पहचान करने से चूक जाते हैं जो कक्षा-कक्ष में बच्चों के लिए भाषा को परिवेशीय अनुभवों की जीवंतता के साथ शामिल होने का शानदार अवसर दे सकती हैं। समसामयिक संदर्भों में इस तरफ ध्यान देने वाले प्रयास ध्यान खींचते हैं, लेकिन इन विचारों की चर्चा के बावजूद कक्षा-कक्ष में इस्तेमाल का सामान्य होना भी एक विशिष्ट बात है। इसे एक उपलब्धि के बतौर रेखांकित करने वाले हालात बने हुए हैं।
लर्निंगः लॉस या गेन पर हो रही है चर्चा
कोविड-19 के दौर में लर्निंग लॉस हुआ है। इसको लेकर दो तरह के विचार हैं। पहला विचार की कक्षा-कक्ष में शिक्षण का अवसर न मिलने से बच्चों को लर्निंग लॉस हुआ है और उसकी भरपाई के लिए विविध उपाय किये जाने चाहिए। जैसे कि पूरक सामग्री, उपचारात्मक शिक्षण और पूर्व की कक्षा में एक साल पढ़ने का अवसर देने जैसे उपाय। वहीं दूसरा विचार यह है कि कोविड-19 के कारण बच्चों ने स्कलों में औपचारिक रूप से सीखने का अवसर तो खोया है लेकिन उन्होंने अपने परिवेश और समाज में जो सीखा है उसे ध्यान में रखते हुए ‘लर्निंग लॉस’ वाली बात सही नहीं लगती है।
लर्निंग लॉस नहीं होने वाले विचार से भी सहमति व्यक्त की जा सकती है बशर्ते बच्चों के जीवंत अनुभवों को शिक्षकों के सहयोग से और अन्य माध्यमों से सीखने व अपने विचारों को समसामयिक परिप्रेक्ष्य में परखने व उसे बेहतर बनाने का अवसर मिला हो। यह एक वास्तविक सच्चाई है कि हम एक समाज व लर्निंग कम्युनिटी के रूप में बच्चों के अनुभवों को जीवंत माहौल देकर सीखने की बुनियाद बनाने के लिए आंशिक प्रयास करने वाली स्थिति तक ही पहुंचे हैं। पुरी तरह से ऐसा करने के लिए जिस तरह की तैयारी की जरूरत शिक्षकों के साथ-साथ माता-पिता को भी है वह अभी भी भविष्य की बात लगती है।
ऑनलाइन पढ़ाईः माध्यम बनाम तरीका
कोविड-19 के कारण उपजे हालात में पढ़ाने के माध्यम सापेक्ष तरीकों में होने वाले बदलाव की गति अपेक्षाकृत मंद हुई है। बड़ों के लिए सीखने के अवसर बच्चों की तुलना में ज्यादा सुगम रहे हैं। बच्चों के लिए संसाधनों के अभाव से लेकर अन्य तरह की परेशानियां थीं इसलिए उनके लिए ऑनलाइन या ह्वाट्सऐप के माध्यम से सीखना संभव नहीं हुआ। शिक्षकों की लर्निंग पर कोविड-19 के दौरान बच्चों से भी ज्यादा फोकस रहा है अगर ऐसा कहा जाये तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। हालांकि सैद्धांतिक रूप से यही कहा जायेगा कि बच्चों का अधिगम बेहतर हो इसलिए शिक्षकों के प्रशिक्षण व तैयारी पर इतना ज्यादा जोर या ध्यान दिया गया। वर्तमान में जहाँ पर स्कूल खुल गये हैं वहाँ ऑनलाइन ट्रेनिंग की बजाय आमने-सामने के प्रशिक्षण और बच्चों को भी कक्षा-कक्ष में पढ़ने और सीखने का अवसर देना चाहिए ताकि उनके सीखने का सिलसिला सतत जारी रह सके।
भाषा शिक्षण का जीवन से रिश्ता कैसे जोड़ें?
भाषा शिक्षण के अनुभवों को जीवंत बनाने के लिए परिवेशीय अनुभवों को अपने शब्दों में बिना किसी रोक-टोक के व्यक्त करने का अवसर बच्चों को देना चाहिए। उनके अनुभवों को कक्षा में अन्य बच्चों के लिए सुनने व उस पर अपने विचार प्रस्तुत करने का अवसर देना चाहिए ताकि बच्चे सुनकर समझने और अपने विचारों को सहज भाषा की दिशा में आगे बढ़ सकें। हमें भाषा शिक्षण की यात्रा में ध्यान रखना होगा कि भाषा का सीधा रिश्ता ज़िंदगी से है। जीवन के अनुभवों पर संवाद, जीवन के अनुभवों को प्रस्तुत करने का अवसर, भविष्य की योजना व तैयारी तथा अपने काम के संचालन में सक्रिय उपयोग के बिना भाषा सीखने के सारे प्रयास ‘अच्छे डिकोडर’ बनाने की कवायद बनकर रह जाएंगे। इसलिए प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार के शब्दों में कह सकते हैं कि हमें पढ़ाई के साथ-साथ पढ़ने पर भी ध्यान देना होगा। ताकि बच्चों को विविध तरह के साहित्य से परिचित होने और उनके इस्तेमाल से भाषा के क्षेत्र में खुद से अर्थ का निर्माण करने की क्षमता हासिल करने का अवसर मिल सके।
भाषा शिक्षण में बदलाव का रास्ता क्या हो?
अगर हम बच्चों का भाषा से एक स्वस्थ रिश्ता विकसित कर सके, जहाँ मौखिक भाषा का महत्व लिखित से कम नहीं हो। किताबों से अच्छा जुड़ाव भाषा शिक्षण के कालांश का एक अनिवार्य हिस्सा हो। जहाँ बच्चों की आवाज़ और उनके विचारों को कक्षा-कक्ष में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किया जायेगा और भाषा के कौशलों को सिर्फ डिकोडिंग की तकनीक तक सीमित नहीं रखा जायेगा वहाँ बच्चे निश्चित रूप से डिकोडिंग से समझने की दिशा में बढ़ सकेंगे। समझने की शुरूआत प्रिंट यानि चित्रों को देखने, भाषा को सुनकर समझने, समझकर जवाब देने और सवाल पूछने और लिखी हुई सामग्री को पढ़कर चित्रों के माध्यम से समझने की छोटी-छोटी कोशिशों से होती है। ऐसे प्रयास समय, धैर्य, तैयारी और प्रयासों में निरंतरता माँगते हैं। अगर हम ऐसा कर सके तो हमारे बच्चे केवल अच्छे डिकोडर नहीं, अच्छी समझ के साथ पढ़ने वाले पाठक बन सकेंगे।
में कप्तान गुर्जर बहुत बहुत आभार सर् आपका जो कि समय समय पर शिक्षा से जुड़ी रोचक कहानियां और शिक्षा को ओर कैसे बेहतर बनाया जाये इसको लेकर आप सोशल मीडिया पर काफ़ी रुचि दिखाते है।में ऊपर दिए गए लेख के बारे में अपने विचार देना चाहूंगा कि kovid19 के दौर में बच्चों की शिक्षा का लॉस तो हुआ ही है जो आपने कहा कि प्रारम्भिक कक्षाओं में बच्चों को अब वो माहौल मिलना चाहिए जो अभी तक उन्हें नही मिला अभी हमे बच्चों के साथ सामाजिक भावनात्मक जुड़ाव वाली गतिविधियों को करना चाहिए ताकि बच्चों में जो डर का माहौल है उनको दूर किया जा सके और बच्चे शिक्षक के साथ अपनी बातें व अनुभव बता सके । शुरुआती दिनों में सामाजिक भावनाओं वाली गतिविधियों को प्राथमिकता देनी चाहिए क्योंकि हम उनके अनुभवों व रुचि से ही उनकी शिक्षा में गुणवत्ता ला सकेंगे और हमारे पाठ्यक्रम के साथ साथ इन गतिविधियों को भी 15 से 20 मिनट दे तो निश्चित ही शिक्षा में सुधार होगा धन्यवाद,।