Trending

भारत में पैरेंटिंग के उभरते सवाल और समाधान: “किसी बच्चे को पालने में पूरा गाँव लगता है”

एक अफ्रीकी कहावत है, “किसी बच्चे को पालने में पूरा गाँव लगता है।” यहाँ गाँव का आशय एक समुदाय से है जहाँ पर बच्चे को एक मानसिक व शारीरिक रूप से सुरक्षित और देखभाल वाला वातावरण मिलता है। यह कहावत अमेरिका समेत दुनिया के विभिन्न देशों में लोकप्रिय है और भारत की नीतिगत दस्तावेज़ों में भी इस कहावत का उल्लेख प्रमुखता से किया गया है। ख़ासतौर पर निपुण भारत मिशन के संदर्भ में कि बग़ैर सामुदायिक सहभागिता के हम बुनियादी साक्षरता एवं संख्या ज्ञान के साथ-साथ बच्चे के बेहतर स्वास्थ्य व पोषण के महत्वाकांक्षी लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकते हैं। भारत की संस्कृति में संयुक्त परिवार बहुत से बच्चों के जीवन के अनुभवों का अभिन्न हिस्सा रहे हैं। ऐसे परिवेश में बच्चे कहीं भी मौजूद हों, उनके लिए एक सहयोग व संबल सदैव उपलब्ध होता था और आज भी उपलब्ध है। जाहिर सी बात है कि पिछले कुछ दशकों में गाँव से शहरों की तरफ पलायन पढ़ा है। इसका मूल कारण बेहतर शिक्षा, बेहतर जीवन स्तर और बेहतर रोजगार के अवसरों की तलाश के साथ-साथ बच्चों के लिए एक बेहतर भविष्य की राह प्रशस्त करना भी रहा है।

भारत की पारिवारिक संरचना में बदलाव  

पिछले कुछ दशकों में भारत की पारिवारिक संरचना में बड़ा बदलाव (कुछ लोग इसे बिखराव भी कहते हैं) आया है। इस बदलाव या बिखराव और टूटन का सिलसिला अभी भी लगातार जारी है। शहरों में बहुत से बच्चों की परवरिश एकल परिवार में हो रही है। बहुत से बच्चों के माता-पिता में से कोई एक वर्किंग हैं या कई बार दोनों वर्किंग होते हैं। ऐसी स्थिति में बच्चों के लिए माता-पिता की तरफ से मिलने वाले व्यक्तिगत समय में वाकई कमी आती है, ऐसी स्थिति में अगर बच्चों के दादा-दादी या परिवार का अन्य कोई सदस्य उनके साथ रहता है तो ऐसे में उनके लिए समायोजन थोड़ा आसान हो जाता है।

एकल परिवार 21वीं सदी की एक वास्तविकता है जिसे हमें स्वीकार करना होगा और भारत जैसे संयुक्त परिवार वाली परंपरा के लिए यह आदर्श स्थिति के विपरीत वाली स्थिति है, लेकिन संयुक्त परिवार की भी अपनी समस्याएं और चुनौतियां हैं जिनका समाधान एकल परिवार वाली स्थिति में मिलता है। ऐसी स्थिति में एकल परिवार जिस स्थिति का सामना कर रहे हैं पिछले दो-तीन दशकों में यह स्थिति उतनी सामान्य नहीं थी। यानि यह एक ऐसी स्थिति है जिसके कारण बहुत से नये सवालों का सामना आज की वर्किंग पीढ़ी कर रही है।

इसका समाधान भी वह अपने स्तर पर खोजने की कोशिश कर रही है। ऐसी स्थिति में बहुत से परिवार बच्चों को गोद लेने का फ़ैसला कर रहे हैं और इस विचार को भी बड़े स्तर पर लोगों का सहयोग और समर्थन मिल रहा है। वहीं ऐसी स्थितियां भी हैं जहाँ पर बच्चों के बिना रहने वाली स्थिति का चुनाव एकल परिवार कर रहे हैं ताकि अपनी शैक्षिक प्रतिबद्धता और सामाजिक प्रतिबद्धता को पूरा कर सकें। सामाजिक रूप से यह चुनाव उन्हें लोगों के रोजमर्रा वाले सवालों के निशाने पर ले आते हैं जो वर्षों से पूछे जाते रहे हैं कि बच्चे कब हो रहे हैं? कबतक ऐसे रहेंगे? ऐसा कैसे चलेगा और बहुत से अन्य सवाल भी।

बच्चों का विकास व्यक्तिगत सवाल नहीं, ‘एक साझी जिम्मेदारी’ है

मूल बात यह है कि 21वीं सदी में एकल परिवारों की बढ़ती हुई संख्या, शहरीकरण के कारण गाँव से शहरों की तरफ बड़ी संख्या में पलायन, रोज़गार के अवसरों का केंद्रीकरण, जॉब का डिमांडिंग होना और प्रतिस्पर्धा में अपनी जगह बनाने की कोशिश एक आम भारतीय की कहानी बन गई है। हालांकि इन मुद्दों पर व्यक्तिगत समस्या या चुनौती के रूप में चर्चा जरूरत होती है लेकिन इसे बड़े व्यस्थागत सवाल के रूप में नहीं देखा जाता है। कोविड-19 के दौर में पैदा होने वाली पीढ़ी जो ज्यादातर अपने घरों में रही, उन बच्चों के समाज के अन्य लोगों के साथ घुलने-मिलने और संवाद का सहज स्वाभाविक अवसर नहीं मिला। हाँ, परिवार के साथ रहने वाले बच्चों को स्वभाविक रूप से वह माहौल मिल भी पाया जो आम दिनों में शायद संभव नहीं होता। तो इसके नुकसान व फायदे दोनो रहे हैं। लेकिन ‘वर्क फ्रॉम होम जैसी’ परिस्थिति के कारण माता-पिता घर पर होने के बाद भी उनके लिए उतने सुलभ नहीं थे।

उपरोक्त स्थितियों के कारण बच्चों का भाषायी विकास, संवाद के कौशल और सामाजिक कौशलों का विकास प्रभावित हुआ। वर्तमान में बहुत से माता-पिता यह सवाल पूछ रहे हैं कि ऐसी स्थिति में क्या करें? इस सवाल का एक जवाब यही है कि आप अकेले ही इस चुनौती का समाधान नहीं खोज सकते , क्योंकि किसी बच्चे की परवरिश, उसके बेहतर शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य व अन्य क्षमताओं के विकास में पूरे समुदाय व व्यवस्था का असर होता है। इसलिए आपको व्यक्तिगत स्तर के प्रयासों के साथ-साथ बच्चों के लिए व्यवस्थागत उपाय भी खोजने होंगे जहाँ बच्चों को अन्य बच्चों से घुलने-मिलने, बातचीत करने, विभिन्न खेल गतिविधियों में शामिल होने का अवसर एक सुरक्षित माहौल में मिल सके। इसकी एक उपलब्धता सार्वजनिक पार्क या ऐसी जगहों के रूप में हो सकती है जहाँ पर बच्चे किसी के साथ थोड़ा समय बिताने के लिए जा सकें जहाँ उनको अन्य बच्चों के साथ घुलने-मिलने के अवसर मिलें।

इसके साथ ही साथ प्ले स्कूल (कम से कम तीन या साढ़े तीन वर्ष के बाद) जैसे विचार या आँगनबाड़ी केंद्रों पर भी कुछ घंटों के लिए बच्चों को भेजना भी अच्छा विकल्प हो सकता है क्योंकि बच्चों के एक समूह में सीखने, खेलने व सामाजिक कौशलों में निपुणता हासिल करने के अवसर निजी स्पेश से ज्यादा बेहतर स्थिति में घटित होते हैं। हाँ ऐसी स्थिति में, पाठ्यक्रम के दबाव के कारण कई बार बच्चों को ही न सीखने के लिए जिम्मेदार बताने वाली स्थितियां भी प्ले स्कूलों या ऐसी जगहों पर नजर आती हैं। इस स्थिति को यह सोचकर नजरअंदाज करें कि हर बच्चे के सीखने की स्थिति, गति व तरीका अलग-अलग होता है। इस विविधता को एक तथ्य के रूप में स्वीकार करें और बच्चे के ऊपर अनावश्यक दबाव न बनाएं।

‘बच्चों की एक अच्छी रूटीन बनाने से करें शुरूआत’

आखिर में उन तथ्यों की बात करते हैं जो एक अभिभावक, माता-पिता या बच्चे की देखरेख करने वाले वयस्क व्यक्ति के रूप में आप कर सकते हैं। सबसे पहली बात कि हर किसी की परिस्थिति व सामर्थ्य अलग-अलग हो सकती है, इसलिए पैरेंटिंग के अनुभव भी अलग-अलग होंगे। सबसे पहली बात है कि इसके लिए आपके पास एक योजना होनी चाहिए ताकि बच्चों की एक अच्छी रूटीन सेट कर सकें।

इस रूटीम में निर्धारित समय का होना बच्चे को समायोजन में काफी हद तक मदद करता है। एक बात ध्यान रखें कि बच्चों की ऐसी रूटीन या दिनचर्या बनाएं जिसमें शारीरिक विकास वाली गतिविधियों (जैसे खेल), मानसिक विकास वाली गतिविधियों (जैसे कहानी सुनने व बच्चों की जिज्ञासा पर बातचीत करने) और घर के भीतर खेलने के अवसरों (जैसे ब्लाक्स या किताबें व अन्य खेल सामग्री) का समावेश हो। डिजिटल डिवाइस की उपलब्धता के कारण बच्चों का स्क्रीन टाइम ख़ासतौर पर एकल परिवार में काफी बढ़ जाता है, जहाँ बच्चे अपने माता-पिता के साथ रहते हैं, इसमें संतुलन के लिए जरूरी है कि बच्चों का ध्यान ऐसी सामग्री की तरफ ले जाएं जो बच्चे को भाषा सीखने व गतिविधियों का आनंद लेने के लिए प्रेरित करे।

यहाँ ध्यान रखने वाली बात है कि बच्चों की रुचि और पसंद बहुत तेज़ी से बदलते हैं ऐसी स्थिति में उनको कुछ नया चाहिए होता है। ऐसे खेल भी मौजूद हैं जिसमें बच्चों को चित्र में रंग भरने, तस्वीर के अलग-अलग हिस्सों को जोड़ने या पैटर्न पहचानने की गतिविधियों में शामिल होना अच्छा लगता है। यहाँ कुछ और चीज़ें भी हैं जो आपको मदद कर सकती हैं जैसे कलर वाली मिट्टी से खेलने में बच्चों को बहुत मजा आता है, आटे की लोई भी इसका एक अच्छा विकल्प है जो बच्चों को प्रत्यक्ष रूप से भागीदारी करने का अवसर देता है। इसके साथ ही बेड टाइम स्टोरीज़ या दिन के अनुभवों को कहानी के रूप में पिरोकर सुनाना भी बच्चों के लिए एक अच्छा अनुभव हो सकता है तो इसका उपयोग जरूर करें। बच्चों के अनुभवों पर भी बातचीत करें कि जैसे उनका दिन कैसा रहा, उन्होंने क्या-क्या किया, कोई ऐसी बात तो नहीं है जिसके कारण उनको परेशानी हुई। इससे बच्चे को अपनी बात कहने का अवसर मिलेगा और अपने अनुभवों को शब्द देना सीख पाएंगे।

(आप एजुकेशन मिरर को फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो कर सकते हैं। अपने आलेख और सुझाव भेजने के लिए ई-मेल करें educationmirrors@gmail.com पर या ह्वाट्सऐप करें 9076578600 )

इस लेख के बारे में अपनी टिप्पणी लिखें

%d bloggers like this: