सुर्खियों में शिक्षाः कैसा रहा साल 2015?
‘सबके लिए शिक्षा’ (एज्युकेशन फॉर ऑल) की मुहिम समूचे विश्व में जारी है। इसके लिए वैश्विक स्तर पर साझीदारी बनाने और लोगों को जोड़ने की कोशिशें शृंखलाबद्ध तरीके से आगे बढ़ रही हैं। सबसे पहले शुरुआत करते हैं शिक्षा क्षेत्र की सबसे चर्चित ख़बर से।
- इस साल विश्व की सबसे चर्चित न्यूज़ स्टोरी में शिक्षा से जुड़ी ख़बरों की एक सीरीज़ को भी शामिल किया गया। इसका शीर्षक है ‘फेल्योर फ़ैक्ट्री’। इसमें किसी स्कूल के बदहाली में जाने की पूरी परिस्थिति की विस्तृत पड़ताल की गई है।
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‘असफलता की फैक्ट्री’
सालों की अनदेखी से कैसे स्कूल बदहाली वाली स्थिति में चले जाते हैं। अमरीका के फ्लोरिडा स्टेट के पांच स्कूलों की कहानी कहती है ‘फेल्योर फ़ैक्ट्री की पूरी रिपोर्ट्’ यह कहानी भारतीय स्कूलों से मिलती जुलती है। एजुकेशन रिपोर्टिंग की एक मिशाल है यह स्टोरी। इसकी एक कहानी है, “आज मेरा शिक्षक कौन है?” बच्चे ऐसी अनिश्चितता के माहौल में रहे हैं है कि उनको आज कौन पढ़ाएगा, यह तक पता नहीं है। इसके साथ-साथ रंगभेद की भयानकता को भी सामने लाती है ये कहानियां। रंगभेद के ऐसे उदाहरण की शिक्षा जगत में मौजूदगी क्या दर्शाती है? समाज की मानसिकता बदलने में वक़्त लगता है, या फिर वह ज्यों की त्यों बनी रहती है, बदलते दौर के बावजूद।
(कुछ जानकारी फ्लोरिडा के बारे में- यह अमरीका (यूएस) के दक्षिणपूर्वी क्षेत्र में स्थित एक राज्य है, जिसके उत्तर-पश्चिमी सीमा पर अलाबामा और उत्तरी सीमा पर जॉर्जिया स्थित है। इस राज्य की राजधानी और मियामी सबसे बड़ा महानगरीय क्षेत्र है। फ्लोरिडा के निवासियों को सटीक तौर पर “फ्लोरिडियन्स” के रूप में जाना जाता है। साल 2008 की जनगणना के मुताबिक यह राज्य अमरीका के चौथे सबसे बड़े राज्यों में शुमार होता था।) साभारः विकीपीडिया
इलाहाबाद हाई कोर्ट का फैसला
2. भारत में प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में चर्चाओं का दौर शुरू करने वाला रहा 2015। इलाहाबाद हाई कोर्ट के एक फैसले ने सरकारी नौकरी पेशा लोगों और नौकरशाहों को अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने का आदेश दिया। ऐसा न करने पर जुर्माने का प्रावधान किया। प्राइमरी स्कूलों की स्थिति को सुधारने की दिशा में इस फैसले को मील का पत्थर माना जा रहा है। अगले सत्र से इसका क्रियान्वयन होना है। इस नज़रिये से साल 2016 भी काफी ख़ास रहेगा।
इस फ़ैसले पर शिक्षाविद कृष्ण कुमार ने बीबीसी हिंदी पर लिखे अपने एक लेख में कहा, “इलाहाबाद हाई कोर्ट ने उत्तर प्रदेश में सभी जनप्रतिनिधियों, नौकरशाहों और सरकारी कर्मचारियों के बच्चों को सरकारी प्राइमरी स्कूल में पढ़ने को अनिवार्य बनाने का आदेश दिया है। यह सपना सुंदर और सुखद है मगर जिस नींद में शिक्षा व्यवस्था सोई हुई है, वह ज़्यादा दुखद है।”
एमडीएम की जगह मिलेंगे पैसे?
3. इसके साथ ही सरकारी स्कूलों में परोसे जाने वाले मिड डे मील की जगह पैसा देने के बारे में केंद्र सरकार द्वारा विचार करने की ख़बर भी आई। मगर इस पर बहुत ज्यादा विस्तार से चर्चा नहीं हुई। भारत के 11.56 लाख सरकारी स्कूलों में तकरीबन 10 करोड़ 22 लाख बच्चों को मिड डे मील स्कीम के तहत स्कूल में पका हुआ गरम खाना दिया जा रहा है।
इसके लिए स्कूल में ही किचन शेड बनाने के लिए सरकारी की तरफ से पैसा दिया जा रहा है। कुक और हेल्पर को 1000 रुपए कुकिंग के लिए दिये जाते हैं। कई स्कूलों में बहुत दिनों तक खाना इसलिए नहीं बन पाता क्योंकि खाना बनाने वाले लोग कहते हैं कि उनको कम पैसे दिये जा रहे हैं।
चर्चा में क्यों है एमडीएम?
हाल ही में कुछ राज्यों से दलित और विधवा महिलाओं के खाना बनाने पर स्कूल में बच्चों के न आने। या फिर स्कूल बंद कराने जैसी घटनाएं सामने आईं हैं। मगर इन घटनाओं के खिलाफ जो सकारात्मक प्रतिक्रिया हुई है वह ग़ौर करने लायक है।
बिहार के गोपालगंज जिले में एक विधवा को स्कूल में मिड डे मील बनाने से रोकने पर खुद डीएम राहुल कुमार स्कूल में पहुंचे और विधवा महिला के हाथ का बना खाना खाकर लोगों की सोच में बदलाव लाने का प्रयास किया। यह योजना स्कूल में समानता का संदेश भी देती है। मगर इसकी व्यावहारिक दिक्कतें भी जिसका समाधान किया जाना चाहिए।
अगली पोस्ट में होगी अन्य सुर्खियों पर नजर जो साल 2015 में चर्चा में रहीं।
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