शिक्षा हमें मन को देखना सिखाए -जे. कृष्णमूर्ति
प्रसिद्ध चिंतक जे. कृष्णमूर्ति के शब्दों में, “शिक्षा का सबसे बड़ा कार्य एक ऐसे समग्र व्यक्ति का विकास है जो जीवन की समग्रता को पहचान सके। आदर्शवादी और विशेषज्ञ दोनों ही समग्र से नहीं खण्ड से जुड़े हुए होते हैं। जब तक हम किसी एक ही प्रकार की कार्यप्रणाली का आग्रह नहीं छोड़ते तब तक समग्रता का बोध सम्भव नहीं है।”
कृष्णमूर्ति शिक्षा का प्रथम कार्य यह मानते हैं कि वह प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मानसिक प्रक्रिया को समझने में मदद करे। कैसे उसके विचारों, प्रवृत्तियों और आचरण पर पारिवारिक या सामाजिक-साम्प्रदायिका पूर्वाग्रहों का प्रभाव पड़ता है। और ये बातें उसकी संवेदना, विचार और आचरण को किस प्रकार प्रभावित करती हैं। अर्थात अपने मन की बनावट और उसकी प्रक्रिया की सम्यक जानकारी उसे होनी चाहिए और यह तभी सम्भव है जब शिक्षा हमें मन को देखना सिखाए।
सही रिश्तों की बुनियाद है शिक्षा
पर आज दूर-दूर तक शिक्षा का यह उद्देश्य नहीं दिखता। बल्कि भरसक वह हमें अपने से इतना बाहर ले जाती है कि अपने में झाँकने की प्रवृत्ति ही नहीं बचती। सामाजिक वातावरण भी इसमें शिक्षा की मदद ही करता है। बल्कि शायद इसी के कारण शिक्षा ने भी आत्मान्वेषण को अपने कार्यक्षेत्र से निकाल बाहर किया है।
कृष्णमूर्ति के शब्दों में, “शिक्षा का उद्देश्य है सही रिश्तों की स्थापना, केवल दो व्यक्तियों के बीच ही नहीं बल्कि व्यक्ति और समाज के बीच में भी, और इसीलिए आवश्यक है कि शिक्षा सबसे पहले अपनी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को समझने में व्यक्ति की सहायक हो।”
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