टीचर एजुकेटरः ‘अपनी मेहनत का ऐसा हाल देखकर दुःख होता है’
सरकारी स्कूलों के साथ काम करने वाली एक टीचर एजुकेटर कहती हैं, “बड़ी मेहनत से मैंने स्कूलों में लायब्रेरी सेट-अप करवाई थी। वहां किताबों का इस्तेमाल होता था। बच्चों को किताबें मिलती थीं। लेकिन अब किताबें तालों में बंद हो गई हैं। दुःख होता है अपनी मेहनत का ऐसा हाल देखकर।”
उन्होंने आगे कहा कि शिक्षक किसी दबाव में तो कोई काम कर लेते हैं। खुद से वे ऐसी चीज़ें क्यों नहीं करना चाहते। वे स्कूल में बच्चों से मारवाड़ी में बात करते हैं, अगर उनको टोको तो कहते हैं कि बच्चों को इनकी भाषा में ही समझाना पड़ता है।
एक बहुभाषी कक्षा के नजरिये से तो यह बात अच्छी लगती है। मगर बच्चों के नज़रिये से देखें तो वे अर्थ के लिए शिक्षक के ऊपर पूरी तरह से निर्भर हो जाते हैं। यह एक आत्मनिर्भर पाठक बनने में और चीज़ों को खुद पढ़कर समझने की दिशा में आगे बढ़ने से बच्चों को रोकता है।
किताब की भाषा और क्लास की भाषा
किताब की भाषा और क्लास की भाषा में एक तालमेल होना चाहिए। इससे चीज़ों को समझने और अवधारणा बनाने में मदद मिलती है। अगर बच्चे कोई बात नहीं समझ पा रहे हैं तो जरूर उनकी स्थानीय भाषा में उसे बताया जाना चाहिए। मगर हिंदी का मारवाड़ी भाषा में अनुवाद करने की कोशिश बच्चों की आपके ऊपर निर्भरता बढ़ा देगी। जबकि होना तो यह चाहिए कि बच्चा खुद किताब पढ़कर चीज़ों को समझने की क्षमता विकसित कर सके। आपकी भूमिका उसमें सहयोग करने की होनी चाहिए।
हिंदी भाषा के उपयोग के बारे में अपना अनुभव बताते हुए वह कहती हैं, ” कुछ स्कूलों में मैंने बच्चों से हिंदी में बात करने की कोशिश की थी, वे बच्चे आज हिंदी में आसानी से बात करते हैं। उनको अपनी बात रखने में कोई परेशानी नहीं होती है। शिक्षक भी इस बात को मानते हैं कि ऐसे प्रयास से मदद मिली है।”
आख़िर में एक दिन में दो स्कूल विजिट करने वाले मुद्दे पर बात हो रही थी कि ऐसा करने के कारण किसी स्कूल को पर्याप्त समय नहीं दे पाते। बच्चों के साथ एक रिश्ता नहीं बन पाता। और काम की गुणवत्ता पर भी असर पड़ता है। लेकिन क्या किया जाय? संस्थाएं पता नहीं ये ‘पॉलिसी’ क्यों बनाती हैं? जिनका जमीनी स्थितियों से कोई सरोकार नहीं होता है। हम लोगों ने बार-बार अपनी बात रखी, मगर पॉलिसी कहां बदलती है। शायद ऊपर के लोगों को इस बारे में पता नहीं होगा कि हमको कितनी परेशानी होती है?
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