बच्चों से बातचीत क्यों करें?
बच्चों के पास ढेर सारे सवाल होते हैं। उनको जैसे-जैसे सवालों के जवाब मिलते जाते हैं, वे एक के बाद दूसरे, फिर तीसरे, फिर चौथे सवाल पूछते जाते हैं। हम सवालों का जवाब देते हुए थक सकते हैं मगर उनके सवाल खत्म होने का नाम नहीं लेते। बच्चों की यही जिज्ञासु प्रवृत्ति उनको अपने आसपास के माहौल और चीज़ों को समझने में मदद करती है। बच्चे बहुत सारी चीजों को देखते, सुनते हैं। मगर वे उनके संज्ञान में नहीं आ पाती क्योंकि उन मुद्दों के ऊपर बच्चों से बातचीत नहीं होती।
अगर बच्चों से बातचीत न हो। उनसे पलटकर सवाल न पूछे जाएं तो बच्चे अपने आसपास दिखने वाली चीज़ों को आत्मसात तो करते हैं, लेकिन वे उनके संज्ञान में नहीं आ पाती हैं। उदाहरण के तौर पर पहली क्लास के बच्चों से बातचीत हो रही थी। भैंस का रंग कैसा होता है? जवाब मिला, काला। भैंस के दूध का रंग कैसा होता है सफेद। बकरी का रंग कैसा होता है? काला, सफेद, लाल, पीला, भूरा इत्यादि। उसका दूध किसी रंग का होता है? सफेद। ऊंट का रंग कैसा होता है? जवाब मिला, भूरा। उसका दूध कैसा होता है? काला। इस बातचीत के माध्यम से बच्चे एक निष्कर्ष निकाल पा रहे थे कि जानवरों के रंग का उनके दूध से कोई कनेक्शन नहीं है। क्योंकि सफेद गाय का दूध भी सफेद होता है और काली भैंस का दूध भी सफेद होता है।
‘सोचना क्या है?’
सातवीं क्लास के बच्चे संज्ञा की परिभाषा याद कर रहे थे। मैंने उनसे कहा कि यह बताओ अगर संज्ञा नहीं होती तो क्या होता? इस सवाल का जवाब आपको पासबुक में नहीं मिलेगा। तो वे सोच रहे थे, कुछ का जवाब आया कि हम पढ़ नहीं पाते, लिख नहीं पाते, कुछ बच्चों ने कहा कि हम लिख तो सकते हैं इत्यादि। फिर एक बच्चे ने सवाल पूछा कि सोचना क्या है? मैंने सारे बच्चों से उस सवाल के लिए प्रोत्साहित करने के लिए कहा, यह क्लास के किसी बच्चे का सबसे मौलिक सवाल था।
मैंने उनसे कहा कि इंसान और जानवरों की बातचीत में क्या अंतर है? तो सारे बच्चे अपनी-अपनी दुनिया में खो गये। उनकी तरफ से जवाब आया कि उनकी अलग भाषा है। हमारी अलग भाषा है। वे अपनी भाषा में बातचीत करते हैं। हम अपनी भाषा में बातचीत करते हैं। इसके बाद बच्चों से बात हुई कि इस दौरान हम सब खुद से बातें कर रहे थे, अपने अनुभवों को खंगाल रहे थे, जवाब खोजने के लिए अपनी कल्पना का सहारा ले रहे थे। यही सोचना है।
कनेक्ट करने का जरिया है बातचीत
जब हमारे सामने कोई सवाल होता है या फिर कोई परेशानी होती है तो उसका समाधान निकालने के लिए भी सोचने की इसी प्रक्रिया का सहारा लेते हैं। फिर बात आगे बढ़ी कि जानवर संज्ञा की परिभाषा तो नहीं जानते पर क्या वे संज्ञाओं को पहचानते हैं। तो कुछ जवाब आये कि नहीं। फिर बाद में कुछ बच्चों ने कहा कि हां पहचानते हैं। जैसे बकरी कुत्ते को पहचानती है, इंसानों को पहचानती है, भेड़िये को पहचानती है, गाय और भैंस को पहचानती है। यानि किसी वस्तु के विशिष्ट नाम भले ही उनकी भाषा वाले शब्दकोश में न हों, मगर वे अपने आसपास के सजीव और निर्जीव चीज़ों को पहचानते हैं।
मगर उनका पहचानना और हमारा पहचानना अलग-अलग है। किसी किताब के साथ हमारा जो रिश्ता होता है। वह एक जानवर का तो नहीं होगा। क्योंकि उसे पढ़ना-लिखना तो नहीं आता। ऐसी ही ढेरों बातें हो रही थीं। इन सारी बातों का रिश्ता संज्ञान, ज्ञान और सोचने-विचारने से हैं। अंत में कह सकते हैं कि अर्थ निर्माण की प्रक्रिया में बातचीत बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अगर हम बच्चों के ढेर सारे सवालों के जवाब देने की कोशिश में हम बच्चों से सीधे-सीधे कनेक्ट कर पाएंगे। उनको समझ पाएंगे।”
हाँ, बच्चों के साथ होने वाली बातचीत में बच्चों की भाषा को महत्व देना एक बेहद अहम कड़ी है। इसके अभाव में होने वाले संवाद में वह जीवंतता नहीं रह जायेगी जो बच्चों के साथ होने वाले संवाद में नज़र आती है।
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