
एक सरकारी स्कूल के शौचालय का दृश्य।
सरकारी स्कूलों में शौचालय के नाम पर करोड़ों रूपए खर्च किये गये। मगर उसका हासिल क्या है? अगर इस सवाल का जवाब ज़मीनी स्तर पर खोजने के लिए निकलें तो कई तरह के जवाब मिलेंगे।
मसलन बहुत से स्कूलों में शौचालय में ताला लगा रहता है ताकि शिक्षक उसका इस्तेमाल कर सकें। बच्चों को स्कूल से बाहर या स्कूल की किसी दीवार के पीछे या पुराने खंडहर जैसे शौचालय वाली दीवार के पास पेशाब के लिए जाना होता है।
बच्चों के ‘आत्मसम्मान का सवाल’
स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को शौच लगने वाली स्थिति में घर ही जाना होता है। कभी-कभार अगर किसी बच्चे का पेट खराब हो तो स्कूल में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है कि बच्चे का आत्मसम्मान दाँव पर लग जाता है। “जबकि हमारे संविधान की एक धारा 395 कहती है कि राज्य का नीति निर्देशक सिद्धांत यह सुनिश्चित करना होगा कि बच्चे आदर और गरिमा के साथ जीवन जिएँ।” (प्रोफेसर कृष्ण कुमार ने बुनियादी शिक्षा के ऊपर दिये व्याख्यान में इसका जिक्र किया है।)
एक बार एक स्कूल में बच्चे का पेट खराब था। उसने पैंट में शौच कर दिया। वह शर्म के मारे काफी देर तक क्लास में बैठा रहा। बाकी बच्चे उसका मजाक उड़ा रहे थे। उससे बाहर जाने के लिए कह रहे थे, लेकिन वह शर्म और संकोच के कारण उठ नहीं रहा था। थोड़ी देर बाद वह उठा और स्कूल के बाहर की तरफ से भागते हुए अपने घर की तरफ गया। ऐसी स्थिति में उस बच्चे के लिए बाकी बच्चों का सामना करना कितना मुश्किल रहा होगा। इस स्थिति के बारे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
स्कूल के खाते में पैसे हैं, मगर सफाई नहीं होती
स्कूलों में पेशाब घर की स्थिति ऐसी होती है कि आप वहां खड़े भी नहीं हो सकते। साफ-सफाई की स्थिति भले ही स्कूल के बाकी हिस्से में व्यवस्थिति हो मगर यह क्षेत्र उपेक्षा का शिकार दिखाई देता है। कुछ स्कूलों में जहाँ प्रधानाध्यापक ने खुद शौचालय की सफाई का दायित्व लिया था, वहां भी पेशाबघर और शौचालय पर ताला लगा हुआ रहता है। बस एक बार उसका रंग-रोगन करके चमका दिया गया। उसके बाद से वह लोगों की प्रदर्शनी के लिए ज्यों का त्यों मौजूद है। ऐसी स्थिति का कारण फंड की कमी कतई नहीं है।
उपरोक्त स्कूल के खाते में कई हज़ार रूपए हैं, मगर इस काम के लिए एक भी पैसा खर्च नहीं किया जा रहा है। आखिर इसकी क्या वजह हो सकती है, जाहिर सी बात है कि साफ-सफाई का यह पहलू हमारी प्राथमिकता में दूर-दूर तक नहीं है। स्वच्छ भारत अभियान के तमाम दावों और नारों के बीच यह सच्चाई ज्यों की त्यों कायम है। पेशाब जाने और शौच जाने के बाद साबुन से हाथ धोने वाली बात भी ‘हाथ धुलाई सप्ताह’ के दौरान नजर आती है। कुछ स्कूल हैं जहाँ यह बात व्यवस्था के हिस्से के रूप में स्वीकार्य हो गई है, वर्ना खाने के बाद बच्चों को बर्तन धोने के लिए भी साबुन नहीं मिलता।
आखिर में
इस पोस्ट के आखिर में यही कहना है कि स्कूलों में साफ-सफाई वाली स्थिति बेहतर होनी चाहिए। स्कूल आने का मुख्य मकसद केवल पढ़ाई भर नहीं है। यहां एक बच्चा जीवन जीने का सलीका और हुनर दोनों सीखता है। इसलिए जरूरी है कि बाकी पहलुओं के साथ-साथ इस मुद्दे पर भी ध्यान दिया जाये ताकि बच्चे स्कूल में उपेक्षा के शिकार न हों। उनको भीतर ही भीतर यह न महसूस हो कि स्कूल में उनका कोई महत्व नहीं है। सारी सुविधाएं केवल बड़ों के लिए हैं। बच्चे तो बस उनका ख्याल रखने के लिए। बड़ों का सम्मान करने के लिए हैं। स्कूल बच्चों के लिए है तो ऐसे में उनको ऐसा माहौल मिलना चाहिए ताकि वे स्कूल में अपनापन महसूस कर सकें।
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आपकी बात बिल्कुल सही है। स्कूल में बुनियादी सुविधाओं के लिए पर्याप्त बजट का प्रावधान है। उसका इस्तेमाल अच्छे से कैसे हो पाए, यह सुनिश्चित करने की जरूरत है। सफ़ाई की कोई ग्रांट नहीं है तो बच्चे अपना रूम साफ करें और शिक्षक अपनी ऑफिस साफ़ करने में सहयोग करें। ताकि बच्चों के साथ कोई भेदभाव न हो।
Agar gav ke log sari suvidha apne bachhe ko de pate to vo apne bachhe ko sarkari ki vjy pvt school m lgate. Or prncpl khti h ki sarkar me kami h hme school me sfayi ki koi grant nhi aati. Isliye bache sara school saaf krte h or gandi plates me khana khate h.
यह स्थिति तो गंभीर है। सीधे प्रिंसिपल से बात करके गांव की तरफ से जरूरी चीजें उपलब्ध कराकर उनका उपयोग करने की बात कही जा सकती है।
Smc member ki school me koi sunvayi nahi h
दुःखद स्थिति है। सुकून की बात बस यही है कि सारे सरकारी स्कूलों में ऐसी स्थिति नहीं है। आप स्कूल की एसएमसी के सदस्यों से बात करके इस स्थिति को बेहतर करने का प्रयास कर सकते हैं।
Sarkari school m hath dhone ke liye sabun nhi diya jata or mid day meal ke bartan ni sabun se nhi dhoye jate.mujhe isliye malum h kyonki mera beta bhi sarkari school m h.
सही बात है आपकी
बहुत सुंदर प्रस्तुति