शिक्षकों को ‘ड्रेस’ पहनाकर शिक्षा का कौन सा उद्देश्य पूरा होता है?

उत्तराखंड सरकार के फ़ैसले के बाद ऐसा कहा जा रहा है कि अब बच्चों के साथ शिक्षक भी स्कूल यूनिफार्म में नजर आएंगे।
उत्तराखंड के एक विद्यालय में शिक्षक और शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर निरंतर लेखन करने वाले दिनेश कर्नाटक लिखते हैं, ” जब हमें किसी को भी अपने सीधे नियंत्रण में रखना होता है या साफ-साफ दिखाने की जरूरत होती है कि इस व्यक्ति की पहचान यह है तो हम उसे ड्रेस पहनाना चाहते हैं। सेना, पुलिस, अस्पताल, होटल, फैक्ट्री आदि के कार्मिकों को हम ड्रेस में देखते हैं। हरेक की ड्रेस के पीछे अपने-अपने कारण होते हैं।”
वे आगे कहते हैं, “शिक्षकों को ड्रेस पहनाना उत्तराखंड में सामने आया एक नया विचार है, अतः पहले तो यह अध्ययन करना होगा कि दुनिया और भारत में कहाँ-कहाँ शिक्षकों को ड्रेस पहनना अनिवार्य है ? नहीं है तो क्यों नहीं है ? शिक्षकों को ड्रेस पहनाकर शिक्षा में कौन से उद्देश्य की पूर्ति होगी ?’
हम कार्मिक नहीं, ‘शिक्षक’ हैं
अपनी बात आगे बढ़ाते हुए वो कहते हैं, “शिक्षा कंडीशनिंग करने के लिए नहीं होती, वरन व्यक्ति को स्वतंत्रता का बोध कराने के लिए होती है। अगर समाज शिक्षा और शिक्षक का सम्मान करता है तो वह शिक्षक को कार्मिक में बदलने के बजाय एक स्वतंत्र चेता इंसान के रूप में देखना पसंद करेगा। तो क्या ये कहा जाए कि ड्रेस कोड उसकी उस स्वतंत्रता तथा स्वायत्ता को नकारने तथा उसे कार्मिक समझने या कार्मिक में बदलने की प्रक्रिया का हिस्सा है ? यह भी सच है कि यह सोच किसी एक व्यक्ति तथा सरकार की नहीं है, बल्कि यह बाजारीकरण से उपजा विचार है और सर्वव्यापी है।”
उनकी यह बात ग़ौर करने लायक है, “ध्यान रहे शिक्षक सरकारों के वेतनभोगी होते हुए भी कार्मिक नहीं “शिक्षक” हैं। उनका अलग कैडर है। हम मानते हैं कि यह भी बार-बार कहा जाना चाहिए कि शिक्षक-शिक्षिकाएं “सुसभ्य” ड्रेस पहनें।”
‘ड्रेस कोड’ और बहुलता के प्रति सम्मान का सवाल
बहुलता का सवाल उठाते हुए वो कहते हैं, “हर शिक्षक अपने कपड़ों से अपना अलग व्यक्तित्व प्रस्तुत करता है। कोई धोती-कुर्ता, कोई कुर्ता-पजामा, कोई पैंट कमीज, कोई टोपी पहनता है। शिक्षकों की यह विविधता, यह बहुलता एक प्रकार से देश की बहुलता को प्रकट करती है। जब कोई देश-समाज शिक्षकों, पत्रकारों, कलाकारों, संगीतकारों, साहित्यकारों के व्यक्तित्व को किसी ड्रेस, किसी खास रंग, किसी खास पैटर्न में बांधने की कोशिश करे तो इस विषय को ऐसे ही नहीं छोड़ा जा सकता इस पर सभी को गहराई से सोचना ही होगा।”
इसी मुद्दे पर कमला पंत कहती हैं, “शिक्षक कभी साधारण नहीं होता। ड्रेसकोड से उसका साधारणीकरण करना अपने गले तो उतरता नहीं ।इससे शिक्षा जिसके केंद्र में बच्चा है की गुणवत्ता में क्या बढ़ोत्तरी होगी ?”
योगेश बहुगुणा कहते हैं, “ड्रेस कोड जरूरी है तो सबसे पहले विधायकों और सांसदों पर लागू होना चाहिए ।आखिर ये भी तो कार्मिक ही है, हमारे टैक्स के पैसों से इनको तनख्वाहें और सारी सुविधाएं उपलब्ध होती हैं ।”
संगीता जोशी कहती हैं, “ये फिनलैंड की तर्ज पर शिक्षा का ढांचा तैयार करने की बात करते हैं..लेकिन वहाँ तो बच्चे भी यूनिफार्म में नहीं आते।”
(यह पोस्ट हमारे शिक्षक साथी दिनेश कर्नाटक ने लिखी है। वे शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर निरंतर लेखन करते हैं। ‘शैक्षिक दख़ल’ शैक्षिक पत्रिका में सक्रियता से शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर निरंतर लेखन करते रहे हैं।)
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आज जो लोग ड्रेस कोड लागू करना चाहते हैं.किन ड्रेस कोड वाले शिक्षकों से शिक्षा ग्रहण किये है ?विविध सुसभ्य परिधान शिक्षकों के लिये सामाजिक पहचान रहा है.शिक्षक को नियंत्रित करना एक दबाव की राजनीति है.स्वतंत्र शिक्षक तनावमुक्त शैक्षिक वातावरण का निर्माण करता है और सबसे महान मार्गदर्शक होता है.