आज़ादी के 70 सालः कितनी बदली है प्राथमिक शिक्षा की स्थिति?

देश के सभी बच्चों के स्कूल में पुस्तकालय और ख़ुशनुमा माहौल होना जरूरी है।
आज देश 71वां स्वाधीनता दिवस मना रहा है। एक दौर ऐसा भी था जब दो कमरों के स्कूल में पढ़ाई होती थी। बच्चे आम, पीपल, बरगद के पेड़ के नीचे पढ़ते थे। शिक्षा को लेकर कोई जागरूकता नहीं थी। जिस बच्चे का मन होता था, स्कूल जाता था।
सबकुछ घऱ वालों की जागरूकता पर निर्भर था। शेष स्कूल में मास्टर जी की दया पर। स्कूल में बच्चों की पिटाई होती थी। नियनमित स्कूल न आने पर नाम काट दिया जाता था। स्कूल के गाँव में मास्टर साहब का रूतबा था। मगर धीरे-धीरे बहुत कुछ बदला। स्कूलों में भवनों के निर्माण के लिए बजट आया। गाँव-गाँव स्कूल खोले गये। रात्रिकालीन शाला चलीं। प्रौढ़ साक्षरता के प्रयास हुए।
पिछले 70 सालों में क्या बदला है?
अंततः 2009 में शिक्षा का अधिकार कानून आया। बच्चों को निःशुल्क शिक्षा का अधिकार मिला और दोपहर में मध्याहन भोजन योजना की शुरूआत हुई।
यह विश्व की सबसे बड़ी योजना है, जिसमें स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को गरम भोजन दिया जाता है। इस योजना को भी तमाम तरह की आलोचनाओं से गुजरना पड़ा। कई बड़े हादसे हुए, जिसमें बहुत से बच्चों की जान चली गई। मगर योजना को चुस्त-दुरूस्त बनाने के प्रयास हुए और अभी भी जारी है। मगर 71 सालों में तस्वीर बदली जरूर है, मगर अभी भी बहुत कुछ किये जाने की जरूरत है।
हमारे देश के 12,65,000 स्कूलों में पढ़ने वाले तकरीबन 12 करोड़ बच्चे पढ़ रहे हैं। पूरे भारत में तकरीबन 1,05,630 सिंगल टीचर स्कूल हैं। यानि एक शिक्षक के भरोसे पूरा स्कूल चल रहा है। छात्र-शिक्षक अनुपात 30-35 का होना चाहिए, मगर बहुत से स्कूलों में छात्रों के अनुपात में कम शिक्षक हैं।
जबकि कहीं-कहीं शिक्षकों की संख्या बच्चों के नामांकन की तुलना में ज्यादा है।नामांकन के क्षेत्र में हमने अभूतपूर्व सफलता पायी है। पर असली मुद्दा को बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराना है ताकि वे उच्च शिक्षा के लिए आगे जा सके।
बुनियादी सवाल, जिनका समाधान बाकी है
हाल ही में शिक्षा का अधिकार क़ानून-2009 के 16-ए वाले हिस्से में संसोधन को मंजूरी मिल चुकी है, अब छठीं, सातवीं और आठवीं में पढ़ने वाले बच्चों को क्रमोन्नत करने से रोका जा सकता है। यानि फेल किया जा सकता है। संसद के दोनों सदनों द्वारा ऐसे प्रस्ताव को मंजूरी मिलने के बाद यह वर्तमान सत्र से विभिन्न राज्यों द्वारा क्रियान्वित किया जा सकता है। मगर क्या हमारी असली समस्या इस प्रावधान को खत्म करने के दूर हो जायेगी। क्या शिक्षा के क्षेत्र में गुणवत्ता के सवाल को हल करने की राह आसान हो जायेगी? इस सवाल का जवाब अभी भी मिलना बाकी है।
बुनियादी सुविधाओं का अभाव

बहुत सी लड़किया आठवीं-दसवीं पास करके पढ़ाई छोड़ देती हैं, क्योंकि उनके घर के पास में स्कूल नहीं होते। बालिका शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए लड़कियों के लिए सुरक्षित माहौल का होना और पढ़ाई के लिए परिवार से प्रोत्साहन मिलना जरूरी है।
प्राथमिक शिक्षा की सबसे बड़ी समस्या विद्यालयों की संख्या के अनुसार शिक्षकों और स्कूलों में भौतिक सुविधाओं का न होना है। बहुत से विद्यालयों में आज भी बच्चे दरी पर बैठने को मजबूर हैं। बहुत से स्कूल ऐसे हैं जो गाँव में बिजली आने की राह देख रहे हैं। बहुत से स्कूलों में शिक्षकों की कमी के चलते बच्चों का दाखिला निजी स्कूलों में होने लगा है।
सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षक कहते हैं कि जब मानवीय संसाधन ही नहीं है तो फिर दो-तीन शिक्षक मिलकर क्या कर लेंगे। उनकी बात भी अपनी जगह सही है। मगर बच्चे तो किसी का इंतज़ार नहीं कर सकते, उनके साथ होने वाली लापरवाही, उनको उच्च शिक्षा से वंचित कर देगी।
ऐसे हालात में उन बच्चों के पास भविष्य में मजदूरी करने और अकुशल श्रमिक बनने के अलावा कोई रास्ता नहीं होगा। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में प्राथमिक शिक्षा की जो स्थिति है वह आने वाले दिनों में पूरे प्रदेश को मजदूरों की मण्डी में तब्दील कर देगा। बहुत से राज्यों में बच्चे गर्मी की छुट्टियों में बड़े शहरों में मजदूरी के लिए जाते हैं ताकि अपनी पढ़ाई का खर्च निकाल सकें।
‘सिर्फ़ पैसे से मतलब है’

शिक्षण का प्रोफ़ेशन एक नौकरी से कहीं ज्यादा है। इसके महत्व को केवल पैसे तक सीमित कर देना दीर्घकाल में भारी नुकसान पहुंचाने वाला है।
एक शिक्षक कहते हैं, “बहुत से शिक्षकों को सिर्फ़ पैसे से मतलब है। स्कूल चलें या फिर बंद हो जाएं। इस बात से उनको कोई फर्क़ नहीं पड़ता है। सरकार तो बस निजीकरण की राह देख रही है। 15 बच्चों वाले स्कूल में तीन शिक्षक तैनात हैं। जबकि ज्यादा बच्चों वाली स्कूलों में कम स्टाफ लगा हुआ है। अगर शिक्षक अपने पास से स्कूल के विकास के लिए खर्च करें तो घर वालों के ताने सुनने पड़ते हैं कि घर का खाते हो और स्कूल में खर्च करते हो।”
वे आगे कहते हैं, “शिक्षा के क्षेत्र में मिलने वाले पुरस्कार और सम्मान का आलम यह है कि पढ़ाने वाले गुमनामी में जी रहे हैं। ऐसे शिक्षक जो बच्चों को पढ़ाते तक नहीं, उनको बड़े-बड़े पुरस्कार मिल रहे हैं। इससे काम करने वाले लोगों को प्रोत्साहन की बजाय हताशा ही मिलती है। ऐसे पुरस्कार प्राप्त शिक्षकों के काम की भी जाँच होनी चाहिए कि अपने-अपने विद्यालय में वे क्या काम कर रहे हैं या अतीत में उन्होंने जो काम किया है, उसका क्या असर पड़ा है। सही सोच का अभाव शिक्षा क्षेत्र के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इसमें बदलाव किये बना कितने भी संसाधन और स्टाफ दे दिये जाएं, सरकारी स्कूलों की तकदीर बदलने वाली नहीं है।”
अच्छे शिक्षक, अधिकारी और समुदाय के लोग भी हैं
हालांकि इसी व्यवस्था में विभिन्न राज्यों में ऐसे शिक्षक हैं जो अपने बच्चों से लगाव रखते हैं, उनकी पढ़ाई को बच्चों की ज़िंदगी में बदलाव का सबसे बड़ा जरिया मानते हैं और स्कूल को घर की तरह ही महत्व देते हैं। ताकि वहाँ के काम करने के माहौल को बेहतर बनाया जा सके। मगर ऐसे स्व-प्रेरणा से काम करने वाले शिक्षकों की कहानियां बेहद कम हैं, जो प्रकाश में आती है। इन शिक्षकों को भी अपनी ऊर्जा और उत्साह के साथ काम करने के लिए प्रेरित करने वाले माहौल की जरूरत है। ताकि वे अपने प्रयासों को जारी रख सकें।

राजस्थान के आदिवासी अंचल सिरोही में पहली कक्षा के बच्चों को पढ़ाते शिक्षक ताराराम जी।
इन शिक्षकों को अपने ब्लॉक में काम करने वाले ऐसे अधिकारियों से सपोर्ट मिल रहा है जो शिक्षा के क्षेत्र में बदलाव लाने की मंशा से काम कर रहे हैं। अपने काम को बच्चों के बेहतर भविष्य के सपनों से जोड़कर देख रहे हैं। समुदाय और विद्यालय के बीच पुल बनाने का काम कर रहे हैं ताकि दोनों एक सहयोगी की भूमिका में काम करें। इससे टकराव वाली स्थिति को टालने और विद्यालय की प्रगति को दिशा देने में मदद मिली है। समुदाय के लोगों का सहयोग अपने निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर होता है तो विद्यालय को लाभ ही मिलता है। नियुुक्तियों में समुदाय के लोगों की भागीदारी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि इस तरह से चुनकर आने वाले शिक्षक पढ़ाई को उतना ज्यादा महत्व नहीं देते। यह ठीक उसी तरह है, जैसे बिना प्रयास के मिलने वाली चीज़ की हम कद्र नहीं समझते हैं। ऐसा करके शिक्षा के क्षेत्र में होने वाले सकारात्मक प्रयासों को विकसित होने का माहौल दिया जा सकता है।
आप सभी को 71वें स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं। फिर मिलते हैं, शिक्षा से जुड़े किसी और मुद्दे पर विमर्श की कहानी के साथ।
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