चर्चा मेंः विभिन्न विषयों के शिक्षण को कैसे आसान बनाती है कहानी विधा?

राजस्थान के एक सरकारी विद्यालय में कहानी सुनते हुए बच्चे।
कहानियां दरसल हैं क्या? क्या वे वर्तमान में जिस रूप में जानी जाती हैं या यूँ कह लें वर्णन के जिस विस्तार को हम आज तक कहानी के चौखटे में कसते हैं, हमेशा से क्या सिर्फ इसी वर्णन को कहानी में फिट माना जाता रहा था? उत्तर थोड़ा जटिल है…इसे समझने के लिए हमें जरा पीछे जाना होगा.
एजुकेशन मिरर के लिए यह ख़ास पोस्ट लिखी है कहानीकार उपासना ने।
मानव सभ्यता में संप्रेषण की शुरुआत
मानव सभ्यता का वह दौर जब आदमी के पास भाषा जैसी चीज नहीं हुआ करती थी. मानव अपने हाव-भाव और संकेतों के द्वारा अपने सन्देश सम्प्रेषित करता था. इस सम्प्रेषण की अपनी सीमाएं थीं. सम्प्रेषण आवश्यक संदेशों के आदान-प्रदान से आगे नहीं बढ़ पाता था. धीरे-धीरे भाषा, लिपि, वर्ण का विकास हुआ. मानव का अनुभव संसार बढ़ा. उसका पदार्थों को महसूसने का स्तर विस्तृत व सूक्ष्म हुआ.
उदाहरण के तौर पर जब संकेत, सम्प्रेषण की भाषा रही होगी. तब संभव है?- हाँ /ना के प्रारूप वाले हुआ करते होंगे. किन्तु भाषा, बोली, लिपि के विकास के साथ प्रश्नों व उत्तरों का क्षेत्र व्यापक हुआ होगा. माना कि अनुभव जुड़ने लगे होंगे. अनुभवों की साझेदारी बढ़ी होगी. मानव ने स्वयं को अभिव्यक्त करना सीखा होगा. मानव का मानव को समझने की क्षमता का विकास व व्यापीकरण दोनों हुआ होगा. इसी क्रम में हम आगे बढ़ते आएं तो पौराणिक काल के अनेक प्रसंगों में हम यह पाते हैं कि कथाओं के बीच कथाएँ निकलने लगती हैं.
कई बार यात्रा वृतांत या निबंध सरीखे लगने वाले वर्णनों को भी कथा की संज्ञा दी जाती रही थी. यानि कि आज वर्णन के जिस विस्तार को हम निबंध, रिपोर्टताज, यात्रा वृतांत इत्यादि के खांचो में फिट करते हैं, अपने शुरूआती चरणों में यह कथा कहानी का अंग हुआ करते थे.
कहानियों के वर्तमान की ‘कहानी’
अब आते हैं कहानियों के वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य पर. यदि कहानियों की चर्चा की जाती है तो सहज ही पहली तस्वीर बनती है- दादी/नानी को घेर कर बैठे हुए, लिहाफ में दुबके बच्चे और जरा-जरा देर बाद हंस कर गला साफ़ करती, धारा प्रवाह कथा को आगे बढ़ाती दादी/नानी अम्मा. या फिर बच्चों के शरारत के दिनों में उन्हें फुसलाकर घर में बिठाये रखने के लिए माँ या बुआ द्वारा नए किस्सों का गढ़ना. जी हाँ, पारंपरिक रूप में कहानियां आम घरों में इसी तरह बढ़ती रही हैं. कहानियों में नदियों, वृक्षों, पशु-पक्षियों, आसमान धरती सबका मानवीकरण हो जाता था. ये इन्सान की बोली में बातचीत करते थे. बच्चों की कई तरह की जिज्ञासाएं हुआ करती थीं. यथा पेड़ कैसे बोल पाता था?
परी उड़ती कैसे है? भस्मासुर अपने ही सिर पर हाथ रखकर कैसे जल गया? संभव है कई बार दादी/नानी इन जिज्ञासाओं का, बाल मन को संतुष्ट करने लायक कोई उत्तर दे पाती होंगी. कई दफ़ा कहानी यहीं बंद करने की धमकी दे कर बच्चों को शांत कर दिया जाता होगा. इन कहानियों में कुछ सच्चाई होती थी, कल्पनाएं होती थीं एवं मिथक होते थे. किन्तु इन कहानियों के कथा वाचक, श्रोताओं की जिज्ञासाओं का यथा योग्य उत्तर नहीं दे पाते थे. इन कहानियों का कोई भी निश्चित उद्देश्य नहीं होता था.
राजा-रानी की कहानी
राजा रानी की कहानियाँ बच्चों का मनोरंजन ही करती थीं ताकि हुँकारी भरते बच्चे शांति से सो जाएँ. किन्तु सिर्फ इसी आधार पर इन कहानियों की उपादेयता पर प्रश्न चिह्न लगाना भी वाजिब नहीं होगा. ये कहानियाँ भावनात्मक स्तर पर बच्चों को स्वयं से जोड़ लेती थीं. कहानियों में चिड़ियाँ का दुःख बच्चे का अपना दुःख हो जाता था. वहीँ दूसरी ओर पौराणिक कहानियां या पंचतंत्र की कहानियां बच्चों में नैतिक बोध को प्रोत्साहित करने का अच्छा माध्यम थीं.
ये कहानियां लोक कथाएँ होती थीं. पौराणिक कथाएँ होती थीं. या फिर छोटी-छोटी कई तरह की उपकथाएँ. सभ्यता के विकास के साथ-साथ बहुत कुछ इन कथाओं में जुड़ता घटता गया. इन कथाओं का लोक पक्ष बच्चों के अंतर मन में अपनी लोक संस्कृति और बोली के प्रति जिज्ञासा और उत्साह का संचार करता था. बच्चा सहज ही लोक- संस्कृतियों से जुड़ाव महसूस करने लगता था.
क्या आपको भी याद है गौरैया की कहानी?

घरेलू गोरैया एक छोटी चिड़िया है। यह हल्की भूरे रंग या सफेद रंग में होती है।
इन कथाओं में छोटे-छोटे दोहेनुमा वाक्य या छोटी कविताएँ होती थीं जो जुबान पर चढ़ जाती थीं. उदाहरण के तौर पर भोजपुरी लोक में एक चिड़ियाँ की कहानी प्रसिद्द है जिसमें एक नन्हीं गौरैया के दाल का एक मात्र दाना खूंटे में फंस जाता है. भूखी गौरैया उसे राजा से निकलवाने की विनती करती है…
राजा राजा खूंटा चिरअ
खूंटा में मोर दाल बा,
का खाई का पीहीं,
का लेके परदेस जाईं…
यहाँ कथा में गौरैया की भूख से बच्चा सहज ही ममता अनुभव करने लगता है. कथा के कई पड़ाव पर बच्चे कई प्रश्न उठाते हैं?
“गौरैया को आखिर में दाना मिला या नहीं?”.
यहाँ बच्चे में नए भावबोध व संवेदनशीलता का जन्म होता है. बच्चा जो अबतक सिर्फ अपने माता -पिता, भाई-बहनों से जुड़ाव महसूस करता था अब इस तरह से उसके भाव बोध का संसार विस्तृत होता है.
दूसरा इन कहानियों से बच्चों की कल्पनाओं को नए पंख मिल जाते हैं. उनकी कल्पना क्षमता और सृजनात्मकता का विकास होता है. उन कथाओं में जहाँ शर्बत की मीठी झील होती है, राक्षस और राजकुमार होते हैं परियां होती हैं, इन्सान की भाषा में बात करने वाले पक्षियां और जानवर होते हैं, तो बच्चों को इन कहानियों में रस और रोमांच हो आता है.
जब कहानियां ही शिक्षा का माध्यम होती थीं
कथा कहानियां ही पुराने समय में शिक्षा का माध्यम होती थीं. गुरुकुल प्रणाली में शिक्षक कथा वाचन शैली में ही छात्रों को नैतिक शिक्षा, इतिहास और राजनीति शास्त्र की भी शिक्षा दिया करते थे. यह विधि आज भी उतनी ही प्रासंगिक है. कक्षा में इतिहास पढ़ाने के लिए कथा वाचन शैली एक उपयुक्त प्रणाली है.
उदाहरण स्वरुप हड़प्पा संस्कृति का उत्थान, विकास और पतन पढ़ाते वक्त (यदि शिक्षक पूरी तरह योग्य व विषय ज्ञान से लैस हो) किताब बंद कर कथा वाचन शैली में जानकारियां सम्प्रेषित करना ज्यादा लाभदायक हो सकता है. बीच-बीच में शिक्षक विषय सम्बन्धी प्रश्न उठाकर विद्यार्थियों की तत्परता और एकाग्रता की परीक्षा भी ले सकता है. इस तरह बच्चे न केवल विषय को गहराई से समझते हैं अपितु तथ्य क्रमबद्ध तरीके से आत्मसात भी करते हैं.
एक-तरफा संवाद न बने कहानी का मुखर वाचन
इसी प्रकार भूगोल शिक्षण भी किया जा सकता है. यथा प्लेट-टेकटोनिक सिद्धांत आल्प्स पर्वत या वलयदार पर्वतों के निर्माण का सिद्धांत क्रमबद्ध ढंग से कथा वाचन शैली में बच्चों को समझाया जा सकता है. कथा वाचन शैली का सबसे बड़ा लाभ यह है कि किसी भी विषय या शीर्षक की कथा ‘स्टेप बाई स्टेप’ वाले अंदाज में क्रमबद्ध वाले अंदाज में बढ़ती है. वाचक के विषय से विषयांतर होने की संभावना न्यून होती है. विद्यार्थियों को भी नीरस से नीरस विषय या टॉपिक में बोरियत महसूस नहीं होती.
किन्तु यह कथा वाचन शैली एक तरफ़ा संवाद के रूप में आगे बढ़ती जाए तो तो विषय बोझिल लगने लगता है और सम्प्रेषण अर्थहीन तथा उबाऊ लगने लगता है. अतएव यह आवश्यक है कि कथा वाचक/शिक्षक, श्रोताओं/ विद्यार्थियों की कथा वाचन में संपूर्ण व् उत्साहपूर्ण सहभागिता सर्वप्रथम सुनिश्चित करें. विद्यार्थी प्रश्न करें, कथा में इसका बराबर अवसर और स्पेस बनाये रखा जाना चाहिए. दूसरी बात यह कि बच्चों को तर्क करने का अवसर जरूर दिया जाना चाहिए. बल्कि कथा वाचन करते वक्त जान बूझ कर टॉपिक को इस तरफ ले जाया जाना चाहिए जहाँ विरोधाभास की स्थिति हो.
बच्चों को तर्क करने के लिए प्रेरित करें
बच्चों को तर्क के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए. उदाहरण के स्वरुप मैं अपना एक अनुभव साझा करना चाहती हूँ. जिस विद्यालय में मैं पढ़ाती थी वहां कक्षा एक में शाश्वत नाम का एक बच्चा पढ़ता था. एक दिन बच्चे ने मुझसे पूछा- “ मिस! बीज कहाँ से आया?” मैंने सहज भाव में कहा-“ पेड़ से”.
शाश्वत मेरी इस बेवकूफी पर हंसने लगा. हँसते हुए कहने लगा- “अरे मिस! पेड़ कहाँ से आया बीज से ही न”. तब मुझे समझ में आया कि बच्चा बीज के जन्म की पूरी कहानी जानना चाहता है. मुझे ईश्वर, बिग बैंग थ्योरी, पृथ्वी, सूर्य व बीज को एक कथा सूत्र में पिरोना पड़ा और उसे एक कहानी सुनानी पड़ी. मुझे हैरानी हुई जब मैंने दो दिन के बाद उससे बीज वाली कहानी के बारे में पूछा तो उसने अपनी भाषा में पूरी कहानी सुना दी.
भाषा शिक्षण में कैसे मदद करती हैं कहानियां?

बच्चों के बनाये चित्र।
कई दफ़ा कहानियां भाषा शिक्षण का भी अच्छा साधन होती हैं. कक्षा एक के बच्चों को अक्सर कहानियाँ सुनाते वक्त बच्चे बीच-बीच में अपनी बातें रखते थे. या मेरी बातों को दुहराते थे. अक्सर उनके दुहराव में वाक्यगत अशुद्धियाँ होती थीं. मुझे बच्चों को नहीं स्वयं को सही रखना पड़ता था. बच्चे खुद ही अपनी गलती सुधार लेते थे. उदाहरण स्वरूप रामकथा कहते हुए बच्चे बीच में टोक देते थे
–“तो रामजी वन क्यों चला गया मिस?”
मुझे खुद बताना पड़ता था,
-“उनके पिताजी ने कहा था इसलिए रामजी वन गए”
मेरे दुबारा पूछने पर बच्चे ने वाक्य सुधार लिया,
-“ अच्छा! तो इसलिए रामजी वन गए.”
कहानी सुनने-कहने के फायदे क्या हैं?
कक्षा में बच्चे केवल कहानियां सुनते नहीं थे बल्कि सुनाना भी चाहते थे. उन्हें इसका पूरा मौका दिया जाना चाहिए. कहानियां स्वयं को अभिव्यक्त करने का माध्यम हैं. बच्चों को कहानियों के माध्यम से बात करने का मौका मिलता है. मैंने कई दफ़ा देखा है कि बच्चे केवल बड़ों से सुनी कहानियां ही सिर्फ नहीं सुनाते हैं बल्कि अपने मन से भी कहानियां गढ़ कर सुनाते हैं.

एक सरकारी स्कूल में एनसीईआरटी की रीडिंग सेल द्वारा छापी गयी किताबें पढ़ते बच्चे।
या कई बार तो वे तीन-चार कहानियों को समिश्रित करके एक नई कहानी गढ़ लेते हैं. अक्सर वे फिल्मों की कहानियां बड़े उत्साह से सुनाते हैं. सिनेमा की कहानियाँ सुनाते वक्त बच्चा अपनी तरफ से रोचकता बनाये रखने व पूरी फिल्म को ही अपने हाव भाव द्वारा आपके समक्ष उपस्थित कर देने का प्रयास करता है. वह नायक के हाव भाव और चरित्र की पूरी नक़ल उपस्थित करता है. ऐसी चीजों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. बच्चे कहानी सुनने-कहने के माध्यम से ही विचारों की क्रमबद्धता और भाषा में अनुशासन जल्दी सीखते हैं.
कक्षा अथवा घरेलू परिवेश में कथा वाचन का बहुत महत्व है. यह बच्चों की भाषिक, बौद्धिक, तार्किक व वैचारिक क्रमबद्धता के लिए सहायक साधन के रूप में उपयोग किया जा सकता है.
(लेखक परिचयः समकालीन कथा साहित्य में उपासना सतत लेखन के जरिये अपना योगदान दे रही हैं। आपने हाल के वर्षों में कई अच्छी कहानियां भी लिखी हैं। अभी हाल में ही उन्होंने एक बाल-उपन्यास ‘डेस्क पर लिखे नाम’ पूरी की है।)
सचमुच बेहतरीन आलेख … कहानी बच्चों को दुनिया का आईना देती हैं कि बच्चों दुनिया में इस तरह की चीजें भी होती हैं | कहानी विधा का बेहतरीन उपयोग प्राथमिक शिक्षण की जरूरतों को तो पुरा करता ही हैं परन्तु साथ साथ जीवन पर्यंत सीखने – पढने की ललक भी पैदा कर देती हैं | इस आलेख को शिक्षक – प्रशिक्षण में काम में लिया जा सकता हैं | धन्यवाद् उपासना बेहतरीन आलेख के लिए |
हेम
संदर्भ व्यक्ति भाषा
अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन राजस्थान
9680821935
कहानी से अधिक बच्चे को कुछ भी प्रिय नहीं होता। पर कहानी कहने का कौशल भी हर शिक्षक में नहीं होता। आवश्यकता इस बात की है कि ऐसे शिक्षक तैयार किए जाएँ।
आज के दौर में जब तकनीक हावी हो गई है और बच्चे नीरसता को झेलने के लिए विवश हैं, उपासना का ये आलेख समस्या के समाधान के रूप में सामने आता है।
हार्दिक बधाई।
कमलेश तिवारी
प्रधानाचार्य
रा.उ.मा.वि.पड़ासला
जोधपुर (राजस्थान)