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शिक्षा क्षेत्र में बदलाव कैसे होता है?

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शिक्षा के क्षेत्र में लंबे समय में सिर्फ काम बोलता है। अत्यधिक प्रचार मौन हो जाता है। इसलिए बेहतर होगा कि हम ज़मीनी स्तर पर होने वाले प्रयासों को सराहें। ऐसा प्रयास करने वाले लोगों को प्रोत्साहित करें। उन्हें समस्याओं के समाधान में मदद करें और यह अहसास दिलाते रहें कि अच्छा काम अपना प्रवक्ता ख़ुद खोज लेता है। इस बात से आप कितने सहमत हैं, साझा करिए अपनी राय एजुकेशन मिरर के साथ।

आपकी टिप्पणी से ऐसे विचारों की पड़ताल में मदद मिलेगा कि क्या सच में शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों को अलग तरीके से सोचना चाहिए। चीज़ों को अलग नज़रिये से समझने का प्रयास करना चाहिए। जिन बच्चों के लिए काम कर रहे हैं, उनकी भाषा, संस्कृति व परिवेश को समझना चाहिए। उनको मदद करने के लिए रणनीतियां बनानी चाहिए। अपने अनुभवों को डायरी के रूप में लिखना चाहिए ताकि अन्य लोग भी पढ़कर उसका लाभ उठा सकें।

बदलाव के दौर में ‘प्रतिज्ञा’

शिक्षा के क्षेत्र में अभी काफी उथल-पुथल हो रही है। नई शिक्षा नीति का इंतज़ार हो रहा है। सरकारी स्कूलों को कम नामांकन का आधार बनाते हुए कई राज्यों में बंद किया जा रहा है। तो कुछ राज्यों में शिक्षा के क्षेत्र में अस्थायी नियुक्तियों के सहारे काम चलाने की कोशिश हो रही है। कई राज्यों में शिक्षा मित्रों के सामने यथास्थिति बनाये रखने का संकट है। भविष्य के सवाल उनको परेशान कर रहे हैं। उनके सवालों का जवाब किसी के पास नहीं है। मन होता है कि उनके दुःख-दर्द व परेशानी पर लिखा जाये, लेकिन लोकतंत्र में जिसका दुःख है, वही कहे यह बात ज्यादा अच्छे से समझ में आती है। उस पीड़ा पर जरूर लिखने की कोशिश होगी ताकि कोई यह न कहे कि हम उनकी पीड़ा की अनदेखी हो रही है।

उच्च शिक्षा में यूजीसी को समाप्त करने की बात चल रही है। योजना आयोग को बदलकर नीति आयोग कर देने से भर से क्या बदलता है? यह संक्रमण वाली स्थिति धुंध से निकलने की दिशा में अग्रसर है। सिर्फ आँकड़ों को बदलने का खेल खेला जा रहा है, या लंबे समय के बदलाव की बुनियाद रखी जा रही है, किसी निष्कर्ष पर पहुंच जाना जल्दबाजी होगी। मगर शुरुआती रुझानों को भी ग़ौर से देखने-पढ़ने-समझने-विचारने की जरूरत है। इसके साथ ही जरूरत है कि संवाद का सिलसिला भी जारी रहे।

नये सत्र में बच्चों के असेंबली की तमाम तस्वीरें सामने आ रही हैं। ऐसी तस्वीरें भी हैं, जो दूर से व्यवस्थित नज़र आती हैं, मगर करीब से देखने पर पता चलता है कि सारे बच्चे एक ज़मीन पर नहीं हैं। सबके हाथ जोड़ने व खड़े होने के अंदाज अलग हैं। सब एक ही कतार में हैं, मगर ऐसा लगता है कि सब ज़मीन के अलग-अलग भूखंड पर खड़े हैं। तस्वीरों को शेयर करने से पहले थोड़ा सोचिए कि यह तस्वीर क्या लोगों को फायदा पहुंचाने वाली है? क्या इस तस्वीर से बाकी लोगों को सीखने के लिए कुछ है? तस्वीरों के साथ अपने अनुभवों को जरूर लिखकर शेयर करिए। जिन चीज़ों के लिए हमें हाथ-पाँव हिलाना चाहिए, उसके लिए भी हम सिर्फ शब्दों से काम चलाने वाले युग में प्रवेश कर गये हैं। इसलिए थोड़ी सतर्कता जरूरी है।

अंत में एक तस्वीर की बात जो मन के किसी कोने में पड़ी है, आपसे साझा है। एक विद्यालय में होने वाली प्रतिज्ञा में एक छोटे बच्चे के हाथ दुख रहे थे। उसने दूसरे हाथ से अपने प्रतिज्ञा के लिए आगे बढ़े हाथ को थाम रखा था। एक बच्चा जिसका ध्यान प्रतिज्ञा के लिए बढ़े हुए हाथ के दर्द की तरफ है, वह प्रतिज्ञा की तरफ कैसे ध्यान दे पायेगा? यह सवाल आपके लिए भी है। मेरे लिए भी है। आइए मिलकर विचार करें कि ऐसी प्रतिज्ञाओं से समाज में क्या बदलेगा?

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