कैसा हो विद्यालय का माहौल ताकि खुशी से दौड़ते हुए स्कूल आएं बच्चे?
आज हम बात करेंगे उस वातावरण की जिसके बारे में हम कल्पना करते हैं, की यदि स्कूल में ऐसा वातावरण हो तो बच्चे अधिक से अधिक पढ़ाई में रुचि लेंगे। तो आखिर वो ऐसा कौन सा वातावरण है जिसकी हम चर्चा करते हैं ? इस बारे में अपने अनुभवों को एजुकेशन मिरर के लिए लिखा है राहुल त्रिपाठी ने, तो आइए इस पोस्ट में उनके अनुभवों को पढ़ते हैं, उन्हीं के शब्दों में।
कुछ दिन पूर्व की बात है मैं एक स्कूल में कुछ शोध के कार्य से 28 दिन तक कार्य करने गया था। प्राथमिक विद्यालय में जब मैं शुरुआत में पहुंचा तो देखा कि बच्चे बहुत ही मनोयोग से पढ़ाई में लगे रहते थे, और उन बच्चों की एक खास बात थी कि वो सभी कक्षाओं में बैठना पसंद करते थे। निश्चित ही यह बहुत ही अच्छी आदत थी।
‘स्कूल आते समय मायूस दिखते थे छात्र’
कुछ समय पश्चात मैंने उन बच्चों की लर्निंग लेवल जांचने के लिए एक असेसमेंट किया जो कि कक्षा 3 और पांचवीं के हिंदी और गणित पर किया गया लेकिन उन प्रश्नों के उत्तर देने में महज 10 छात्र ही सफल हुए और जब हमने उन सफल लड़कों के विषय मे जानकारी जुटाई तो यह पाया कि वो सम्पन्न परिवारों से संबंध रखते हैं, लेकिन उसका कारण यही इतना नही था बल्कि कुछ और था।
फिर कुछ दिन सुबह स्कूल खुलने और दोपहर छुट्टी के समय मैंने देखा कि सुबह बच्चे स्कूल आते समय बहुत ही मायूस लगते हैं, उनके चेहरे पर कोई खुशी नही होती और उनके अंदर कोई उत्साह नही होता। लेकिन यही जब दोपहर को छुट्टी का समय होता है तो बच्चे स्कूल से घर दौड़ते हुए जाते हैं, स्कूल से बाहर निकलते ही वो सबसे शॉर्टकट रास्ते का स्तेमाल करते हैं। चाहें वह खेत से ही होकर क्यों न गुजरता हो, इन सब बातों को कई दिनों तक ऑब्जर्व करने के बाद मैंने यह निश्चय किया कि आखिर जब ये दौड़ते हुए स्कूल से घर की ओर जा सकते हैं तो घर से स्कूल भी आ सकते हैं बस जरूरत है, तो स्कूल में उन सब तरह के वातावरण की जो उनको घर पर मिलता है।
‘बाल संसद’ से बदलाव
इसके बाद मैंने सबसे पहले स्कूल में बाल संसद गठन का कार्य शुरू किया जो कि 3 चरणों में आयोजित की गयी। इन 3 चरणों को 3 दिन में पूरा किया और यह 3 चरण इसलिए भी निश्चित किया गया था ताकि बच्चों पर 3 दिन तक ऑब्जरवेशन किया जा सके, इसी तरह बाल सभा और असेंबली पर भी मैने कुछ नया करने की कोशिश की।
लगभग 10 दिनों तक इस तरह का कार्य जारी रहा, इस तरह के छोटे छोटे परिवर्तन करके मैंने देखा कि बच्चों की आपसी सहयोग और स्कूल के प्रति उनका लगाव बढ़ता जा रहा था लेकिन अभी भी वह स्थिति नही आ पा रही थी जिसकी मैं कल्पना करता था। परंतु मैने इसी तरह लगातार अपना प्रयास जारी रखा और नित नई कविता और बालगीत बच्चों के साथ करता और कभी कभी उनको अगल-बगल गांव में घुमाने ले जाता और छोटे छोटे पौधों के बारे में बच्चों से बात करता और उनसे भी जानकारी लेता।
इसी तरह बाल सांसदो की बैठक करवाई गई जिसमें बच्चों को वीडियो के माध्यम से वास्तविक संसद की प्रकिया के विषय मे समझाया गया सभी के कर्तव्यों को बताया गया जैसे बागवानी मंत्री , प्रधानमंत्री, शिक्षा मंत्री, अब विद्यालय वातावरण कुछ बदल नजर आने लगा था रोज सुबह बच्चों की एक बड़ी संख्या असेम्बली में उपस्थित होने लगी, बच्चे कक्षाओं के अंदर के साथ साथ विद्यालय की चहारदीवारी पर बने बाला( बिल्डिंग ऐज लर्निंग एड) से भी सीखने की कोशिश करने लगे थे इसके बाद जब मैने उन्ही बच्चों का इंड लाइन असेसमेंट किया तो मात्र 28 दिन में ही 53 % बदलाव देखने को मिला।
इससे स्पष्ट होता है कि यदि हम घर जैसे वातावरण के साथ बच्चों को सिखाने-सीखने का माहौल देने का प्रयास करें तो जैसे बच्चा छुट्टी के समय स्कूल से घर की ओर दौड़ते हुए जाता है, सुबह उसी वेग से वह घर से स्कूल दौड़ते हुए आएगा।
(एजुकेशन मिरर के लिए यह अनुभव लिखा है राहुल त्रिपाठी ने। आपकी एजुकेशन मिरर के लिए यह पहली पोस्ट है जो विद्यालय में बच्चों की भागीदारी के माध्यम से माहौल को बेहतर बनाने के प्रयासों को रेखांकित करती है। बच्चों को घर जैसा माहौल मिले तो सीखते हैं बच्चे, आपने अपने अनुभवों के माध्यम से इस बात को भी रेखांकित करने का प्रयास किया है।)
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