सक्सेस स्टोरीः ‘विद्यालय में नामांकन और ठहराव कैसे बढ़ाएं, सीखिए इस स्कूल से’
भोपाल से बैरसिया की और जाने पर 35 किमी दूर मेन रोड पर हर्राखेड़ा गाँव बसा हुआ है। गाँव की मुख्य सड़क पर ही है शासकीय प्राथमिक शाला हर्राखेड़ा। इस शाला में अधिकतर बच्चे यहीं गाँव से आते हैं। पिछले वर्ष तक यानि शैक्षिक सत्र 2016-17 में विद्यालय का कुल नामांकन 38 छात्र था। इस वर्ष विद्यालय के एक शिक्षक के अथक प्रयासों से शाला का परिवेश बदला है।
नामांकन पर नज़र
इस कारण शाला में जारी सत्र में 88 छात्रों का प्रवेश हुआ है, इनमें सात बच्चे दूसरी तहसील, दूसरे गांवो से और 3 बच्चे सिरोंज मदरसे से एवं 48 बच्चे निजी शालाओं से शाला में आए है। शिक्षकों द्वारा समय-समय पर शाला प्रबंधन समिति की बैठक में पालको से विद्यार्थियों को नियमित शाला पहुचाने एवं गणवेश बनवाने का प्रस्ताव रखा गया और साथ ही विद्यार्थियों के शैक्षणिक स्तर में आ रहे बदलावों को चिन्हित कर पालकों (पैरेंट्स) से साझा किया इसका परिणाम आज शाला में शत प्रतिशत बच्चे नियमित एवं गणवेश में शाला समय से पहले आते हैं और छुट्टी होने के आधे घंटे बाद तक रुकते हैं। वर्तमान में इस विद्यालय में बच्चों का कुल नामांकन 126 है।
बुनियादी सुविधाओं को बेहतर बनाने के प्रयास
ग़ौर करने वाली बात है कि शिक्षकों के प्रयासों का सिलसिला सिर्फ़ नामांकन पर नहीं ठहरा। यहां की आधारभूत संरचना (इन्फ्रास्ट्रक्चर) की स्थिति को भी बेहतर करने की कोशिशें हुईं। आपको पता ही होगा कि प्रत्येक प्राथमिक विद्यालय में रख-रखाव व विभिन्न मदों में प्रतिवर्ष मात्र 5000 रूपये आते हैं। मगर इस विद्यालय में 100 विद्यार्थियों के लिए टेबल-कुर्सी की व्यवस्था है, यह व्यवस्था शिक्षकों ने खुद के प्रयास के द्वारा किया गया है।
शाला परिसर में जल की उपलब्धता हेतु मात्र एक हेंडपंप है, फिर भी स्कूल के बगीचे में आपको हरियाली नज़र आती है। इस हरियाली के लिए हर दिन सुबह स्कूल का स्टाफ और छात्र मिलकर पानी देने का काम करते हैं। पीने के पानी के लिए विशेष रूप से नलों को पाईप से जोड़कर कवर किया गया है, पीने के समय का व्यर्थ हुआ पानी भी एक नाली के द्वारा पौधों में पहुंचता है।
स्कूल परिसर में ही लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग टॉयलेट्स हैं जिनमें बाल्टियों में पानी भर कर रखा जाता है। आप यदि किसी छात्र के सामने टॉयलेट उपयोग करते हैं तो वो आपसे तपाक से पूछ लेंगे कि आपने पानी डाला या नहीं? इसके साथ ही सभी बच्चे नियमित और अपने स्कूल के यूनिफार्म में ही स्कूल आते है ,चाहें सरकार से फण्ड मिला हो या न हो और मिड डे मील की बात करें तो सभी बच्चे पंक्ति में बैठकर एक साथ भोजन करते हैं।
शैक्षिक गुणवत्ता पर सकारात्मक असर
स्कूल में अकादमिक गुणवत्ता को जानने के लिए हम एक दिन की दिनचर्या पर नज़र डालते हैं। इस स्कूल में लगभग सभी छात्र स्कूल समय से आधा घंटे पहले पहुँच जाते हैं। सब बच्चों के फेवरेट सर के पहुँचते ही (ये भी स्कूल समय के आधा घंटा पहले ही पहुँचते हैं) साथ मिलकर स्कूल की सफाई करते हैं।
सभी बच्चे प्रार्थना सभा की तैयारी करते हैं जैसे माइक निकालना, सभी बच्चों को पंक्तियों में खड़ा करना, प्रार्थना सभा का संचालन करना इत्यादि। प्रार्थना सभा का संचालन दिनवार और हाउसवार किया जाता है, जिसमें आज का विचार (जो बच्चे स्वयं से जुटाते हैं), चेतना गीत, बालगीत तथा राष्ट्रगीत होता है। यहां ध्यान देने वाली बात है कि सभी बच्चों को संचालन करने का मौक़ा भी मिलता है।
सक्रिय है ‘बाल संसद’
स्कूल की सभी प्रक्रिया को व्यवस्थित रूप से संचालित करने के लिए बच्चों की ‘बाल संसद’ बनाई गई है। इसके लिए चुनाव के माध्यम से बच्चों का क्षेत्र सहित चयन किया गया। शिक्षको के माध्यम से उन्हें उनकी भूमिका बताई गई। बाल संसद के सदस्य अपने-अपने कार्यों का व्यवस्थित रूप से संचालन करते है और असेंबली के बाद सभी छात्र अपनी-अपनी कक्षाओं में चले जाते हैं। फिर शुरू होता है पढाई का सिलसिला।
सभी कक्षाओं में पढ़ाई का काम सहायक शिक्षण सामग्री से होता है जैसे गीत-कविता पोस्टर, अक्षर-शब्द कार्ड, गणित के TLM इत्यादि। स्कूल में तीन ही शिक्षक हैं, इसमें से 2 शिक्षक अपने शिक्षण निर्देशों को टूटी-फूटी अंग्रेजी में ही देते हैं। निर्देशों की इस प्रक्रिया से कई बच्चे अपने बारे में 5 से 10 वाक्य अंग्रेज़ी में समझने बोलने लगे हैं। वैसे तो स्कूल हिंदी माध्यम है मगर स्कूल में शिक्षण का कार्य अंग्रेज़ी माध्यम जैसा ही किया जाता है l
पढ़ने की ललक जगाती ‘लाइब्रेरी’
स्कूल में एक छोटी ‘लाइब्रेरी कॉर्नर’ भी है जिसमें लगभग 30-40 किताबें ही हैं जो लगभग सभी बच्चे पढ़ चुके हैं। सभी शिक्षको के लिए टाइम टेबल बनाया गया और विषयवार वह अपनी कक्षा को पढ़ाते है> इस स्कूल में 90 प्रतिशत बच्चों को पढना और लिखना आता है ,बाकि 10 प्रतिशत बच्चे वह जिन्होंने पहली बार इस स्कूल में एडमिशन लिया है। इस स्कूल के शिक्षक न केवल बच्चों के संपर्क में रहते हैं, बल्कि उनके रिश्ते बच्चों के माता-पिता एवं समुदाय से भी बढ़िया है ,जिनके कहने पर वाली बच्चों के शिक्षा के प्रति उनकी ज़िम्मेदारी को भी 100 प्रतिशत निभाते है और अपने बच्चों के शाला के लिए हर संभव सहयोग करने को तैयार रहते है।
स्कूल को ‘दूसरा घर’ मानते हैं बच्चे
इस स्कूल की खासियत यह है की सभी शिक्षक मिलकर हर गतिविधियों को करवाते है ,स्टाफ मीटिंग के माध्यम से हर महीने कक्षा में शिक्षको ने क्या –क्या करवा दिया है और बच्चे के स्तर अनुसार प्रगति पर भी बातचीत होती है। स्कूल से जुड़े सभी कार्यो को मिलकर किया जाता है। बच्चों को अपने स्कूल से इतना लगाव है की वह छुट्टी के समय भी वह स्कूल में रहना चाहते है, वह स्कूल को अपना दूसरा घर मानते है और अपनी ज़िम्मेदारी के साथ स्कूल के हर जगह वह शिक्षकों के साथ बढ़-चढ़ के हिस्सा लेते है।
मेरे जीवन में मैंने मध्य प्रदेश में पहली ऐसी शाला देखी जहाँ बच्चे और शिक्षक अपने स्कूल को लेकर सकारात्मक रूप से जुड़े है और अपने कार्य को बेहतरी से करने की कोशिश में लगे हुए है। उम्मीद है कि अन्य विद्यालय भी ऐसे होंगे, जहाँ बक पहुंचना बाकी है। पर एक उम्मीद है कि शायद आने वाले समय में सभी का प्रयास हर्राखेड़ा को एक आदर्श शाला के रूप में विकसित कर सकेगा, जिसकी रौशनी अन्य शिक्षकों व विद्यालयों को भी ऐसे प्रयास के लिए प्रेरित करेगी।
(इस पोस्ट की लेखिका नमिता शुक्ला वर्त्तमान में अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन, भोपाल में कार्यरत हैं। पत्रकारिता की पढ़ाई के बाद उन्होंने गांधी फेलोशिप किया और शिक्षा के क्षेत्र में पिछले 5 सालों से काम कर रही हैं।)
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