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शिक्षा दर्शनः आधुनिकता के दौर में ‘मौलिकता’ से दूर होती शिक्षा

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शिक्षा का वास्तविक स्वरूप या तो हम विस्मृत कर चुके हैं, या फिर आधुनिकता एवं विकास की दौड़ में शिक्षा में वह शक्ति नहीं रह गई जिससे एक ज्ञानशील, सृजनशील एवं मानवतावादी समाज का निर्माण किया जा सके। यदि वर्तमान परिदृश्य को देखें और आँकड़ो की बात करें तो हमें उक्त दोनों बातों को स्वीकार करना होगा आधुनिक विकास की दौड़ में विकास को हमें आध्यात्मिकता की सीमाओं को ध्यान में रखकर करना होगा अन्यथा दोनों ही रूपों में हम मौलिकता के स्वरूपों को खोते जाएंगे। शिक्षा को मानवीय विकास का मूल साधन कहा गया है, दो तरह की मौलिकता की बात की जाती है।

शिक्षा का जो बुनियादी स्वरूप है जो उसका मौलिक स्वरूप है जिसमें कहा जाता है कि सामाजिक, मानसिक, अध्यात्मिक, चारित्रिक एवं सृजनशील व्यक्ति का निर्माण करना ही शिक्षा है, इनमें से किसी भी लक्ष्य को वर्तमान शिक्षा प्राप्त करती हुई नहीं दिख रही है। दूसरी तरफ तकनीकी विकास ने शिक्षा के भावात्मक प्रभाव को कम कर दिया है और इस तकनीकी का बच्चों की सृजनशीलता पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है। बहुत से शोध अध्ययन इस तथ्य की पुष्टि भी करते है।

मौलिकता का दूसरा पक्ष हम अपने राष्ट्रीय पाठ्यचर्या-2005 क्या और कैसे पढ़ाया जाए में देख सकते हैं जिसका आरंभ रवीन्द्र नाथ टैगोर के निबंध सभ्यता और प्रगति से होता है जिसमें कविगुरु कहते हैं सृजनात्मकता, उदारता और आनंद यह तो सब बचपन की कुंजी है।

टैगोर के निबंध ‘सभ्यता और प्रगति’ के अंश

जब मैं बच्चा था तो छोटी-छोटी चीज़ों से अपने खिलौने बनाने और अपनी कल्पना में नए-नए खेल ईजाद करने की मुझे पूरी आज़ादी थी। मेरी खुशी में मेरे साथियों का पूरा हिस्सा होता था; बल्कि मेरे खेलों का पूरा मज़ा उनके साथ खेलने पर निर्भर करता था। एक दिन हमारे बचपन के इस स्वर्ग में वयस्कों की बाज़ार-प्रधान दुनिया से एक प्रलोभन ने प्रवेश किया। एक अंग्रेज़ दुकान से खरीदा गया खिलौना हमारे एक साथी को दिया गया; वह कमाल का खिलौना था बड़ा और मानो सजीव। हमारे साथी को उस खिलौने पर घमंड हो गया और अब उसका ध्यान हमारे खेलों में इतना नहीं लगता था; वह उस कीमती चीज़ को बहुत ध्यान से हमारी पहुँच से दूर रखता था, अपनी इस ख़ास वस्तु पर इठलाता हुआ। वह अपने अन्य साथियों से खुद को श्रेष्ठ समझता था क्योंकि उनके खिलौने सस्ते थे।

17TH-OPEDTAGORE1_358123eरवीन्द्र नाथ टैगोर लिखते हैं, “मैं निश्चित तौर पर कह सकता हूँ कि अगर वह इतिहास की आधुनिक भाषा का प्रयोग कर सकता तो वह यही कहता कि वह उस हास्यास्पद रूप से श्रेष्ठ खिलौने का स्वामी होने की हद तक हमसे अधिक सभ्य था। अपनी उत्तेजना में वह एक चीज़ भूल गया वह तथ्य जो उस वक्त उसे बहुत मामूली लगा था कि इस प्रलोभन में एक ऐसी चीज़ खो गई जो उसके खिलौने से कहीं श्रेष्ठ थी, एक श्रेष्ठ और पूर्ण बच्चा। उस खिलौने से महज उसका धन व्यक्त होता था, बच्चे की रचनात्मक ऊर्जा नहीं, न ही उसके खेल में बच्चे का आनंद था और न ही उसके खेल की दुनिया में साथियों को खुला निमंत्रण।”

शिक्षा में ‘मोलिकता’ का सवाल

यह उदाहरण शिक्षा में मौलिकता की नींव रखता है। जिसको हम मौलिकता का दूसरा पक्ष कह सकते हैं, इस पाठ्यचर्या में शिक्षा के कुछ मौलिक उद्देश्यों की चर्चा की गई और समय के अनुकूल शिक्षा को परिभाषित करने का भी प्रयास किया गया जिसमें संवेदनशीलता एवं भावनाओं का इस प्रकार से विकास करना जिससे नई परिस्थितियों का सामना किया जा सके। पूरी दुनिया में बढ़ती विद्वेष और मतभेदों को सुलझाने के लिए नए-तरीकों शांति शिक्षा एवं मूल्य शिक्षा को एक समग्र रूप में परिभाषित करना भी था। इसके साथ ही हम शिक्षा में मौलिकता का पक्ष भी खो दिया जिसमें रचनात्मकता आनंद और स्वतंत्रता तीनों की कल्पना की गई आज शिक्षा ना ही सच्चा आनंद दे पा रही है और न ही वह पूरी तरह से स्वतंत्र है और ना ही रचनात्मकता अर्थात मौलिकता का सृजन कर पा रही है।

आज की शिक्षा हम यूं कहें तो वह अपने मूल उद्देश्य से भटक सी गई है। वह अपने वास्तविक स्वरूप को भूल चुकी है। शिक्षा पूरी तरह से राजनैतिक हस्तक्षेप के अधीन हो चुकी है। नए ज्ञान के सर्जन और मौलिकता जिसको हम नवीनता के रूप में परिभाषित करते हैं जिसको हम ओरिजनलिटी कहते हैं के नाम पर केवल उपलब्ध ज्ञानो की पुनरावृति ही हो रही है। वैश्वीकरण के इस दौर में मानव पूरी तरह से संवेदनहीन हो चुका है यही तो शिक्षा की मौलिकता थी जिसको हमने खो दिया आज हम वास्तविक मनुष्य की कल्पना नहीं कर सकते, वास्तविक शिक्षा के स्वरूप की कल्पना नहीं कर सकते।

हम वैश्वीकरण के विकास का उदारवादी मॉडल अपनाते हुए अपनी शिक्षा की मौलिकता का ह्रास कर बैठे हैं, हमने अपनी कल्पना में जाना छोड़ दिया है, उन भावों को उत्पन्न और महसूस करना छोड़ दिया है जो हमारी विरासत रही है, जिन्होंने सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे संतु निरामया सर्वे भद्राणि पश्यंतु ,की कल्पना की थी हमने इस कल्पना को भी नकार दिया या यूँ कहे की शिक्षा ऐसे व्यक्तियों के सृजन करने में असफल रही।

शिक्षा का वास्तविक स्वरूप और मौलिकता का तत्व

इसके विपरीत हमने शिक्षा को ही बदलना इसके वास्तविक स्वरूप को ही बदलना शुरू कर दिया। हमारी वर्तमान शिक्षा अपने आप को आधुनिकता के अनुरूप ढालने में इस कदर परिवर्तित हुई कि अपना वास्तविक स्वरूप खो दिया। शिक्षा, जो प्रत्येक व्यक्ति के विशिष्ट मौलिक गुणों को तराशने का कार्य किया करती थी आज ऐसे व्यक्तियों का निर्माण करने लगी जिसमें संवेदनशीलता , खुद पर विश्वास का भाव न होना हो जो अपने पास विद्यमान मौलिकता को पहचान ही ना कर पा रहा हो अपने ही शक्तियों को कमजोर मानने की भूल करने लगा हो। यहीं से हम अपने ज्ञान, अपनी मौलिकता को कमजोर मानकर दुनिया की तरफ देखना शुरू कर देते हैं जो दुनिया कभी भारत की तरफ देखा करती थी भारतीय ज्ञान परंपरा को देखा करती थी भारतीय शिक्षा की मौलिकता को देखा करती थी उस दृष्टि को हमने खो दिया आज हमारी शिक्षा पूरी तरह से इस प्रकार की दृष्टि स्थापित करने में असफल है जिससे हम स्वयं का अवलोकन कर अपनी मौलिकता और अपनी गुणों की पहचान कर सकें।

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ज्ञानवान समाज के निर्माण को दिशा देने के लिए पहला कदम मौलिकता है जो अपने आप में एक बुनियादी समाज के निर्माण की परिकल्पना रखता है। मौलिकता की सफलता का एक कदम इस बात पर आधारित होता है कि हम चरित्रवान बने, आडंबर से दूर रहे हैं, सत्य बोले अपने वास्तविक स्वरूप के अनुसार व्यवहार करें यही तो शिक्षा की मौलिकता है,जो आज पूरी तरह से नष्ट हो चुकी है।

हमें पुनर्विचार करना होगा शिक्षा उसके वास्तविक स्वरूप स्थापित करना होगा अब समय आ गया है कि हम अपनी शिक्षा पद्धति के बारे में पुनर्विचार करें और उसे नए सिरे से तराशें, अन्यथा विकास के आधुनिक प्रतिमान में उपभोक्तावादी समाज का निर्माण शिक्षा का लक्ष्य और नवीन ज्ञान एवं मौलिकता शिक्षा से दूर होती जाएगी हमें अपनी शिक्षा प्रणाली को इस मौलिकता के साथ तैयार करना होगा जो हमारे हिसाब और जरूरतों के मुताबिक हो। यहाँ पर यह कहना सार्थक होगा की नक़ल करके सफल होने से उत्कृष्ट है की मौलिकता में असफल हो जाये।

सामान्य बातचीत में मौलिक उस व्यक्ति को कहते हैं जो दूसरों से अलग होता है जो नई पहल या खोज करता है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में उपलब्धि पाने के मौलिकता का रास्ता कठिन तो है लेकिन सवर्दा नवीन का सृजन करता इसलिए हमें मौलिकता को ही अपनाना होगा।

vivek(विवेक नाथ त्रिपाठी लखनऊ के बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर विश्वविद्यालय के शिक्षा विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं। शिक्षा से संबंधित लेख, विश्लेषण और समसामयिक चर्चा के लिए आप एजुकेशन मिरर को फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो कर सकते हैं। एजुकेशन मिरर के यूट्यूब चैनल को सब्सक्राइब करने के लिए यहां क्लिक करें। एजुकेशन मिरर अब टेलीग्राम पर भी उपलब्ध है। यहां क्लिक करके आप सब्सक्राइब कर सकते हैं। एजुकेशन मिरर के लिए अपनी स्टोरी/लेख भेजें Whatsapp: 9076578600 पर, Email: educationmirrors@gmail.com पर।)

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