पुस्तक-अंश: ‘एक देश बारह दुनिया’ से पढ़िए ‘महादेव बस्ती के अनोखे स्कूल की कहानी’
शिरीष खरे की किताब ‘एक देश बारह दुनिया’ राजपाल एंड सन्स, नई-दिल्ली से पिछले दिनों प्रकाशित हुई है। पेशे से पत्रकार शिरीष की इस किताब में सात राज्यों की अलग-अलग जगहों के बहाने भारत के अंदरूनी हिस्सों को समझने के नजरिए से काफी दिलचस्प साबित हो सकती है। किताब में कुल बारह लंबे रिपोर्ताज शामिल किए गए हैं। इन्हीं में से एक लंबे रिपोर्ताज का एक अंश हम साझा कर रहे हैं। इसे साझा करने के पीछे वजह है कि यह अंश शैक्षणिक गतिविधियों से जुड़े साथियों को प्रेरित कर सकता है। इसके अलावा भी किताब में कई रोचक और सच्ची कहानियां शामिल हैं।
तो पढ़िए महाराष्ट्र में महादेव बस्ती के स्कूल से जुड़े रिपोर्ताज का एक शुरुआती हिस्सा, जो देश की आर्थिक राजधानी मुंबई से सैकड़ों किलोमीटर दूर ऐसी जगह पर स्थित है, जहां रिपोर्टर तो दूर पुलिस भी जाने से कतराती है। बावजूद इसके, प्रश्न यह है कि यहां ऐसा क्या हुआ जो महादेव बस्ती में पारधी समुदाय के बच्चे अब सूरज तोड़ना चाहते हैं…
‘‘नन्हे बच्चे जिज्ञासु, खोजी इंसान होते हैं। वे अपनी समस्त इंद्रियों की मदद से दुनिया की अनूठी चीजें तलाशते हैं। वे समग्रता में जीकर सीखते हैं। पर, केवल इतना ही नहीं है। उन्होंने जो कुछ सीखा होता है उसका उपयोग पहले जैसी या नई स्थितियों में करते हैं।’’ -जूलिया वेबर गार्डन
वर्ष 1946 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘माई कंट्री स्कूल डायरी’ में जूलिया वेबर गार्डन ने स्टोनी ग्रोव नाम के गांव की दुर्गम पहाड़ी पर स्थित स्कूल में बतौर शिक्षिका बिताए चार वर्षों के अनुभव साझा किए हैं। उनका अनुभव बताता है कि एक विपन्न ग्रामीण समुदाय अपने स्कूल को सीखने लायक सम्पन्न शैक्षणिक वातावरण में बदल सकता है। कुछ स्कूल बच्चों में बदलाव लाते हैं। लेकिन, ‘माई कंट्री स्कूल डायरी’ में डायरी के रूप में दर्ज एक ऐसी कहानी है जिसमें स्कूल समुदाय में बदलाव लाता है।
इस डायरी में स्कूल सबको आपस में बांध देता है। इसे पढ़ते हुए लगने लगता है कि स्कूल के नाम पर केंद्रीकृत विशालकाय कारखानों की बजाय छोटे स्कूल की जरुरत है। इसमें शिक्षक वह सब कर पाते हैं, जो जूलिया वेबर कर सकीं। इस डायरी को इस उम्मीद के साथ पूरा पढ़ा जा सकता है कि एक दिन सभी बच्चों को अच्छे शिक्षक मिलेंगे।
इसे पढ़ने के बाद मुझे कुछ साल पहले का वह दिन याद आता है। उस दिन की दूरी को याद के सहारे पाटना चाहता हूं। यादों के साथ अच्छी बात यह कि इन्हें किलोमीटर से नहीं नापा जाता। नहीं तो होता यह कि उस दिन में लौटने के लिए मुझे ट्रैन, बस, जीप, मोटर-साइकिल या साइकिल के बूते अपनी मंजिल तय करने के लिए पता नहीं कितने दिन लग जाते। यादों में पीछे लौटना ज्यादा मुश्किल नहीं होता। और फिर किसी जगह से होकर जाने की कोई मजबूरी भी नहीं।
एक पैडल मारा नहीं कि पहुंच गए किसी तारीख की उस मनचाही जगह पर जिसकी तारीख भले ही ठीक-ठीक याद न हो लेकिन वह दिन यादों में नजरबंद रहता है। यादों की यात्रा होती है या वह खुद सहयात्री होती हैं जो अक्सर किसी भी अंतराल में अनायास लौट आती हैं।
तो मैं इसी उम्र साल 2010 में दिसंबर की पहली तारीख में लौट रहा हूं, गए और इन दिनों के बीच के उस विशेष दिन और दुनिया में, जहां मुंबई सड़क मार्ग से कोई दो सौ किलोमीटर पार जीवन की गति एकदम उलट है। उस्मानाबाद जिले की जिस जगह पुलिस और पत्रकार तभी रुख करते हैं जब आसपास में चोरी जैसी आपराधिक घटना घटती है। लेकिन, वहां मेरे जाने का कारण दूसरा था और वहां मैं अकेला कहीं पहुंच ही नहीं सकता था, वहां दूरस्थ, दुर्गम तथा पहाड़ी अंचल की ओट में पहुंचकर यह जान ही नहीं सकता था कि उम्मीद की कोई घनी बस्ती होगी और पेड़ों की झुरमुट से झांकता हुआ मुझे परिवर्तन का छोटा लेकिन पक्का भवन दिखाई देगा…
तीन लड़कियां स्कूल लगने के एक घंटे पहले ही पहुंच गईं। स्कूल की सीढ़ी पर बैठी एक लड़की ऊंची आवाज में किताब पढ़ रही है। उसके नीचे वाली सीढ़ी पर बैठीं दो लड़कियां पहली लड़की की बातों को सुन अपनी-अपनी कॉपी में कुछ नोट कर रही हैं। तीनों ऐसी तल्लीन हैं कि उन्हें नहीं पता उनके नजदीक क्या हो रहा है! उनके नजदीक खड़े हम सब बड़े ध्यान से यह दृश्य देख रहे हैं।
फिर संजय तांबारे ने चुप्पी तोड़ी और तीनों से उनके नाम बताने को कहा तो सबका ध्यान टूटा। किताब पढ़ने वाली लड़की ने बेझिझक जवाब दिया- ललिता। बाकी दोनों लड़कियों ने खड़े होकर उसी आत्मविश्वास से अपने-अपने नाम बताएं। एक ने वैशाली तो दूसरी ने अपना नाम सीमा बताया। सीमा ने सुबह-सुबह प्यारी मुस्कान बिखेरते हुए यह भी बताया कि वे तीनों तीसरी में पढ़ रही हैं। शिक्षक संजय तांबारे और ‘लोकहित सामाजिक विकास संस्था’ के कार्यकर्ता विनायक तौर को तो ये लड़कियां जानती ही हैं। रहा मैं, तो मैंने भी अपना परिचय दिया।
इस स्कूल की जब मैंने पूरी कहानी जानी तो समझ आया कि शुरू में अति-साधारण लगने वाला पहला दृश्य वाकई कितना दुर्लभ है! यह स्कूल है- महादेव बस्ती का। स्थानीय रहवासियों के लिए महादेव बस्ती का यह स्कूल किसी अचरज से कम नहीं। इसकी वजह है।
असल में जिस बस्ती की हम बात कर रहे हैं वह पारधी जनजाति की है। पारधी का अर्थ है शिकार करने वाला। किंतु, अंग्रेजों के बनाए एक कानून ने इनके माथे पर ऐसा दाग दिया है जिसके कारण यह आज तक जातीय पूर्वाग्रह, पुलिसिया प्रवृति, प्रणालीगत शोषण और अभावग्रस्त जीवन की कैद में हैं। मिथकीय इतिहास के चक्के पर अपनी पहचान की तलाश में घूमती यह जनजाति पारंपरिक जमीन के निरंतर छिनते जाने के कारण गुमनामी के अंतिम छोर तक पहुंच चुकी है।
इस छोर का एक सिरा वर्ष 1871 के ‘आपराधिक जनजाति अधिनियम’ से जुड़ा है जिसमें अंग्रेजों ने सैकड़ों जनजातियों को अपराधी की श्रेणी में रख दिया था। अंग्रेजों ने ऐसी जनजातियों का दमन करने के लिए पुलिस को विशेष अधिकार दिए थे। पारधी उन्हीं में से एक जनजाति है।
दूसरी तरफ, जानकारों का मानना है कि राजा के यहां पारधी शिकार-विशेषज्ञ या सुरक्षा-सलाहकार होता था। जैसे, राजा कहता कि मुझे शेर पर सवार होना है तो पारधी शेर को पकड़ता और उसे पालतू बनाता। एक तो शेर को जिंदा पकड़ना ही बेहद मुश्किल और फिर उसके बाद उसे पालतू बनाना तो और भी मुश्किल। बताते हैं कि कई राजा अंग्रेजों के खिलाफ यृद्ध में हार गए तब भी पारधियों ने अंत तक अंग्रेजों से हार नहीं मानीं और वे अंग्रेजों के खिलाफ उग्र प्रतिक्रियाएं देते रहे। इस दौरान उन्होंने कई छापामार लड़ाइयां लड़ीं।
तंग आकर अंग्रेजों ने इन्हें ‘अपराधी’ घोषित कर दिया। भारत आजाद हुआ तो वर्ष 1952 में अंग्रेजों का बनाया वह काला कानून समाप्त हो गया। इसके बाद पारधी को ‘अपराधी’ की जगह ‘विमुक्त’ जनजाति का दर्जा मिला। किंतु, अंग्रेजों के जाने के बाद भी धारणाएं नहीं मिटी। लिहाजा, मराठवाड़ा के इन इलाकों में जब भी कोई अपराध होता है तो पुलिस सबसे पहले पारधी जनजाति के लोगों को तलाशने इनकी बस्तियों में छापा मारती है।
सच्चाई यह है कि कथाओं से भरे इस विशाल देश में पारधी जनजाति की गौरवगाथा लिखना अभी बाकी है, किंतु सच्चाई यह भी है कि सैकड़ों साल पीड़ा के अंतहीन थपेड़ों को सहन करने वाली पारधी जनजाति आज अपने अस्त्तिव की लड़ाई लड़ रही है।
नतीजा, पारधी बस्तियां गांव से कोसों दूर जंगलों में रहती हैं। जैसे कि यह बस्ती जहां हम हैं। कोई सड़क इस तरफ नहीं आती। न ही सरकार की कोई योजना यहां तक पहुंचती है। न बिजली, न पानी, न राशन और न ही स्वास्थ्य की ही कोई सुविधा है। यहां तक कि आसपास कोई गांव भी नहीं है।
ऐसे में इस बस्ती में स्कूल होना एक मिसाल है। लिहाजा, स्थानीय लोग कहते हैं कि आजादी के कई सालों बाद सरकार ने इन्हें एकमात्र सुविधा दी है और यह सुविधा है- महादेव बस्ती का यह स्कूल।
इस स्कूल की विशेषता इसकी विपन्नता के बीच मौजूद है। यह स्कूल महाराष्ट्र के आदर्श स्कूलों में गिना जाता है। यहां कुछ साल से बच्चों की शत-प्रतिशत हाजिरी हो रही है, सफलता का शत-प्रतिशत परीक्षा-परिणाम आ रहा है, लेकिन अहम बात यह है कि इन्हें गतिविधियों के जरिए इन्हें अच्छे संवैधानिक नागरिक बनाने की कोशिश चल रही है।
महादेव बस्ती की पूरी कहानी और ऐसी ही बारह तरह की अलग-अलग जगहों से जुड़े असल किस्सों को जानने के लिए ‘एक देश बारह दुनिया’ जरूर पढ़ी जानी चाहिए। सामाजिक और शैक्षणिक सरोकारों से संबंधित यह किताब अमेजॉन पर भी उपलब्ध है:
पुस्तक के बारे में
देश के उपेक्षित लोगों की आवाजों को तवज्जो
पिछले कुछ वर्षों में हमारे शहरों और दूरदराज के गांवों के बीच भौतिक अवरोध तेजी से मिट रहे हैं, तब एक सामान्य चेतना में गांव और गरीबों के लिए सिकुड़ती जा रही है। ऐसे में एक ग्रामीण पत्रकार शिरीष खरे की ‘राजपाल एंड सन्स, नई दिल्ली’ से ‘एक देश बारह दुनिया’ में देश के बारह जगहों के उपेक्षित लोगों की आवाजों को तरहीज दी गई है। इसमें लेखक ने सांख्यिकी आंकड़ों के विशाल ढेर में छिपे आम भारतीयों के असली चेहरों पर रोशनी डाली गई है। पुस्तक में देश के सात राज्यों के कुल बारह रिपोर्ताज शामिल किए गए हैं, जो वर्ष 2008 से 2017 तक की अवधि में भारत की आत्मा कहे जाने वाले गांवों से जुड़े अनुभवों को साझा किया गया है।
इस दौरान महाराष्ट्र में कोरकू जनजाति और तिरमली व सैय्यद मदारी जैसी घुमन्तु या अर्ध-घुमन्तु समुदाय बहुल क्षेत्रों, मुंबई, सूरत जैसे बड़े शहरों में बहुविस्थापन की मार झेलनी वाली बस्तियों, नर्मदा जैसी बड़ी और सुंदर नदी पर आए नए तरह के संकटों के अलावा छत्तीसगढ़ और छत्तीसगढ़ के बस्तर, राजस्थान के थार और मराठवाड़ा के संकटग्रस्त गांवों के बारे में विस्तार से विवरण रखे गए हैं। लेखक अपनी प्रस्तावना में लिखते हैं कि उन्होंने अधिकांश पात्र और स्थानों के नाम ज्यों के त्यों रखे हैं।
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