सर्वे पर आधारित लेख: कोविड-19 के दौर में ऑनलाइन पढ़ाई की ज़मीनी वास्तविकता क्या थी?
अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के छात्रों की एक टीम ने तीन राज्य बिहार, झारखण्ड और उत्तर प्रदेश में एक सर्वेक्षण किया जिसका लक्ष्य ग्रामीण क्षेत्रों में लॉकडाउन के दौरान शिक्षा पर पड़ने वाले प्रभाव को समझना था। यह सर्वेक्षण पिछले वर्ष अगस्त और सितम्बर माह के दौरान किया गया था। इस सर्वेक्षण में 1400 से अधिक बच्चे और उनके अभिभावक सम्मिलित हुए। इस सर्वे के प्रमुख बिंदु इस प्रकार हैं:
- कक्षा 6 से 8 के बीच हर तीसरे बच्चे को हिंदी पढ़ने में समस्या हुई।
- निज़ी विद्यालय में भी पढ़ने वाले 77 फ़ीसदी छात्र हिंदी नहीं पढ़ पा रहे थे।
- मोबाइल होते हुए भी 50 फ़ीसदी घरों में रिचार्ज न होने की वजह से नहीं हो सकी ऑनलाइन पढ़ाई।
- 98 % बच्चों के अभिभावक चाहते हैं कि स्कूल खुले रहे।
- तीसरी से पांचवीं के मात्र एक चौथाई बच्चे हिंदी के कुछ अक्षर पढ़ पा रहे थे।
- कहीं विद्यालय एक कमरे तक सीमित विद्यालय, तो कहीं पर शौचालय नहीं।

आंकड़ों के प्रस्तुतिकरण के लिए यह ग्राफ प्रियंका कौशल ने बनाया है।
कई अख़बारों में छपा था कि सरकार ने रिकॉर्ड स्तर पर शौचालय बनाये हैं, कई जगहों पर शौचालय बनते भी दिखाए गए थे। बीते साल के आंकड़ों में उन गाँवो की संख्या में तेजी से वृद्धि भी आयी है जिन्हें खुले में शौचमुक्त (open defecation free) गांव का दर्जा दिया गया है। गोंडा ज़िले के बेलहरी बुज़ुर्ग नामक गाँव में सरकारी प्राथमिक विद्यालय पर पहुंचने पर पाता चला कि वहां शौचालय ही नहीं था। विद्यालयों में शौचालय का न होना बहुत सी समस्याओं को उत्पन्न करता है। ऐसे में सुबह से शाम तक बच्चों, शिक्षक एवं शिक्षिकाओं का विद्यालय में रुक पाना कठिन होता है और तमाम स्वास्थ्य-सम्बन्धी समस्याएँ जन्म लेती हैं।
अपनी टीम के साथ गाँव के अंदर चलते हुए अदम गोंडवी की मशहूर पंक्तियाँ याद आ गयी, जिसमें उन्होंने लिखा है “तुम्हारी फाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है, मगर ये आंकड़े झूठे हैं, ये दावा किताबी है” हम गांव में और अंदर जाते हैं, लोगों से बात-चीत करना शुरू करते हैं तो शिक्षा से जुड़ी कई रोचक बातें निकल कर सामने आयी।
हमारे सर्वेक्षण के आकड़ों के हिसाब से मात्र तीन फीसदी छात्र ऐसे थे जो अपनी शिक्षा ऑनलाइन तरीके से जारी रख पाए। जो ऑनलाइन माध्यम से पढ़ाई कर रहे थे उनमें से लगभग 80 फीसदी ने नेटवर्क की समस्या का सामना किया। कहीं न कहीं शिक्षा उन्हीं छात्रों की जारी रह पायी जिनके परिवार में कोई उनको पढ़ाने वाला था या जिनका परिवार उनको निजी (प्राइवेट) ट्यूशन भेजने में सक्षम था। विडम्बना इस बात की नहीं है कि ये विशेष वर्ग तक सीमित थे बल्कि इस बात की है कि इस दौरान लोगों को न तो स्कूल का पता था न ही शिक्षक का।
हमारी टीम ने ज़मीनी हकीकत टटोलने के दौरान शिक्षा व्यवस्था में कुछ ढाँचागत समस्याओं का सामना भी किया। यदि हम बात करें जब चरण १ का लॉकडाउन किया गया तो उस व्यक्त कक्षा ३ में पढ़ रहा बच्चा अब कक्षा ५ में है। शिक्षकों से बात कर के हमें मालूम हुआ कि यदि वह छात्र कक्षा ३ या कक्षा ४ में दाखिला लेना चाहे तो वो नहीं ले सकता। दरअसल जो स्कूल सिर्फ पाँचवीं तक थे वहा पर जब दो साल के अंतराल के बाद बच्चा पढ़ने के लिए स्कूल पहुँचता है तो उसे विद्यालय टीसी (स्थांतरण पत्र) थमा देता है। जब डिस्टेंस लर्निंग के तरीके पूरी तरह से विफल साबित होते नज़र आ रहे हैं, ऐसी स्थिति में बच्चे को दोबारा से लर्निंग गैप को सुधारने का अवसर न देना अपने आप में ढाँचा गत समस्याओं की तरफ इशारा करता है।
अब जब दोबारा कोविड महामारी की वजह से पहले जैसे स्थिति उत्पन्न हो रही है तो हमें ठहर कर विचार करना होगा। यदि हम दोबारा से विद्यालय को पहले जैसा बंद करते हैं तो शायद हमने महामारी की बीते हुए चरणों से कुछ नहीं सीखा। बच्चे देश के भविष्य हैं, हम उनके भविष्य के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते। हमें प्रभावी कदम उठाने होंगे जिससे बच्चें पुनः विद्यालय में आ सके और बिना किसी बाधा के अपनी पढ़ाई ज़ारी रख सके। हमारी टीम को मिले आकड़े बताते है कि 98% बच्चों के अभिभावक चाहते हैं कि स्कूल खुले रहे।
‘अब मुझे स्कूल जाने से डर लगता है’, ‘मैं अब स्कूल नहीं जाना चाहता/चाहती’ ये वाक्य अपने आप में एक अनकही, अनसुनी गुत्थी कह रहा है। शायद इसमें एक दर्द और वेदना है जो यह कहना चाहती है कि मैं आज भी स्कूल जाना चाहता/चाहती हूँ। लेकिन यह डर कोई साधारण डर नहीं है। यह डर इस बात की तरफ इशारा करता है कि अभी तक मैंने जो कुछ भी स्कूल में पढ़ा और सीखा था उसका शायद ही कोई हिस्सा मुझे याद है। हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि पाश की पंक्तिया याद आ जाती है जिसमे वो कहते है ‘सबसे ख़तरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना’।
(लेखक: अविनाश सोनी और अवनीश सिंह, छात्र अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय, बैंगलोर। यह सर्वेक्षण प्रोफेसर अंजोर भास्कर और प्रोफेसर ज्यां द्रेज़ के नेतृत्व में किया गया था।)
अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन को इस पर भी रिसर्च करना चाहिए जहां वे काम कर रहे हैं वहां शिक्षा कितनी सुधार पाएं हैं, जमीनी और पाताली हकीकत पता लगेगी