पहली कक्षा में भाषा कालांश और पुस्तकालय का समन्वय कैसे करें?
डायरी के यह पन्ने वर्ष 2016 के दौरान लिखे गए थे, जब निपुण भारत मिशन और राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 भविष्य का विषय थे। कक्षा-कक्ष में शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया में होने वाले बदलाव के इन प्रयासों को सफलता भी मिली और शिक्षकों के सहयोग के बिना यह संभव नहीं था, इस बात का उल्लेख करना बेहद जरूरी है। यह लेख पहली कक्षा के बच्चों के साथ भाषा कालांश के शिक्षण के बाद होने वाली बातचीत और पुस्तकालय के अनुभवों पर आधारित है।
राजस्थान में एक आकांक्षी जनपद है सिरोही। यह अनुभव वहाँ के एक विकास खण्ड के आदिवासी अंचल में स्थित विद्यालय में पढ़ने वाले बच्चों से संबंधित हैं। पहली कक्षा के बच्चे जिनके घर की भाषा गरासिया है, वे पुस्तकालय में किताबों के ऊपर होने वाली चर्चा में हिंदी के वाक्य बनाकर अपनी बातचीत साझा कर रहे थे। बच्चे किताब में बने चित्रों को देखकर बता रहे थे कि क्या हो रहा है? जैसे एक कहानी के कवर पेज पर बने चित्र में बंदर खेत में दवाई का छिड़काव कर रहा है, एक बच्चे ने उस चित्र को देखकर कहा, “बंदर दवाई सोंट रहा है।” यह किसी बच्चे द्वारा कक्षा-कक्ष में शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया में बच्चे द्वारा बोला जाने वाला पहला वाक्य था, जो मेरे अवलोकन में आया। इस क्षेत्र में बच्चों द्वारा कक्षा-कक्ष में दिये जाने वाले निर्देशों को समझने में भाषा के कारण काफी चुनौती पेश आ रही थी। इसके लिए मैंने बाल गीत, कविताओं, चित्रों पर चर्चा और कहानियों भरपूर उपयोग किया। बच्चों के साथ शिक्षकों के और स्वयं मेरे जुड़ाव ने इस काम को काफी हद तक सुगम बना दिया।
उपरोक्त संदर्भ में कहानी के कवर पेज़ पर चर्चा के दौरान बच्चे के द्वारा इस्तेमाल किये गये इस वाक्य की संरचना हिन्दी भाषा की है। यहाँ अभिव्यक्ति के अंदाज से पता चलता है कि बच्चे किताब में बने चित्रों को अपने वास्तविक जीवन के अनुभवों से जोड़ पा रहे थे। बच्चों का परिवेश और संदर्भ अपनी जीवंतता के साथ कक्षा-कक्ष में होने वाली चर्चा में शामिल हो ऐसे प्रयासों का सीधा लाभ हमें मिलता है। यह प्रयास मौखिक भाषा विकास को भी समृद्ध बनाने में मदद करता है जो भाषा के अन्य कौशलों को विकसित करने और अंततः समझ के साथ पढ़ना सीखने में मदद करता है। मौखिक भाषा विकास के साथ-साथ बच्चों के साथ ध्वनि जागरूकता, डिकोडिंग, शब्द पठन, डिकोडेबल पाठ के माध्यम से धारा प्रवाह पठन और समझ के साथ पढ़ने की रणनीतियों पर केंद्रित था। इसके साथ ही साथ इन बच्चों को पुस्तकालय से किताबों के लेन-देन करने और शुरूआती पठन स्तर वाली किताबों के साथ समय बिताने का पर्याप्त अवसर मिला, इसका भी असर बच्चों के सीखने पर प्रत्यक्ष रूप से दिखाई पड़ रहा था। एक बेहद जरूरी बात कि इस प्रक्रिया में बच्चों के साथ स्कैपफोल्डिंग वाली प्रक्रिया का उपयोग किया जा रहा था, इससे जिम्मेदारी के क्रमिक हस्तांतरण की प्रक्रिया स्वाभाविक रूप से हो रही थी।
पुस्तकालय यानि भाषा की प्रयोगशाला
एक पुस्तकालय को भाषा की लैब के तौर पर देखा जा सकता है। इस लैब में क्या-क्या हो सकता है? यह विषय ग़ौर करने का है। पहली क्लास के बच्चों से पुस्तकालय में होने वाली बातचीत से बहुत सारी चीज़ों को प्रत्यक्ष रूप से देखने का मौका मिला। क्लास में बच्चों की आपस में विभिन्न टॉपिक पर होने वाली बातचीत की आवाज़ सुनाई दे रही थी। वे कहानियों और उनमें बने चित्रों पर चर्चा कर रहे थे। इससे जुड़े सवालों के जवाब दे रहे थे। कक्षा में बच्चों के साथ चर्चा के लिए सहज और भयमुक्त वातावरण रहे, इस बात का पूरा ध्यान रखा गया। बच्चों के बीच मेरी और शिक्षक की मौजूदगी एक सुगमकर्ता (या फैसिलिटेटर) वाली ही थी। बच्चे स्वतंत्रता के साथ पूरे पुस्तकालय में घूम रहे थे और अपनी पसंद से किताबें खोज रहे थे। एक के बाद दूसरी किताब उठा रहे थे।
पुस्तकालय की दीवार पर एक कहानी के चित्र बने हुए थे, पहली कक्षा का एक बच्चा वही कहानी खोजकर दिखाने के लिए लेकर लाया। इसके ऊपर 4-5 बच्चों के एक छोटे से समूह में बात हो रही थी। जो बच्चा वह किताब लेकर आया था वह बाकी बच्चों को ख़ुशी के साथ दीवार पर बने चित्रों की तरफ संकेत करके बता रहा था कि देखो, यह वही किताब है जिसके चित्र दीवार पर बने हैं, कुछ खोज लेने वाली जिज्ञासा का भाव बच्चे के चेहरे पर साफ पढ़ा जा सकता था। यह दृश्य मुझे ‘कॉस्ट अवे’ फिल्म के उस दृश्य की याद दिला रहा था जिसमें समुद्र के एक टापू पर फंसा व्यक्ति पहली बार आग जलाते हुए ख़ुश होता है और कहता है कि देखो! मैंने क्या कर दिया है? उसी अंदाज में बच्चा कह रहा था, “देखो, मैंने कौन सी किताब खोजी? तुम भी देखो इसे।” इसके बाद वह किताब बाकी बच्चों के हाथों में पहुंची। कोई उसे अकेले देख रहा था। कोई बच्चा बाकी बच्चों के साथ मिलकर उस किताब के पन्नों को पलटते हुए, दीवार पर बने चित्रों से मिलान कर रहा था। यह सारी चीज़ें स्वाभाविक रूप से हो रही थीं,जो सीखने के लिए एक बेहतर माहौल और सहयोगी वातावरण के महत्व के रेखांकित करती हैं।
संवाद का प्रक्रिया में सभी बच्चों की सक्रिय भागीदारी
इस प्रक्रिया में एक बच्ची जिसकी भाषा कालांश के दौरान आमतौर पर बेहद कम भागीदारी होती है, वह भी एक किताब लेकर देख रही थी। पढ़ने का अभिनय कर रही थी और किताब में बने चित्रों पर अंगुली रख रही थी। ऐसा लग रहा था कि वह चीज़ों को अलग-अलग देखने का प्रयास कर रही है। यह उस कक्षा के बच्चों के संदर्भ में ऐसा लम्हा था, जहां बच्चों की भागीदारी का स्तर अपने शीर्ष पर था। किसी भी कक्षा के लिए ऐसी स्थिति एक बेहद आदर्श स्थिति मानी जाती है। हर शिक्षक की हसरत होती है कि उसके कक्षा में शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया में ऐसी स्थिति बने। बतौर शिक्षक-प्रशिक्षक ऐसी स्थिति को एक क्लास में देखना उस किताबी सिद्धांत को सामने जीवंत देखने जैसा था, जिसमें क्लास के सभी बच्चों की भागीदारी सुनश्चित करने और उसके महत्व पर ग़ौर करने की बात होती है।
बच्चों से जो सवाल पूछे गये? कक्षा में बंदर का चित्र कहाँ है? इस सवाल के जवाब में ज्यादातर बच्चे हाथों के इशारे से बता रहे थे कि बंदर वहां है? इससे जाहिर है कि वे निर्देशों को समझ पा रहे थे। कितने बंदर हैं? इस सवाल का जवाब उन्होंने दिया। कितनी चिड़िया हैं? इस सवाल के जवाब में बच्चे दीवार पर बने चित्रों में चिड़िया को गिन रहे थे? उनके लिए वे सारी चिड़ियां अलग-अलग थीं। हालांकि कहानी के अनुसार वह चिड़िया एक ही थी। चिड़िया क्या कर रही है? पानी में जा रही है। पत्ता लेकर आ रही है, जैसे जवाब बच्चों ने दिये। मछली का क्या करते हैं? इस सवाल के जवाब में बच्चों ने कहा, “खाते हैं।” मछली कितनी बड़ी होती है? इस सवाल का जवाब उन्होंने दिया। मछली का बच्चा कितना बड़ा होता है? इस सवाल के जवाब में उन्होंने अपनी अंगुलियों के माध्यम से संकेत करके जवाब दिया। इससे साफ जाहिर था कि उन बच्चों ने मछली देखी है। वे मछली और मछली के बच्चे के आकार में अंतर को बहुत अच्छे से समझ पा रहे हैं। यानि छोटे-बड़े की अवधारणा से भली-भांति परिचित हैं।
पढ़ने की आदत के लिए किताबों का लेन-देन जरूरी
इसी दौरान तीसरी कक्षा के कुछ बच्चे पुस्तकालय में किताब इश्यु करवाने के लिए आये थे क्योंकि जिस दिन बाकी बच्चों को किताब मिली थी। उस दिन वे स्कूल नहीं आये। इस माहौल में बच्चों से बातचीत के बाद लगा कि छोटे बच्चों को किताब न देना तो उनको पढ़ना सीखने के होने वाली तैयारी का पूरा मौका देने से वंचित करना है। क्योंकि छोटे बच्चों का किताबों से परिचित होने और उनके साथ दोस्ती करने का मौका देने वाला सबसे अच्छा अवसर होता है। अगर इस उम्र में उनका किताबों से जुड़ाव हो गया और उन्होंने पढ़ना सीख लिया तो किताबों के साथ उनका रिश्ता आजीवन जुड़ा रहता है और वे स्वतंत्र पाठक बनने की दिशा में अग्रसर हो जाते हैं।
सबसे ख़ास बात कि बच्चे कहानी सुनने में, कविता सुनने में, किताब से पढ़े गये पाठ को दोहराने में पूरा रस ले रहे थे। बड़े उत्साह के साथ भागीदारी कर रहे थे। वे बोर्ड पर लिखी एक छोटी सी कहानी को पढ़ने का प्रयास कर रहे थे। इस दौरान अनुमान भी लगा रहे थे। इस तरह से पढ़ने के दौरान धाराप्रवाह तरीके से पढ़ने के ऊपर फोकस किया गया। एक-दो प्रयासों के बाद बच्चे धाराप्रवाह ढंग से किसी पाठ को पढ़ने की कोशिश में सफलता हासिल कर पा रहे थे। एक बच्चे ने सबसे आख़िर में पढ़ा, उसका आत्मविश्वास और धाराप्रवाह पठन की कोशिश हमारे मन को छू गई। इस दौरान धाराप्रवाह तरीके से पढ़ने और समझ बनाने के बीच का रिश्ता बहुत स्पष्टता के साथ हमारे सामने खुल रहा था। किसी वाक्य के दो-तीन शब्दों को एक साथ बोलने वाली कोशिश बच्चों को अर्थ के करीब पहुंचने और उसे छूने का निमंत्रण देती सी प्रतीत हो रही थी।
जब ‘बच्चों की भाषा और अध्यापक’ किताब के पन्ने जीवंत हो उठे
यहां बच्चों की ‘भाषा और अध्यापक’ किताब के बहुत से पन्ने हमारी आँखों के सामने जीवंत हो उठे थे। कक्षा में पूछे जाने वाले सवालों का जवाब बच्चे अपनी अनुमान लगाने की क्षमता और कल्पना का सहारा लेकर दे रहे थे। बहुभाषिकता की मौजूदगी निश्चित तौर पर कक्षा में होने वाली संवाद की प्रक्रिया में थी। मेरे लिए बच्चों के स्कूल की भाषा और होम लैंग्वेज के बीच भेदभाव करने जैसी कोई बात हमारे मन में नहीं थी। बच्चे जवाब दे रहे हैं। उसके लिए अपने शब्द भंडार का इस्तेमाल कर रहे हैं, हमारे लिए यही बहुत था। वे स्कूल की भाषा में ही जवाब दें। हमारी बच्चों से ऐसी कोई अपेक्षा नहीं थी। पहली कक्षा के बच्चे वाक्य बोलने की दिशा में आगे बढ़ते हुए नज़र आ रहे थे। उनके साथ भाषा कालांश में होने वाले काम की प्रगति साफ़-साफ़ दिखाई दे रही थी। कुछ बच्चे बोर्ड पर लिखी हुई सामग्री पढ़ रहे थे। बाकी बच्चे क्लासरूम में लगे पोस्टर में से पहचाने से शब्दों को पढ़ रहे थे। इसके बारे में सवाल किया गया कि बच्चों को पोस्टर वाली सामग्री पहले से रटा दी गई होगी? ऐसे में मुझे ध्यान आया कि बच्चे किसी क्रमबद्धता की बजाय उनको जो चीज़ समझ में आ रही थी, वही पढ़ने की कोशिश कर रहे थे, इससे लगा कि वे रटकर नहीं, बल्कि चीज़ों को समझकर पढ़ने का प्रयास कर रहे थे। क्योंकि वे शब्दों को पढ़ना अच्छी तरह सीख गये हैं। नये शब्दों को पढ़ने की कोशिश, उनके रोज़मर्रा के अनुभव का हिस्सा है।
पुस्तकालय में प्रिंट रिच माहौल का होना बेहद जरूरी है क्योंकि बच्चों का ध्यान ऐसी रंग-बिरंगी चीज़ों की तरफ स्वतः जाता है। वे चीज़ों को छूकर देखने की कोशिश करते हैं। उनको उलट-पुलटकर देखना चाहते हैं। एक बच्ची मछली की तस्वीर लेकर आई थी, जो उसनें किताब से निकाली थी। जब उससे कहा गया कि किताब को संभालकर रखना है तो उसने मछली के उस चित्र को अपने स्कूल बैग में रख लिया। ऐसे दृश्य से भी हमारा सामना वास्तविक स्थिति में होता है, लेकिन एक जीवंत माहौल में ऐसी सहजता की गुंजाइश होनी ही चाहिए। ऐसे माहौल की कल्पना आप ऐसे परिवेश में नहीं कर सकते, जहाँ बच्चे के ऊपर अविश्वास का भाव है कि अगर बच्चों को घर के लिए किताबें दी गईं तो बच्चे फाड़ देंगे। पहली कक्षा के बच्चे तो पढ़ना ही नहीं जानते हैं, उनको किताब देने का क्या फायदा? कुल मिलाकर पुस्तकालय को जीवंत बनाने के लिए हमें अपने सोचने और चीज़ों को देखने के तरीके में भी बदलाव करने की जरूरत है तभी हम भाषा कालांश में होने वाली मेहनत को सार्थकता दे पाएंगे और बच्चों को समझ के साथ पढ़ना सीखने की यात्रा में आगे बढ़ा पाएंगे।
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