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21वीं सदी की प्राथमिक पाठशाला को कैसे बनाएं मस्ती की पाठशाला?

किताब पढ़ते बच्चेसरकारी स्कूल किसी समाज की वास्तविक स्थिति का आईना होते हैं। वे बताते हैं कि समुदाय के लोग शिक्षा के बारे में क्या सोचते हैं? उनके लिए बच्चों की पढ़ाई कितना मायने रखती है? भारत के बहुत से राज्यों में सरकारी स्कूलों का सीधा मुकाबला निजी स्कूलों से हैं। क्योंकि सरकारी स्कूलों के बच्चे पढ़ने के लिए निजी स्कूलों में जा रहे हैं। उत्तर प्रदेश में तो सरकारी स्कूलों की हालत काफी खस्ता है। वहां अभिभावक अपने बच्चे को किसी खराब निजी स्कूल में भेजने को सरकारी स्कूल में भेजने से ज्यादा प्राथमिकता देते हैं। वहीं राजस्थान की अगर बात करें तो स्थिति संक्रमण काल वाली नज़र आती है। सरकारी स्कूल निजी स्कूलों को बराबर की टक्कर दे रहे हैं।

कुछ क्षेत्रों में तो सालों तक कोई निजी स्कूल इसलिए स्थापित नहीं हो पाया क्योंकि समाज के लोगों का भरोसा सरकारी स्कूलों पर कायम था। वे अपने बच्चों को यहां पढ़ने के लिए भेजते और शिक्षकों के पढ़ाने की क्षमता पर भरोसा करते थे। मगर अब स्थिति थोड़ी बदलने लगी है। मगर सरकारी स्कूलों का दबदबा थोड़ा कमज़ोर हो रहा है क्योंकि शिक्षकों के पास बहुत से बहाने हैं और वास्तविक कारण भी कक्षा में न जाने और बच्चों को न पढ़ा पाने के। कागजी काम बहुत से कारणों के कारण बढ़ गये हैं। इसके कारण शिक्षक पढ़ाने से भी ज्यादा महत्व अपनी नौकरी बचाने वाली कागजी कार्रवाई को पूरा करने के लिए दे रहे हैं।

वहीं ऐसे शिक्षकों का अभाव नहीं है। जिनके लिए बच्चों को पढ़ाने से ज्यादा जरूरी स्कूल से अपने कारोबार को चलाना है। ऐसे में बच्चों की क्या पढ़ाई होती होगी, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। शिक्षक जब मजदूरों की सप्लाई का ठेका लेने वाला काम करने लग जाएं तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि स्कूल आने वाले बच्चों को वे किस नज़र और नजरिये से देखते हैं। यह बात सभी शिक्षकों के संदर्भ में नहीं है, मगर यह एक संकेते जरूर है कि शिक्षा के क्षेत्र में कैसी-कैसी स्थिति सामने आ रही है। जिसके समाधान के लिए भविष्य में कोई न कोई रास्ता खोजना होगा।

उपरोक्त बातों को इस संदर्भ में समझने का प्रयास किया जा सकता है कि अगर हम स्कूलों को और ख़ासतौर पर सरकारी स्कूलों को मस्ती की पाठशाला में तब्दील करना चाहते हैं तो वहां क्या-क्या होना चाहिए। इस बिंदु पर एक नज़र दौड़ाते हैं –

  1. पहली कक्षा में 6 से कम उम्र के किसी बच्चे का नामांकन नहीं होना चाहिए। स्कूल में बच्चों को अपने घर की भाषा का इस्तेमाल करने और उस भाषा में जवाब देने की अनुमति होनी चाहिए। वास्तव में उसे बोलने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। किसी बच्चे के साथ भेदभाव किये बग़ैर सबको साथ लेकर चलने का प्रयास एक शिक्षक को करना चाहिए।
  2. मध्याह्न भोजन योजना के कारण किसी ऐसे बच्चे की उपस्थिति दर्ज़ नहीं करनी चाहिए जो स्कूल में उपस्थित न हो। क्योंकि इससे शिक्षक ही सवालों के घेरे में खड़ा होता है कि रोज़ाना स्कूल आने वाला बच्चा क्यों नहीं सीख रहा है।
  3. बच्चों की क्लास किसी भी कागजी काम के कारण बाधित न हो। अगर किसी जरूरी व्यस्तता के कारण ऐसा होता है तो बच्चों को क्लास में करने के लिए कोई उपयोगी काम दें। जिससे उनको पुनरावृत्ति और तैयारी का मौका मिले।
  4. हर शिक्षक इस बात का ध्यान रखे कि पहली कक्षा में प्रवेश लेने वाला कोई भी बच्चा बग़ैर पढ़ना-लिखना सीखे स्कूल न छोड़े या स्कूल से पास होकर नौंवी में एडमीशन न ले। क्योंकि ऐसे बच्चे के पढ़ाई की वैलिडिटी सिर्फ़ एक साल होती है। एक साल उस बच्चे के साथ जो होगा, उसके लिए काफी हद तक आठवीं की पढ़ाई को जिम्मेदारी माना जाएगा।
  5. प्राथमिक शिक्षा की पढ़ाई का उद्देश्य सिर्फ़ बच्चों को साक्षर बनाना नहीं है। क्योंकि अगर केवल नाम लिखना सिखाना ही शिक्षा का उद्देश्य है तो शिक्षा का अधिकार छह से चौदह साल तक बच्चों को मुफ़्त और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान क्यों करता।
  6. जिस साक्षरता की गणना हर साल जनगणना के दौरान होती है। वह पहली कक्षा में बच्चों को सिखाई जा सकती है। पहली कक्षा के बच्चे अपना नाम लिखना और पढ़ना सीख जाते हैं। अगर उनको वर्ण-मात्राओं का उचित ज्ञान कराया जाता है।
  7. बच्चों को अनुशासन में रखें। मगर उनको किसी तरह का शारीरिक दण्ड न दें। क्योंकि डर के कारण बच्चा स्कूल आना छोड़ देता है। बच्चों को शांत बैठाने के लिए पढ़ाएं या फिर कोई ऐसा काम दें जिसे करने में उनको आनंद मिले और वे लंबे समय तक करना पसंद करें।
  8. बच्चे के शुरुआती दिनों में ऐसी आदतों का निर्माण करें जो उनको भविष्य में हमेशा काम आने वाली हैं, जैसे हाथों का संतुलन (हैंड बैलेंस), एकाग्र होकर बैठना, ध्यान से सुनना, किसी सवाल को समझना और उसका जवाब देना, समझ के साथ पढ़ना, सही सवाल पूछना और कोई चीज़ समझ में न आने पर साफ-साफ बताना। ताकि बच्चा अपनी जिम्मेदारी लेने की आदत डाले और उसे जो बात समझ में नहीं आ रही है वह बग़ैर डरे अपने शिक्षक से पूछ सके।
  9. कक्षा में पढ़ाते समय हर बच्चे के ऊपर ध्यान दें। उनकी कॉपी नियमित रूप से चेक करें ताकि यह जाना जा सके कि बच्चे ने कितना सीखा है। उसे कौन सी चीज़ें समझ में आ रही हैं और उसे कहां पर सपोर्ट करने की जरूरत है। क्योंकि बोलने की क्षमता का विकास तो बच्चे में स्वतः होता है। समाज में इसके लिए पर्याप्त अवसर मौजूद होते हैं।
  10. मगर पढ़ने का कौशल एक विशिष्ट कौशल है। इसके लिए हर बच्चे को एक प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है। जहाँ वह शुरूआत में कविताओं और बातचीत के माध्यम से भाषा के जीवंत रूप से नये सिरे से परिचय पाता है। साथ ही ध्वनियों के लिपि प्रतीकों से एक सार्थक रिश्ता कायम करता है। धीरे-धीरे शब्दों, वाक्यों और पैराग्राफ़ को पढ़ने की दिशा में आगे बढ़ता है। पढ़ने की इस प्रक्रिया में तस्वीरों की अहम भूमिका होती है जो किसी बात को व्यक्त करने के में बड़े सार्थक ढंग से सहायक होती हैं।

उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए एक स्कूल को मस्ती की पाठशाला बनाने की दिशा में योगदान दिया जा सकता है। मगर कुछ बातों का जिक्र अभी भी जरूरी है

  • स्कूल में बच्चों के खेलने के लिए पर्याप्त सामग्री और अवसर उपलब्ध होने चाहिए
  • स्कूल में पुस्तकालय होन चाहिए ताकि पढ़ना सीखने वाले बच्चों को अपने कौशल का रचनात्मक उपयोग करने का मौका मिले।
  • शिक्षकों का बच्चों के साथ स्नेहपूर्ण व्यवहार हो।
  • स्कूल की असेंबली और क्लोजिंग ऐसी होनी चाहिए कि बच्चे को रोज़ स्कूल आने को मन करे।
  • स्कूल के सभी स्टाफ और एचम के आपसी तालमेल के बग़ैर यह सारी चीज़ें संभव नहीं हैं इसलिए एक स्कूल के शिक्षकों का बतौर टीम काम करना। एक-दूसरे को सहयोग देना बेहद जरूरी है।
  • शिक्षकों का लगातार पढ़ना, सीखना और बदलते वक्त के साथ अपनी समझ और जानकारी को अपडेट करना स्कूल को मस्ती की पाठशाला बनाने की दिशा में एक अहम क़दम है। इसके बग़ैर बहुत सारी बातें ऐसी मान्यताओं के दलदल में उलझकर रह जाएंगी जहां बच्चों को सिर्फ कोरा कागज माना जाता है।
  • स्कूल बच्चों के लिए है। जिस स्कूल में इस बात को महत्व दिया जाएगा। और जो शिक्षक इस भावना के साथ काम करेंगे, वे तो निश्चितरूप से स्कूल को मस्ती की पाठशाला बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं। वे अपने मकसद में कामयाब होंगे अगर उनको बाकी शिक्षक साथियों का भी सहयोग मिल रहा है।
  • अपने अधिकारियों से संबंलन और प्रोत्साहन मिल रहा है। क्योंकि इस क्षेत्र में आलोचकों और पीछे खींचने वाले तत्वों की भरमार है। ऐसे में शिक्षकों का स्व-प्रेरणा से काम करना और लोगों की आलोचनाओं की परवाह न करना भी जरूरी है। क्योंकि आपको काम करता देख उन लोगों को परेशानी होती है, जो खाली बैठे हैं।

 

2 Comments on 21वीं सदी की प्राथमिक पाठशाला को कैसे बनाएं मस्ती की पाठशाला?

  1. बहुत-बहुत शुक्रिया संगीता जी. लिखने की इच्छा तो बहुत होती है , लेकिन वक्त की कमी के कारन आप लोगों से संवाद संभव नहीं हो पा रहा है. अब जब भी फुर्सत मिलेगी आप लोगों से संवाद करता रहूँगा. मन की कविता भी रेगिस्तान के वीराने में कहीं खो सी गयी है जिसे तलाशने की कोशिशें जारी हैं.

  2. यूँ ही ज़िंदगी का सफर अच्छे से कटे … बच्चों के साथ विद्यालय में शिक्षक भी बच्चा ही बन जाते हैं …

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