प्रारंभिक शिक्षा में क्या गुल खिलाएगी ‘टेक्नॉलजी’?
हम एक अद्भुत दुनिया में रह रहे हैं। यहां पर कुछ लोग वास्तविक गांवों को मिटाने और डिजिटल विलेज बसाने की बात करते हैं।
भारत में चुनिंदा टेक्नोक्रेट चाहते हैं कि प्रायमरी एज्यूकेशन पर उनका कब्जा हो जाए और टीचर की जगह टेक्नॉलजी को रिप्लेस कर दिया जाए।
मगर यह बात सौ फ़ीसदी सच है कि कोई तकनीक एक अच्छे टीचर की जगह कभी भी नहीं ले सकती।
भारत में इंटरनेशनल सेमीनार के नाम पर शब्दावाली का एक खेल हो रहा है, इस सेमीनार में हिस्सा लेने वाले लोग गाँव के स्कूलों की ज़मीनी वास्तविकताओं से अनभिज्ञ हैं।
लेकिन स्कूल में इंटरनेट, वीडियो और स्मार्टफ़ोन पर इस्तेमाल होने वाले सॉफ़्टवेयर का इस्तेमाल करने की बहुत सी मनगढ़ंत वजहें गिनाते वक़्त उका आत्मविश्वास देखने लायक होता है।
शिक्षक और टेक्नॉलजी
हालांकि स्कूल में टेक्नॉलजी को बढ़ावा देने वाले कुछ समर्थक स्वीकार करते हैं कि तकनीक शिक्षक के सहायक की भूमिका निभा सकती है। लेेकिन तकनीक पर इससे ज़्यादा भरोसा शिक्षा को उस मानवीय ऊष्मा से वंचित कर देगा, जिसकी झलक अभी स्कूलों में दिखाई देती है।
बुनियादी तौर पर शिक्षकों से यह कहने की कोशिश हो रही है कि बच्चों को क्या पढ़ाया जाएगा (कंटेंट) के साथ-साथ कैसे पढ़ाया जाएगा? यह तय करने की जिम्मेदारी भी बाकी लोगों पर होगी। किसी स्कूल में क्या एक शिक्षक की भूमिका मात्र ऊपर से आने वाले निर्देश फॉलो करने की होगी?
अगर ऐसा होता है तो शिक्षक अब अपने ही बच्चों के बीच अज़नबी होने को मजबूर होगा। और बच्चों के बारे में कहा जाएगा कि उनको तो वीडियो गेम और इंटरनेट पर पढ़ना, प्रोजेक्ट बनाना पसंद है ऐसे में शिक्षक की जरूरत क्या है? लेकिन ज़मीनी वास्तविकताएं काफी अलग है।
ऐसे में सवाल उठता है कि तकनीक का अत्यधिक लोभ हमें एक ऐसे अंधे रास्ते की तरफ न मोड़ दे…जहां से कोई वापसी नहीं होगी।
अध्यापक को बदनाम करने की मुहिम
इसी संदर्भ में प्रोफ़ेसर कृष्ण कुमार का वक्तव्य याद आता है, जिसमें वह कहते हैं, “शिक्षाविद कृष्ण कुमार कहते हैं, “आज तो ऐसा लगता है जैसे अध्यापक को बदनाम करने की एक मुहिम सी चल पड़ी है। भारत दरअसल एक युद्ध लड़ रहा है, जिसमें राज्य बिल्कुल सेनापती के भूमिका में है और यह युद्ध अध्यापक से लड़ा जा रहा है उसके पेश से, उसकी अस्मिता से, उसके काम से….। इसमें वैश्वीकरण जैसी शक्तियां शामिल हैं…लेकिन भारत के भीतर भी ऐसी शक्तियां कम नहीं है।”
भारत के स्कूलों की वास्तविकता:
- गांव के बहुत से स्कूलों में कंप्यूटर कक्ष और कंप्यूटर तो हैं, लेकिन बिजली नहीं।
- स्कूल में बच्चों के नामांकन में बढ़ोत्तरी का एक कारण मध्याह्न भोजन योजना (एमडीएम) भी है।
- गांव के स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक नहीं है। कहीं-कहीं 200-250 बच्चों पर मात्र दो अध्यापक हैं।
- बहुत बच्चे हिंदी पढ़ और लिख नहीं सकते। अंग्रेजी भाषा की स्थिति तो काफी खराब है।
- मेट्रो और बड़े शहरों के निजी स्कूलों, केंद्रीय विद्यालय और नवोदय जैसे कुछ संस्थानों को छोड़ दिया जाए तो बाकी संस्थानों के बच्चे सीखने के संकट (लर्निंग क्राइसिस) का सामना कर रहे हैं।
- शिक्षा के ऊपर होने वाली चर्चाओं में ज़मीनी वास्तविकताओं को खारिज कर दिया जाता है। केवल टैबलेट या लैपटॉप देने से समस्याओं का समाधान नहीं होगा, उसके लिए हमें उन चुनौतियों से जूझना होगा जो हमारे सामने सदैव से रही हैं।
आजादी के बाद का दूसरा विभाजनः
- बहुत से विशेषज्ञ मानते हैं कि बेहतर शिक्षक प्रशिक्षण और बाल केंद्रित पाठ्यचर्या का कोई विकल्प नहीं है।
- शिक्षा की गुणवत्ता के लिहाज से भारत में कई परते हैं, प्रोफ़ेसर अनिल सदगोपाल इसे आज़ादी के बाद का भारत विभाजन करार देते हैं।
- शिक्षा का अधिकार कानून लागू होने के बावजूद अभी भी 60 लाख से ज्यादा बच्चे स्कूली शिक्षा से वंचित हैं।
- बहुत से राज्यों में शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं।
- शिक्षक भर्ती की प्रक्रिया में जरूरी मानकों को दरकिनार करके शिक्षकों की नियुक्ति की जा रही है, उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा ऐसी नियुक्ति का मामला सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है।
- शिक्षा को भारतीय परिप्रेक्ष्य में समझने की कोशिश करने की बजाय बाहर के विचारों को लागू करने की कोशिश होती है।
- अभी नॉलेज की बजाय स्कूली शिक्षा के संदर्भ में स्किल शब्द का इस्तेमाल हो रहा है, लेकिन वास्तविकता तो यही है कि हम वास्तविक चुनौतियों का सामना करने में असफल रहे हैं।
वर्तमान में टेक्नॉलजी के फ़ायदे-नुकसान को ग़ौर से देखने की जरूरत है। इसके लाभों को अपनाने की जरूरत है, लेकिन इसके नुकसान के बारे में समय रहते सचेत होने की जरूरत है।
जो भी कहा है हद तक सत्य है। आजके समाज में शिक्षकों का कितना सम्मान सबको पता है। जब तक बिना शिक्षण के अध्यापकों की भर्ती बन्द नही करेंगे तब तक अच्छी शिक्षा मिलना मुश्किल है। सर्व शिक्षा अभियान से इन्फ्रास्ट्रक्चर तो बहुत सुधरा लेकिन शिक्षण गुणवत्ता मैं खास कोई सुधार नहीं हुआ। सतत समग्र मूल्यांकन को लागू होने से बच्चों को पढने का डर खत्म हुआ।