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अभिभावक बोले,”आज तो बेर खाने की छुट्टी रखी है”

आंगनबाड़ी केंद्र में खेलते बच्चे। भारत में लंबे समय से यह मांग की जा रही है कि सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के प्री-स्कूलिंग के लिए भी क़दम उठाना चाहिए ताकि इन बच्चों को भविष्य की पढ़ाई के लिए पहले से तैयार किया जा सके। उनको पढ़ने और किताबों के आनंद से रूपरू करवाया जा सके।

आंगनबाड़ी केंद्र में खेलते बच्चे।

सरकारी स्कूलों की कहानी के इतने पहलू हैं कि एक सिरा पकड़ो तो दूसरा छूट जाता है। स्कूल में आने वाले हर बच्चे की अपनी स्टोरी है। कोई बच्चा घर वालों के दबाव में स्कूल आ रहा है। तो कोई बच्चा घर वालों की छूट के कारण मनमर्जी से स्कूल आता है। तो वहीं किसी बच्चे को घर वाले स्कूल इसलिए नहीं भेजते, क्योंकि स्कूल के साथ उनका झगड़ा चल रहा है।

एक स्कूल में कुक ने यह कहते हुए खाना बनाना बंद कर दिया, “साहब, 1000 रुपये महीने तो बहुत कम हैं। इतने में 150 बच्चों का खाना मुझसे नहीं बनेगा।

गोबर के उपले बनाते बच्चे

फसलों की कटाई के दौरान बच्चों की संख्या स्कूल में बहुत कम हो जाती है। शिक्षक बताते हैं, “इस दौरान स्कूली बच्चे घर पर छोटे बच्चों की देखभाल करते हैं। बड़े खेतों पर काम करने के लिए जाते हैं। खेती का काम ऐसा है कि इसे टाला नहीं जा सकता है।” स्कूल की तरफ जाते हुए रास्ते में बहुत से ऐसे दृश्य दिखायी देते हैं। एक बच्ची घर के दरवाज़े से बाहर झांक रही थी, स्कूल की तरफ से मुझे आता देख वह तुरंत अंदर चली गयी। मैं वहीं रुका था, उसने फिर आकर देखा कि मैं चला गया या नहीं। देखने के बाद वह वापस फिर से घर के अंदर चली गयी।

रास्ते में दो बच्चे गोबर के उपले पाथने का रिहर्सल कर रहे थे। वे मुझे स्कूल की तरफ जाता हुआ देख हँस रहे थे। तो कुछ बच्चे साइकिल के टायर को डंडे से चलाते हुए अपनी धुन में जा रहे थे। स्कूल की तरफ जाते समय दो-तीन बच्चे अपनी बकरियों को चराने के लिए ले जा रहे थे। ऐसे दृश्य बताते हैं कि बच्चे घर पर घर वालों के काम में मदद करने के लिए भी रुकते हैं। वे हमेशा अपनी मनमर्जी से घर नहीं रुकते।

‘आज तो बेर खाने की छुट्टी है’

बच्चों का ठहराव सुनिश्चित करना और उनको नियमित रूप से स्कूल आने के लिए प्रेरित करना शिक्षकों के सामने सबसे प्रमुख चुनौती है। घर पर जाने के बाद अभिभावक कहते हैं, “मास्टर साहब, आज तो हमने बेर खाने की छुट्टी रखी है। यानी बच्चा बाकी लोगों के साथ बेर तोड़ने-खाने और घर लाने के लिए गया है।” ऐसे जवाब मिलने के बाद शिक्षक हँसते हुए कहते हैं कि बताइए ऐसे जवाब का भला क्या जवाब दिया।

शिक्षक बच्चों का ठहराव कैसे सुनिश्चित किया जाये? इस सवाल पर गूगल सर्च भी करते हैं।मानो इस सवाल का जवाब भी गूगल करने से मिल जाएगा। ठहराव की कहानी में कई पेंच हैं। जुलाई-अगस्त के दौरान जब बच्चे नियमित रूप से स्कूल आते हैं। उनको क्लास में सबसे कम समय मिलता है। क्योंकि शिक्षक बच्चों के नामांकन औप बाकी सारी जानकारी देने में बहुत व्यस्त होते हैं। ऐसे में पढ़ाई का सिलसिला रफ़्तार न पकड़ने और स्कूल के साथ बच्चों का जुड़ाव न बनने के कारण वे स्कूल से धीरे-धीरे विमुख होते चले जाते हैं।

रोज़ स्कूल न आने वाले बच्चे

एक बार बच्चा अनियमित होने लगा तो फिर उसके लिए पाठ्यक्रम और बाकी बच्चों के साथ-साथ चल पाना मुश्किल हो जाता है। क्योंकि एक स्कूल में शिक्षक के पास केवल 40-45 मिनट का समय होता है। ऐसे में 2-25 बच्चों की कक्षा में भी हर बच्चे तक पहुंच पाना और हर बच्चे को व्यक्तिगत रूप से समय दे पाना शिक्षकों के लिए बेहद मुश्किल होता है। वे हर बच्चे को टाइम टेबल के माध्यम से समय देने की कोशिश कर सकते हैं जैसे जरूरतमंद बच्चों को सबसे पहले और ज्यादा समय देना। बाकी बच्चों को स्वतंत्र रूप से काम करने के लिए देने जैसे विकल्प भी शिक्षक आजमाते हैं।

गाँव में स्कूल जाने वाले बच्चों को घरेलू कामों में हाथ भी बँटाना पड़ता है।

असली चुनौती तो क्लास में पिछड़ने वाले बच्चे को बाकी बच्चों के साथ लाना है। पहली-दूसरी कक्षा के बच्चों के साथ यह काम और भी मुश्किल हो जाता है क्योंकि पहली-दूसरी बहुत से सरकारी स्कूलों में एक साथ बैठती हैं।

इसमें बहुत से ऐसे बच्चे भी होते हैं जिनका नामांकन नहीं होता। जो उम्र में छोटे होते हैं। वे अपने भाई-बहनों के पास बैठते हैं, इससे उनका ध्यान भी बँटता है क्योंकि छोटे बच्चों का मस्तिष्क बहुत सक्रिय होता है और वे हमेशा कुछ न कुछ नया करते रहते हैं। अगर कक्षा में छोटे बच्चों का नामांकन भी किया गया हो तो शिक्षक को सारे बच्चों को एक समान स्तर तक लाना बेहद कठिन हो जाता है।

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