सक्सेस स्टोरीः कैसे बदलता है एक सरकारी स्कूल?

किसी सरकारी स्कूल में बदलाव की बात करना। ब्लैक एण्ड ह्वाइट टेलीविजन के जमाने में रंगीन टेलीविजन का ख़्वाब दिखाने जैसा ही है।
सरकारी स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षक कहते हैं, “बहुत से शिक्षक हैं जिन्होंने ख़ुद को कभी नहीं बदला। तमाम योजनाएं आईं और चली गई। सीसीई की डायरी को अभी हाथ तक नहीं लगाया है। जबकि पूरे राजस्थान में सीसीई का खौफ है।” ये शब्द यह बताने के लिए काफी हैं कि एक सरकारी स्कूल की परिस्थिति में हर छोटा बदलाव भी बहुत मायने रखता है।
स्कूलों में बदलाव तभी संभव होता है। जब आपके पास सटीक रणनीति हो। सामने वाला जिस काम से घबराता है, यानी डॉक्युमेंटेशन ऐसा कोई काम आप न बढ़ा रहे हों। शिक्षक कागजी कामों से कतराते हैं। वे रजिस्टर देखकर घबराते हैं कि एक नई मुसीबत आ गई है। ऐसी तमाम परिस्थितियों के बावजूद एक सरकारी स्कूल कैसे बदलता है पढ़िए इस पोस्ट में।
चीज़ों को सेल्फ स्टार्ट मोड में आने दें
अभी-अभी तो बदलाव की कहानी शुरू हुई है। इससे पहले शिकायतों की पूरी स्क्रिप्ट सुनना, उनमें से कुछ का जवाब देना, अपने बारे में बताना, सामने वाले को जानना, उनके व्यक्तित्व को समझना, एक भाषा शिक्षक को काम के लिए मोटीवेशन देना और प्रधानाध्यापक को बदलाव की कहानी का किरदार बनने के लिए तैयार करना था। अब चीज़ें सेल्फ स्टार्ट मोड में आने लगी हैं तो धक्का मारने की जरूरत नहीं है। बस साथ-साथ चलने की जरूरत है ताकि औपचारिकताओं के दबाव में शिक्षक के पढ़ाने की ख़ुशी और काम से मिलने वाली संतुष्टि का मशीनीकरण न होने बाये, क्योंकि शिक्षक की सहजता के ऊपर ही बच्चों का कक्षा में भागीदारी करना और सीखना निर्भर करता है।
यह बात तो तय है कि परेशान मन से कोई शिक्षक क्लासरूम में काम नहीं कर सकता। बच्चों को नियमित रूप से पढ़ाना बंद करने के बाद फिर से पढ़ाने के लिए तैयार होने में थोड़ा वक़्त लगता है, लेकिन एक बार चीज़ें फिर से शुरू हो जाएं तो स्थिति उतनी गंभीर नहीं लगती, जितनी जुलाई में थी। सारे बच्चे नये थे। हिंदी भी बड़ी मुश्किल से समझते थे। बड़ी जद्दोजहद के बाद एक कहानी खोजी थी। जिसके किरदार में शामिल थे स्कूल के कैंपस में बैठने वाले कुछ जानवर और स्कूल में बनने वाली रोटी का ख़्वाब। बच्चों को वह बात समझ में आई तो उम्मीद की एक रौशनी टिमटिमाई थी कि बच्चे अपनी बात समझते हैं। बच्चों से परिचय के सिलसिले में बनी थी रोटी बनाने वाली गतिविधि।
चुनौतियों को स्वीकार करें
इसमें तालियों की गड़गड़ाहट के साथ बनती हैं, रोटियां। तवे पर कूदती और उछलती हैं रोटियां फिर एक साथ रख दी जाती हैं और गिनकर खायीं जाती हैं रोटियां और पड़ोस वाले बच्चे को खिलायी जाती हैं रोटियां। कोई यात्रा कितने छोटे-छोटे लम्हों और नन्ही -नन्ही कोशिशों से मिलकर बनी होती है। जब इनका कोई हिसाब मांगता है तो हाथ खाली होते हैं और मन भरा होता है कि ऐसे सवालों के भी जवाब होते हैं कि तुमने सफ़र में किया क्या है? जो लम्हे हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बन जाते हैं, किसी को उसका हिसाब नहीं दिया करते। वे बदलाव की कहानी का हिस्सा बनेंगी, ऐसी उम्मीद भी नहीं रखनी चाहिए।
हमारी कोशिश ही हमारा हासिल है। बाकी परिणाम तो परिस्थिति, व्यक्ति और मिलने वाली जिम्मेदारी, उसके स्वरूप, उसके लिए मिलने वाले वक़्त और दूसरी बहुत सी चीज़ों पर निर्भर करता है। ऐसे में चलते रहने वाली बात अच्छी लगती है कि हम मुस्कुराकर चलते रहें पहचाने और अजनीब रास्तों पर ख़ुशी का संदेश देते हुए। ज़िदगी को ज़िदादिली के साथ जीते हुए।
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