‘गांव के स्कूलों में न श्यामपट्ट होते हैं, न खड़िया’
भारत में प्राथमिक शिक्षकों को प्रशिक्षण देने की शुरुआत साल 1982 में ‘भारतीय शिक्षा आयोग’ की रिपोर्ट पेश होने के बाद की गई। अध्यापक शिक्षा पर केंद्रित एक लेख में डी. पी. पटनायक ने लिखा था, “दुनियाभर के शिक्षाशास्त्रियों का मत है कि अच्छी शिक्षा अच्छे शिक्षक पर निर्भर है और शिक्षक की अच्छाई अध्यापक शिक्षा की गुणवत्ता पर निर्भर है।” यहां पर शिक्षा के लिए ‘अच्छी शिक्षा’ और प्रशिक्षण के लिए शिक्षा की गुणवत्ता जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया है।
साल 1986 में प्रकाशित पुस्तक ‘भारत में विद्यालयी शिक्षा’ के कुछ अंशों से एक बात का अंदाजा लगता है कि पिछले 29-30 सालों में प्राथमिक शिक्षा की स्थिति में क्या बदलाव आया है? प्राथमिक स्तर पर शिक्षक प्रशिक्षण के बारे में जिक्र है, “शिक्षक प्रशिक्षण की संस्थाओं का प्रबंधन राजकीय, अर्द्धराजकीय अथवा निजी हाथों होता है। शहरी विद्यालयों में तो शैक्षिक-प्रौद्योगिकी का बोलबाला होता है, पर गांव के स्कूल इतने अभावग्रस्त हैं कि उनमें न तो श्यामपट्ट होते हैं, न खड़िया।”
‘स्कूल आने वाली पहली पीढ़ी’
आगे लिखा गया है, “ऐसे विद्यालय है जहां सारी कक्षाओं के लिए केवल एक अध्यापक है, या अप्रशिक्षित अध्यापक हैं अथवा अर्द्धप्रशिक्षित अध्यापक हैं।” यहां सिंगल टीचर स्कूल वाली स्थिति का जिक्र किया गया है। इसके साथ ही कहा गया कि ऐसे अध्यापकों का ज्ञान भी भिन्न-भिन्न स्तर का होता है। कह सकते हैं कि तीस सालों के लंबे अंतराल के बाद भी देश में ऐसे हज़ारों स्कूल हैं जिनका संचालन केवल एक अध्यापक के भरोसे है और वही स्कूल में पहली से पांचवीं या आठवीं तक के सारे बच्चों को पढ़ाते हैं।
स्कूल आने वाले बच्चों के बारे में जो बात कही गई है। वैसी स्थिति स्कूलों में आज भी दिखाई देती है। हालांकि इस परिस्थिति में तेज़ी से बदलाव हो रहा है। लेख में कहा गया है कि कुछ बच्चे ऐसे होते हैं जो किसी घर से स्कूल आने वाली पहली पीढ़ी के हैं, जबकि दूसरे स्कूली बच्चे शिक्षित पारिवारिक पृष्ठभूमि से आते हैं। स्कूल आने वाली पहली पीढ़ी के बच्चों की संख्या आदिवासी अंचल में आज भी ज्यादा है। ऐसे बच्चों को घर पर पढ़ने-लिखने का कोई सपोर्ट उपलब्ध नहीं होता। स्कूल से मिलने वाला सपोर्ट ही इन बच्चों के लिए आगे बढ़ने का एकमात्र जरिया होता है।
ग्रामीण, आदिवासी और शहरी क्षेत्र
इस लेख में ग्रामीण, शहरी और आदिवासी अंचल से आने वाले छात्रों का जिक्र है। यह अंतर आज भी दिखाई देता है। गाँव के बच्चों के लिए स्थानीय भाषा के माध्यम से पढ़ने में सहूलियत होती है। जबकि आदिवासी अंचल के बच्चों के घर की भाषा और स्कूल की भाषा में अंतर होता है। जैसे डूंगरपुर के गाँव में बागड़ी बोली जाती है, जबकि स्कूल में हिंदी माध्यम में पढ़ाई होती है। अंग्रेजी माध्यम के निजी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के लिए भाषायी चुनौती सबसे प्रमुख होती है। जबकि शहरी क्षेत्र में रहने वाले बच्चों के लिए हिंदी या अंग्रेजी माध्यम में पढ़ना आसान होता है क्योंकि भाषा संबंधी मुश्किल उनके सामने ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में रहने वाले बच्चों की तुलना में कम होती है।
आख़िर में सबसे ख़ास बात कि साल 1982 में भारतीय शिक्षा आयोग की पहली रिपोर्ट जारी होने के पहले प्राथमिक शिक्षक-प्रशिक्षण को कोई ख़ास महत्व नहीं था। इस आयोग ने पहली बार प्राथमिक स्तर पर पढ़ाने वाले शिक्षकों के लिए प्रशिक्षण की वकालत की। इससे पहले महाराष्ट्र इकलौता राज्य था जहाँ किसी न किसी रूप में प्राथमिक स्तर पर शिक्षक-प्रशिक्षण की व्यवस्था मौजूद थी।
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