स्कूल की ‘आंगनबाड़ी’ से किसका भला होगा?

लंबे समय से यह मांग होती रही है कि सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के प्री-स्कूलिंग के लिए भी क़दम उठाना चाहिए ताकि इन बच्चों को भविष्य की पढ़ाई के लिए पहले से तैयार किया जा सके। उनको पढ़ने और किताबों के आनंद से रूबरू करवाया जा सके।

आंगनबाड़ी केंद्र में खेलते बच्चे। भारत में लंबे समय से यह मांग की जा रही है कि सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों के प्री-स्कूलिंग के लिए भी क़दम उठाना चाहिए ताकि इन बच्चों को भविष्य की पढ़ाई के लिए पहले से तैयार किया जा सके। उनको पढ़ने और किताबों के आनंद से रूपरू करवाया जा सके।

आंगनबाड़ी केंद्र में खेलते बच्चे।

सरकारी स्कूलों की स्थिति को सुधारने में आंगनबाड़ी की एक अच्छी भूमिका हो सकती है। मगर इस तरफ अभी बहुत ध्यान नहीं दिया जा रहा है। बच्चों को स्कूल भेजने के लिए बढ़ने वाली जागरूकता का असर हुआ है कि गाँव में जिनके बच्चे निजी स्कूलों में नहीं जाते ऐसे अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेज रहे हैं।

इसके कारण पहली कक्षा का शिक्षण कार्य प्रभावित हो रहा है। शिक्षक पहली क्लास के उन बच्चों पर ध्यान नहीं दे पा रहे हैं, जिनका नामांकन पहली कक्षा में हुआ है और जो अगले साल दूसरी क्लास में जाएंगे।

स्कूल की ‘आंगनबाड़ी’

उदाहरण के तौर पर अगर किसी स्कूल में 32 बच्चों का नामांकन है। इसमें से केवल आठ बच्चे स्कूल आ रहे हैं। जब पहली की क्लास चलती है तो उसमें मौजूद बच्चों की संख्या 20 से ऊपर होती है। यानि बाकी 12 बच्चों का स्कूल में नामांकन तो नहीं है, मगर वे स्कूल आ रहे हैं। हो सकता है कि इनमें से कुछ बच्चों का एडमीशन अगले साल पहली क्लास में हो जाए। बाकी बच्चे जो बहुत छोटे हैं उनका एडमीशन तो अगले साल भी पहली क्लास में नहीं होगा। मगर उनके स्कूल आने के सिलसिला जारी रहेगा।
 
ऐसी स्थिति में शिक्षक को स्कूल की वास्तविक स्थिति का अंदाजा नहीं हो पाता है कि कितने बच्चे स्कूल आ रहे हैं। कितने बच्चे स्कूल से बाहर हैं। शिक्षक कहते हैं कि बच्चे का स्कूल में एडमीशन करवाने के लिए तो अभिभावक आ जाते हैं, मगर नाम लिखवाने के बाद तो बहुत से बच्चे दोबारा नहीं आते। तो वहीं कुछ बच्चे कभी-कभार स्कूल आते हैं। शिक्षकों की भाषा में पैरेंट्स को अपने ही बच्चों की ‘कुछ पड़ी नहीं है’ यानी कोई परवाह नहीं कि वे स्कूल आ रहे हैं या नहीं।

बच्चों की ‘परवाह’ नहीं

आदिवासी क्षेत्रों में और गाँवों में खेती से जुड़े कामों को प्राथमिकता दी जाती है, ऐसे में जब फसल की कटाई का समय आता है कि तो बच्चे घर वालों के साथ खेतों पर चले जाते हैं, या फिर घर पर पशुओं बकरियों इत्यादि की देखभाल के लिए रुकते हैं। छोटे बच्चों की देखभाल भी एक जरूरी काम माना जाता है। बड़े अपना समय बचाने के लिए यह जिम्मेदारी बच्चों पर डाल देते हैं। ऐसे में बड़े बच्चे अगर स्कूल आते हैं तो छोटे भाई-बहनों को साथ लेकर आते हैं। बड़े बच्चे जो पहली क्लास में पढ़ रहे हैं वे शिक्षकों से कहते हैं कि सर इसका भी नाम लिखो।

स्कूल के रजिस्टर में 6 साल के कम उम्र के बच्चों का नाम दर्ज़ है। ऐसी स्थिति में क्या किया जा सकता है। शिक्षकों का कहना होता है कि हम किसी को एडमीशन के लिए मना नहीं कर सकते। मना न करने वाली बात तो समझ में आती है। मगर अभिभावकों को इस बात के लिए भी मनाने की कोशिश करनी चाहिए कि कृपया अपने बच्चे का एडमीशन 6 साल पूरा होने के बाद ही कराएं ताकि उसे पढ़ने के दौरान ढेर सारी समस्याओं का सामना न करना पड़े।

स्कूलों छोटे बच्चों का भी नामांकन पहली क्लास में करने से उनको सीखने में कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। वे बस क्लास में बाकी बच्चों को भागीदारी करता हुआ चुपचाप देखते हैं। हँसने वाले लम्हों में ख़ुश होते हैं और आनंद लेते हैं। पढ़ना-लिखना सीखने वाली प्रक्रिया में समुचित भागीदारी निभाने से वे काफी दूर हैं। ऐसे बच्चों को ‘अंडरएज़’ कहा जाता है।

अगर स्कूलों के ऊपर आंगनबाड़ी की जिम्मेदारी आती है तो शिक्षक प्राथमिक कक्षाओं के ऊपर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाएंगे। इसके कारण आने वाली कक्षाओं में बच्चों का अधिगम स्तर प्रभावित होगा, जिसे आगे जाकर संभालना संभव नहीं होगा। क्योंकि सीखने की सही उम्र में अगर चीज़ें न सीखी जाएं तो आगे उन चीज़ों को सीखना बहुत मुश्किल हो जाता है। पढ़ना-लिखना सीखना भी इन्हीं कामों या कौशलों में से एक हैं।

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