सवालों का जवाब देने से क्यों डरते हैं बच्चे?
इस अपठित गद्यांश का शीर्षक क्या होगा? नौवीं क्लास में पढ़ने वाले एक बच्चे ने उसके लिए एक शीर्षक खोजा था, मगर उसे अपने ऊपर भरोसा नहीं था कि यह शीर्षक सही है या नहीं। यह सवाल उसनें पांचवीं या छठीं बार पूछा था। इसके ऊपर पहले भी बात हुई थी कि किसी गद्यांश का शीर्षक बनाते समय एक बात का ध्यान रखो कि कोई भी शीर्षक ग़लत नहीं होता है।
हाँ, अच्छा शीर्षक बनाना एक कला है, जो लगातार अभ्यास वाली बात है। उससे मैंने पूछा कि किसी लेखक की कहानी का शीर्षक कौन बनाता है? तो छात्र ने जवाब दिया, “लेखक खुद बनाता है।” इस जवाब के बाद मैंने कहा, “तुम्हें भी एक लेखक की तरह अपठित गद्यांश का शीर्षक बनाना चाहिए। बिना इसकी परवाह किये हुए कि तुम्हारा शीर्षक ग़लत हो सकता है।
पूरे नंबर न देने की परंपरा
फिर उसका सवाल था कि निबंध के ऊपर पूरे नंबर क्यों नहीं मिलते? उसके इस सवाल पर मुझे दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के छात्रों को वह हुजूम याद आ गया जो कम नंबर को लेकर विभाग में धरने पर बैठा था। तुलनात्मक रूप से कम नंबर मिलने के कारण उनको भविष्य की प्रतियोगी परीक्षाओं और शोध के लिए होने वाले साक्षात्कार के बाद बनने वाली फाइनल मेरिट में पिछड़ने जैसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है। इसीलिए वे अच्छा नंबर दिये जाने का मांग कर रहे थे।
हिंदी में पूरे नंबर न देने का निर्वाह एक परंपरा की तरह से स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक किया जाता है। रचनात्मकता का कोई पैमाना नहीं हो सकता, यह बात ठीक है। पर किसी की रचना को कमतर मानकर हतोत्साहित करने वाली बात भी तो ठीक नहीं है।
हर सवाल का एक ‘सही जवाब’ होता है?
अगर हम शुरू से छात्रों को सवालों का जवाब ग़लत होने वाले भय से ग्रस्त कर रहे हैं तो यह प्रवृत्ति ठीक नहीं है। इससे बच्चे के भीतर एक बात गहरे पैठ जायेगी कि हर सवाल का एक ‘सही जवाब’ होता है। मुझे उसी जवाब की तलाश है। बड़े लोगों के पास वह जवाब होता है, अगर ऐसी बात किसी बच्चे के मन में बैठ गई तो वह खुद से कोशिश करना छोड़ देगा। अपनी जिज्ञासा और कल्पनाशक्ति का इस्तेमाल करना छोड़ देगा।
इससे किसी छात्र में लकीर का फकीर होने वाली प्रवृत्ति घर कर सकती है। वह केवल उन्हीं बातों को सच मानेगा जो लिखी हुई हैं। लिखी हुई बातों को सत्य मानने के खतरे क्या-क्या हैं? इस बात से हम बड़े होने के बाद रूबरू होते हैं। कोई लिखी हुई बात किस आधार पर सही है। इस तरह का विचार करने की योग्यता का विकास बच्चों में शुरु से होना चाहिए।
जैसे एक सवाल कि लेखक ने ऐसा क्यों लिखा होगा? ऐसे सवाल बच्चों को सोचने के लिए मदद कर सकते हैं। क्योंकि इसका कोई एक जवाब नहीं होगा। हर बच्चे का जवाब अलग-अलग हो सकता है। कोई भी जवाब ग़लत नहीं होगा। इस तरह की कोशिश बड़ी कक्षाओं में नौवीं-दसवीं में होनी चाहिए। ऐसे प्रयासों से ही छात्रों को भविष्य की शिक्षा के लिए तैयार किया जा सकता है।
इस लेख के बारे में अपनी टिप्पणी लिखें