सार्वजनिक शिक्षा में गिरावट के सिलसिले को रोकेगी ‘नई शिक्षा नीति’!!
मानव संसाधन विकास मंत्रालय की तरफ से नई शिक्षा नीति (NEP) की काफी चर्चा हो रही थी। भले ही इस कहानी का एक किरदार बदल गया है मगर कहानी आगे भी जारी रहेगी। मोदी कैबिनेट में हुए बदलाव के बाद स्मृति ईरानी को मानव संसाधन विकास मंत्रालय से हटाकर कपड़ा मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई है। अब यह मंत्रालय राज्य मंत्री से कैबिनेट मंत्री बने प्रकाश जावड़ेकर संभालेंगे।
नई शिक्षा नीति के दावे
इस नई शिक्षा नीति के बारे में दावा किया जा रहा था कि इसमें 13 क्षेत्रों पर ढाई लाख से ज्यादा लोगों के सुझाव मिले हैं। ग्राम पंचायत, ब्लॉक, जिला स्तर पर मिलने वाले सुझावों के अलावा राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर मिले सुझावों का नई शिक्षा नीति के निर्माण में ध्यान रखा जाएगा। मगर इस आशय की कोई रिपोर्ट सार्वजनिक नहीं की गई है। जाहिर सी बात है कि यह राय विशेषज्ञों की राय नहीं होगी जो इस बात को ध्यान में रखते हुए सुझाव दे सकते हैं कि लंबे समय में किसी फैसले का क्या असर होगा।
उपरोक्त मुद्दे का जिक्र फ्रंटलाइन में प्रकाशित कवर स्टोरी ‘पब्लिक एजुकेशन इन मार्केट प्लेस’ में है। इस आलेख में मधु प्रसाद लिखती हैं, “मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा बदलाव के लिए जो तरीका अपनाया जा रहा है वह काफी समस्याग्रस्त है। इसमें पूर्व की नीतियों का कोई विश्लेषण नहीं किया गया है। साथ ही इस बात पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 और इसमें 1992 में होने वाले बदलाव के क्रियान्वयन का क्या असर पड़ा है।”
कम लागत वाला मॉडल
इस आलेख में इस बात का विशेष तौर पर जिक्र किया गया है कि बहुत सारे मिशन और अभियानों का उद्देश्य बाज़ार के लिए जरूरी कौशलों के विकास की तरफ केंद्रित था इसमें सबसे न्यून्तम स्तर पर कार्यात्मक साक्षरता (फंक्शनल लिट्रेसी) का था। आलेख में इस बात का जिक्र है कि 1994 में विश्व बैंक के दबाव में जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम (डीपीईपी) की शुरुआत की गई जिसके तहत स्कूलों की आधारभूत संरचना और मानवीय संसाधनों के लिए कम लागत वाला मॉडल (low cost model) अपनाने की बात कही गई।
इसके बाद शिक्षा क्षेत्र में लागत कम करने के लिए पैरा टीचर्स और संविदा पर शिक्षकों की प्नियुक्ति होने लगी। पांचवा वेतन आयोग लागू होने के कारण अधिकतर राज्यों में प्रशिक्षित और स्थाई शिक्षकों की भर्ता का काम प्रभावित हुआ। फिर भी, जनगणना, चुनाव, स्वास्थ्य अभियानों जैसे पोलियो उन्मूलन कार्यक्रमों में प्रशिक्षित शिक्षकों को काम पर लगाने की जरूरत बनी रही। इसी दौर में शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के लिए ग़ैर-सरकारी संस्थाओं (एनजीओ) का प्रवेश शुरु हुआ। इस तरह से पूरी शिक्षा व्यवस्था पतन के कगार पर पहुंच गई।
इस लेख के बारे में अपनी टिप्पणी लिखें