शिक्षाः कैसे होती है आठवीं तक की पढ़ाई?
आमतौर पर शिक्षा को सामाजिक बदलाव के एक माध्यम के रूप में देखा जाता है। मगर यह यथास्थिति को बरकरार रखने का भी जरिया हो सकती है। यह बात इसे लोगों तक पहुंचाने की प्रक्रिया में होने वाली गड़बड़ी पर ध्यान देने से पता चलती है।
उदाहरण के तौर किसी सरकारी स्कूल की स्थिति सुधारने के लिए कदम उठाने में महीनों और सालों बीत जाते है। ऐसे हालत में किसका सबसे ज्यादा नुकसान होता है ? जाहिर सी बात है कि स्कूल आने वाले बच्चों का। बच्चे अपने भविष्य से अंजान वर्तमान में जो कुछ मिल रहा है उसी में खुश रहते हैं।
क्या सोचते हैं बच्चे?
मगर जैसे-जैसे वे अगली क्लास में जायेंगे।। कमजोर नींव पर पाठ्यक्रम का बोझ बढ़ता जाएगा। घर वाले कहेंगे फलां क्लास में चला गया उसे तो यह भी पढने नहीं आता। शिक्षक कहेंगे हम तो असहाय हैं। आप ही बताएं ऐसे हाल में क्या करें? ऐसे लम्हों में एक बच्चे को अहसास होता है कि वह बाकी बच्चों जैसा नहीं है। जो परीक्षाओं में अच्छे नंबर लाते हैं। शिक्षकों के चहेते हैं। जिनको पढ़ना-लिखना और क्लास में आत्मविश्वास के साथ अपनी बात कहना आता है।
रूटीन वाला ढर्रा कैसा होता है?
रोजाना समय पर स्कूल खुल जाता है। समय पर बच्चों की छुट्टी हो जाता है। कुछ बच्चे रोजाना स्कूल आते हैं। बाकी बच्चे कभी-कभार स्कूल आते हैं। बाकी दिनों में घर के काम में परिवार वालों की मदद करते हैं। या फिर परिवार के बाकी सदस्यों के खेतों या फैक्ट्री में काम के लिए जाने वाली स्थिति में घर पर ही छोटे बच्चों की देखभाल करते हैं। घर के जानवरों की देखरेख करते हैं।
ऐसे बच्चे पहली कक्षा में पढ़ते हैं। थोड़ा बहुत पढ़ना-लिखना या फिर क्लास में बैठना सीखते हैं। और बग़ैर किसी तैयारी के दूसरी कक्षा में चले जाते हैं। फिर तीसरी, फिर चौथी से होते हुए आठवीं पास हो जाते हैं। क्योंकि क्रमोन्नत करने का नियम है। आठवीं तक बच्चों को स्कूल में फेल नहीं किया जाता है। इसी कारण से बहुत से स्कूलों में पढ़ाया भी नहीं जाता है। परीक्षाओं के डर के कारण बच्चे पढ़ते हैं, बहुत से शिक्षक ऐसा ही सोचते हैं। उनको लगता है कि बच्चों को कैसे पढ़ने के लिए कहें? क्योंकि कोई ठोस कारण तो बचा ही नहीं पढ़ने के लिए। परीक्षाएं तो बच्चे ऐसे ही पास हो जाएंगे।
हमने तो ऐसा ख्वाब देखा ही नहीं
इस तरह से प्रारंभिक शिक्षा पूर्णता प्रमाण पत्र लेकर और शिक्षा का अधिकार पाकर बच्चे नौवीं कक्षा में प्रवेश लेते हैं जहाँ पहली बार परीक्षाओं का खौफ और पढ़ने का दबाव खुले रूप में उनके सामने आता है। शिक्षकों की हिदायतें भी काफी साफ होती हैं कि पढ़ाई करो वर्ना फेल हो जाओगे। ऐसे बच्चे नौवीं कक्षा में पास हुए तो आगे बढ़ते हैं। वर्ना फिर से लौटते हैं उस आबादी की तरफ जो शिक्षा से इतर काम-धंधों में लगी है।
यह प्रक्रिया लगातार चलती रहती है क्योंकि हमारा मकसद मिनिमन लर्निंग लेवल (न्यूनतम अधिगम स्तर) हासिल करने का है। हमने बतौर देश अधिकतम का कभी ख्वाब देखा ही नहीं। अगर देखा भी है तो उसके लिए अलग से शैक्षणिक संस्थान खुले हुए हैं जहां गुणवत्ता वाली शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए सारी सुविधाएं दी जाती हैं, जिनसे एक आम सरकारी स्कूल और वहां पढ़ने वाले बच्चे महरूम होते हैं।
यह स्थिति तो ऐसी ही है जैसे एक रोटी को दो बार पका लेने की कोशिश करना। बच्चे को विकास के लिए पर्याप्त समय देना चाहिए। दो बार या तीन बार क्रमोन्नत करना बिल्कुल गलत है, उसके भविष्य के साथ समझौता करना है।
मेरा एक सवाल है कि क्या बच्चे को एक सत्र मे दो बार क्रमोन्नत किया जा सकता है।कृपया बताने का कष्ट करें।