टैगोर का शिक्षा दर्शन क्या है?
आधुनिक भारतीय विचारक रवींद्रनाथ टैगोर (1861-1941) की ख्याति मुख्यतः विश्व-विख्यात कवि, कलाकार, और साहित्यकार के रूप में है। परंतु अपनी अनुपम कृतियों के माध्यम से टैगोर ने मानव मूल्यों के बारे में जो विचार व्यक्त किए, वे राजनीतिक और शैक्षिक चिंतन की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण हैं।
स्वतंत्रता की संकल्पना
टैगोर ने व्यक्ति की सकारात्मक स्वतंत्रता पर बल दिया है जो उसके आत्म-साक्षात्कार में सार्थक होती है। यह व्यक्ति की आध्यात्मिक स्वतंत्रतता है जो आत्मा और परमात्मा के मिलन में निहित है। परंतु ऐसी स्वतंत्रता नहीं जो व्यक्ति को अपने सहचरों या सांसारिक जीवन से विमुख करने को तत्पर हो। टैगोर के अनुसार, “सृष्टि ईश्वर की लीला है।“ अत: संसार से मुँह मोड़कर ईश्वर को पाने का प्रयास व्यर्थ है।
टैगोर ने अपनी कवि सुलभ शैली में लिखा है कि झंझावात, महासागर, सूर्य, चंद्रमा, पर्वत और घाटियां ईश्वरीय या दिव्य आनंद की अभिव्यक्ति हैं। प्रकृति केवल भौतिक शक्तियों का समुच्चय भर नहीं है, बल्कि वह एक सृजनशील चेतना के सामंजस्य को मूर्त रूप प्रदान करती है।
विज्ञान जो केवल भौतिक जगत का अध्ययन करता है- सृष्टि के गूढ़ रहस्य का पता लगाने में असमर्थ है। मनुष्य प्रकृति के सौंदर्य का आनंद लेते हुए ही अपनी स्वतंत्रता का उपभोग कर सकता है, उस पर अंधाधुंध नियंत्रण स्थापित करके नहीं।
उनका विचार था कि स्वतंत्रता की मौजूदगी में ही शिक्षा को अर्थ और औचित्य मिलता है। उन्होंने तत्कालीन स्कूलों को ‘शिक्षा की फ़ैक्ट्री, बनावटी, रंगहीन, दुनिया के संदर्भ से कटा हुआ और सफेद दीवालों के बीच से झांकती मृतक के आँखों की पुतली’ कहा था।
‘नियम और स्वतंत्रता’
टैगोर के अनुसार, व्यक्ति के अस्तित्व के दो रूप हैः एक और उसका भौतिक अस्तित्व है जो नियमों से बँधा है, अतः यहां वह अन्य व्यक्तियों के समान है; दूसरी ओर उसका आध्यात्मिक अस्तित्व है जो उसे अन्य व्यक्तियों से पृथक और विलक्षण सिद्ध करता है। संपूर्ण सृष्टि का भार भी व्यक्ति की इस वैयक्तिकता को कुचल नहीं सकता। यह वैयक्तिकता मनुष्य की अमूल्य निधि है। यही उसके जीवन के मूल उद्देश्य को निर्धारित करती है।
जैसे बीज में संपूर्ण वृक्ष का रूप धारण करने की क्षमता निहित होती है, वैसे ही व्यक्ति में अपने लिलक्षण व्यक्तित्व के विकास की क्षमता निहित होती है। इस विकास के मार्ग में आने वाली बाधाएं ही उसकी परतंत्रता या पाँव की बेड़ियां हैं। दूसरे शब्दों में आत्मनिर्णय स्वतंत्रता का सार तत्व है; किसी भी तरह की विवशता के अधीन किया गया कार्य ‘स्वतंत्रता का निषेध’ है।
टैगोर के अनुसार, विवशता दूर हो जाने के बाद जो कार्य मनुष्य को आनंद प्रदान करता है, उसे करना ही स्वतंत्रता है। आनंद मानव प्रकृति का सार तत्व है; यह अपने आप में साध्य है। सृजनात्मक आनंद मनुष्य का परम धर्म है; यह उसमें निहित दिव्य तत्व की अभिव्यक्ति है। सुंदर दृश्य, ध्वनि, सुगंध, स्वाद और स्पर्श मनुष्य के मन में आनंद का संचार करते हैं। टैगोर ने मानव प्रेम और सेवा को मोक्ष का सच्चा साधन माना है। टैगोर अपनी कृति रिलीजन ऑफ़ मैन में लिखते हैं, “स्वतंत्रता के विकास का इतिहास मानव संबंधों के उन्नयन का इतिहास है।”
“मन जहां डर से परे है
और सिर जहां ऊंचा है;
ज्ञान जहां मुक्त है;
और जहां दुनिया को
संकीर्ण घरेलू दीवारों से
छोटे छोटे टुकड़ों में बांटा नहीं गया है;
जहां शब्द सच की गहराइयों से निकलते हैं;
जहां थकी हुई प्रयासरत बांहें
त्रुटि हीनता की तलाश में हैं;
जहां कारण की स्पष्ट धारा है
जो सुनसान रेतीले मृत आदत के
वीराने में अपना रास्ता खो नहीं चुकी है;
जहां मन हमेशा व्यापक होते विचार और सक्रियता में
तुम्हारे जरिए आगे चलता है
और आजादी के स्वर्ग में पहुंच जाता है
ओ पिता
मेरे देश को जागृत बनाओ”
“गीतांजलि”
– रवीन्द्रनाथ टैगोर
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