शिक्षा विमर्शः ‘अगर शिक्षक चाह लें तो बदलाव संभव है’

मीडिया में शिक्षा से जुड़े मुद्दों की रिपोर्टिंग को लेकर सवाल उठते रहे हैं।
मीडिया में शिक्षा से जुड़े मुद्दों को किस तरीके से रिपोर्ट किया जाता है, इसको लेकर शिक्षा से जुड़े विभिन्न सेमीनार, परिचर्चा और आलेखों बात होती रहती है।
हाल ही में एक अख़बार ने लिखा कि ‘कई शिक्षक पाठ्यपुस्तकों के अध्याय तक नहीं बता सके‘। ऐसे किसी भी शीर्षक को संदेह के परे रखकर नहीं देखा जा सकता है। रिपोर्टर से अपेक्षा होती है कि वे तथ्यों के आधार पर बात करेंगे। तथ्यों से निकलने वाले निष्कर्षों व किसी विशेषज्ञ की राय को आधार बनाकर अपनी बात कहेंगे। इस रिपोर्ट में कई का क्या अर्थ है। दो। तीन। दस। बीस। या कितने? यह एक सवाल है। जिसका जवाब रिपोर्ट को पढ़कर नहीं मिलता है।
शिक्षा से जुड़े मुद्दे और मीडिया
इसमें कहा गया है कि पुरस्कार की चाहत में साक्षात्कार के दौरान कुछ शिक्षक पाठ्यपुस्तकों के पहले पाँच अध्याय नहीं बता पाए। इस भाषा पर पहली आपत्ति तो यही है कि एक शिक्षक जो साल भर मीडिया और समाज की आलोचनाओं के बाण झेलता है क्या उसके भीतर सम्मान की इच्छा नहीं होनी चाहिए? क्या उसे उसके द्वारा होने वाले कार्यों के लिए पुरस्कृत या सम्मानित नहीं किया जाना चाहिए। क्या उसकी छवि को ‘पुरस्कार की चाहत’ जैसे मुहावरे में समेटकर नकारात्मक ढंग से पेश करने की कोशिश में ऐसे वाक्यों का निर्माण नहीं होता है।
ख़ैर यह तो बात रही कि मीडिया में शिक्षा से जुड़े मुद्दों पर लिखते समय संवेदनशीलता बरती जानी चाहिए क्योंकि इससे समाज में एक संदेश जाता है और उसका गहरा असर होता है। शिक्षकों के सोशल मीडिया पर बनने वाले विभिन्न वैकल्पिक मंचों के बनने का एक कारण मीडिया पर उनका कम होता भरोसा भी है। वे कहते भी हैं कि लोग पूछते हैं कि कोई नकारात्मक बात हो तो बताओ। अच्छा काम तो हमारे लिए कोई ख़बर नहीं है। अगर अच्छा काम आपके लिए ख़बर नहीं है तो फिर इसका अर्थ यही है कि समाज किस दौर से गुजर रहा है। ऐसे दौर में किस तरह की पत्रकारिता की जरूरत शिक्षा क्षेत्र को है, इसकी आपको ख़बर नहीं है।
‘हालात भयावह हैं, पर बदलाव शिक्षकों से ही संभव है’
इस संदर्भ में शिक्षा विभाग से जुड़े एक अधिकारी ने लिखा, “दुर्भाग्यपूर्ण. इसलिए मैं हमेशा कहता हूँ अध्यापन पाठ्यक्रम व पाठ्यपुस्तकों के अनुसार हो. शिक्षण से पूर्व स्वाध्याय जरुरी है.” अगर ख़बर के परिप्रेक्ष्य में इस सलाह को देखें तो वह बिल्कुल सही है कि ऐसे शिक्षक जिनका चयन राष्ट्रपति पुरस्कार के लिए होना है। उनसे ज्यादा बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद तो होती ही है।

समाधान कैसे होगा, यह एक बड़ा सवाल है।
उनकी एक बात ग़ौर से पढ़ने वाली है, “मैं व्यक्तिगत रुप से लगभग 11,000 शिक्षकों से अब तक मिल चुका हूँ. सबसे एक प्रश्न जरुर किया कि वे अपने पाठ्यपुस्तकों को पलट कर देखे हैं!! 90% का जवाब नकारात्मक आया. अध्यापकों के समूह ( लगभग 500) से आग्रह किया कि वे अपनी पाठ्यपुस्तकों को जरुर पढ़ लें. दो माह बाद पूछा कि वे पाठ्य पुस्तकों को पढ़ लिए हैं. पुनः 90% का जवाब नकारात्मक ही था. फिर तीन महीने बाद यही प्रश्न पूछा गया, तब भी स्थिति वही थी. तो मित्र, हालात भयावह है. समाधान क्या होगा?”
यह पढ़ने की आदत के अभाव वाली स्थिति की तरफ एक संकेत है। जिसपर अमल करने की जरूरत है ताकि शिक्षकों के बीच किताबों को पढ़ने और उस पर विमर्श करने की संस्कृति की शुरूआत हो सके। एक शिक्षक का विद्यार्थी बने रहना ही उसकी सार्थकता है। यही उसे अपने काम को बेहतर ढंग से करने में मदद करता है। पूर्व-तैयारी निःसंदेह क्लासरूम में सार्थक चर्चा और पढ़ाने के तरीके को रोचक बनाने में अहम भूमिका निभाती है। पाठ्यपुस्तकों से परिचित होना एक शिक्षा का बुनियादी दायित्व है, जिसके निर्वहन की अपेक्षा उनसे की जाती है। भले ही उनके पास अन्य काम हों, मगर शिक्षक के पेशे की पहचान जिन कार्यों से है उसकी जिम्मेदारी तो शिक्षक साथी किसी और पर नहीं डाल सकते हैं।
शिक्षक इंतज़ार नहीं, बदलाव की पहल करें

एक बच्चे की मुस्कुराहट और ख़ुशी शिक्षक के लिए सबसे बड़ा पुरस्कार है।
उन्होंने एक अन्य ध्यान देने योग्य बात कही कि हम कब तक सब कुछ ठीक होने का इंतजार करते रहेंगे? जहाँ हैं, जिस हालात में हैं, वहीं से बेहतर विद्यालय बनाने के लिए प्रयास प्रारंभ करना होगा। सभी स्तर पर खामियां हैं। बदलाव हर स्तर पर वांछनीय है। पर शिक्षक एक बड़ा समूह हैं, वे चाह लें तो 70% बदलाव संभव है। इसलिए मैं बाबू व अधिकारियों के बारे में कम लिखता हूँ।
आख़िर में बस एक ही बात कहनी है कि क्या हम पूरा शैक्षिक सत्र बग़ैर शिकायतों का पिटारा खोले। बग़ैर आलोचना किए। अपने काम पर ध्यान देते हुए बिता सकते हैं ताकि पिछले सत्र में जहाँ ठहरे थे, वहां से आगे बढ़ा जा सके।
सरकारी स्कूलों की स्थिति को थोड़ा बेहतर बनाया जा सके। विपरीत माहौल में लोगों को प्रेरित करने वाली कहानी लिखी जा सके। एक मिशाल कायम की जा सके कि उस स्कूल के शिक्षक तल्लीनता के साथ अपने काम में लगे हैं, उनको न तो पुरस्कार की चिंता है और न ही किसी की तारीफ की। क्लासरूम में बच्चों के साथ काम करने की ख़ुशी को ही वे अपना पुरस्कार मानते हैं और बच्चों के अधिगम स्तर में बढ़ोत्तरी को अपना प्रमाणपत्र मानकर सतत प्रेरित होकर अपने काम में लगे हुए हैं।
सरकारी योजनायें,प्रतिदिन -माह रिपोर्टिंग,वित्तीय आदि गैरशैक्षणिक कार्यों के चंगुल में फंसकर शिक्षक इतना अधिक व्यस्त है कि शैक्षिक बदलाव/परिवर्तन चाहकर भी नहीं कर पा रहा है.सिर्फ सरकारी आदेशों के पालन में लगा रहता है.पाठ्यक्रम एवं पाठ्यपुस्तकें शिक्षक के राय के बगैर तैयार की जा रही हैं.संशोधन के लिये बहुत ही कम समय दिया जाता है.समयावधि के बाद फीडबैक नहीं लिया जाता है.शिक्षक सम्मान का भूखा नहीं है,बदलाव वास्तव में सरकार चाहती है तो प्रशासनिक दर्जा शिक्षकों को मिलना चाहिये.