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समझने की ‘समझ’ पर भी काम करने की जरूरत है?

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इस बच्ची की तस्वीर सीखने-समझने की एक मिशाल है। ऐसे उदाहरण विरले ही मिलते हैं। यह बच्ची मेरे लिए एक रोल मॉडल की तरह है।

“समझ-समझ का फेर है, समझने में अभी देर है।” सही अर्थों में किसी चीज़ को समझना क्या होता है? समझने की प्रक्रिया क्या होती है? समझने की प्रक्रिया में संदर्भों के चुनाव की क्या भूमिका होती है? किसी चीज़ को बदलने की स्वाभाविक सी इच्छा से क्या समझने की प्रक्रिया और बनी हुई समझ प्रभावित होती है। समझने का नज़रिया अगर समाधान खोजने वाला हो तो क्या होता है? ऐसे बहुत से सवाल हैं, जिनके ऊपर विचार करना जरूरी है।

क्या है समझना?

समझना क्या है, और क्या है समझना दोनों वाक्यांश एक जैसे हैं। मगर दोनों वाक्यों का अर्थ अलग-अलग संदर्भों की तरफ ले जाता है। भाषा को बरतने का हुनर ऐसी बारीकियों की तरफ हमारा ध्यान खींचता है।

शिक्षा के क्षेत्र में आजकल हर चीज़ को ‘समझ’ के साथ जोड़ देने का फ़ैशन चल पड़ा है, समझना दरअसल ज्ञान-निर्माण की एक प्रक्रिया है जो अपनी रफ़्तार से चलती है, यह कभी धीमी होती है तो कभी तेज़ होती है। कहीं से कुछ लेना, उसको बग़ैर सामने वाले की जरूरत को समझे बता देना और उम्मीद करना कि वह उसे स्वीकार भी करे, समझ भी ले एक बहुत बड़ी अपेक्षा। इस अपेक्षा को शायद थोड़ा यथार्थवादी बनाने की जरूरत है।

पूर्व-ज्ञान और परिवेश को समझने का महत्व

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अगर कोई शिक्षक कक्षा-कक्ष में बच्चों को कोई विषय पढ़ाना चाहते हैं तो सैद्धांतिक तौर पर जानने की कोशिश करते हैं कि बच्चों को पहले से क्या पता है? इसके साथ ही पहले जो पाठ पढ़ाया या समझाया गया था, क्या  वह चीज़ें भी बच्चों के ध्यान में हैं या वे पूरी तरह से याददाश्त के बाहर चली गयीं हैं, जिसे फिर से याद दिलाने की जरूरत है।

इसीलिए कहा जाता है कि कक्षा में जो भी पाठ पढ़ाना हो, उसे शिक्षक को ख़ुद एक बार जरूर देखना चाहिए। उन चीज़ों के ऊपर कैसे बात हो रही होगी? बच्चों के क्या सवाल आ रहे होंगे? किन सवालों के जरिये बच्चों को अपने पूर्व-ज्ञान का इस्तेमाल करते हुए सवाल का जवाब खोजने के प्रेरित किया जा सकता है। हर सवाल का जवाब बच्चे को बता देना। हर उत्तर की प्रतिक्रिया में केवल उन्हीं जवाबों को स्वीकार करना जो बिल्कुल सही हैं, यह दर्शाते हैं कि हम सवाल-जवाब को एक रैखिक प्रक्रिया मान रहे हैं। जो हिंदी की वर्णमाला में क्रमशः आने वाले अक्षरों की तरह अ से आ ही होगी।

किताब और वास्तविक जिंदगी के सवालों का अंतर

वास्तविक ज़िंदगी के अनुभव और उनमें आने वाले सवालों की प्रकृति ज्यादा गतिमान प्रकृति की होती है। वहां न तो सवालों का क्रम पहले से निर्धारित होता है। न ही सभी सवालों का जवाब देने वाली पाठ्य-पुस्तक और गाइड्स जैसी ही कोई चीज़ होती है। ऐसे में किसी इंसान के सामने रास्ते क्या होते हैं? या तो वह ख़ुद से प्रयास करके सवालों के संदर्भ में किसी निष्कर्ष तक पहुंचने की कोशिश करे। या फिर किसी भाग्यवादी मुहावरे से खुद को संतुष्ट कर ले, जैसे- समय से पहले और किस्मत से ज़्यादा किसी को नहीं मिलता है।”

कौन जाने की वह समय कौन सा है, जिसमें हमें वे चीज़ें मिलेंगे, जिनकी जरूरत हम वर्तमान में महसूस कर रहे हैं। किश्मत क्या है, सिर्फ़ संयोगों का समुच्चय या फिर कुछ और यह भी सवाल हो सकता है। हम फिर से लौटते हैं, समझने की ‘समझ’ का विकास करने वाले सवाल पर, जो हमें बताता है कि जिन चीज़ों को हम समझने की कोशिश कर रहे हैं। उनको समझने की चाबी कभी हमारे अनुभवों में होती है, तो कभी उस सांस्कृतिक निर्मिती को जानने या डिकोड करने में जिसे हम दुनियादार या व्यवस्था में डूबा हुआ इंसान कहते हैं।

बदलाव लाने वाले कब लिखेंगे बदलाव की कहानी?

सच्ची-शिक्षाअगर हम किसी व्यवस्था को नहीं समझते हैं कि वह कैसे काम करती है? उसके प्रभाव का केंद्र क्या है? उसके असर खोने के पीछे क्या कारण हैं तो हम शायद उसे बेहतर नहीं बना सकते हैं। यही बात शिक्षा के क्षेत्र और संदर्भ में भी लागू होती है, जो दर्शाती है कि शिक्षकों द्वारा जबतक अपने बदलाव की कहानियां ख़ुद नहीं लिखी जाएंगी, उनको बदलने वाले असली फैक्टर्स क्या हैं, इस बात को लोग समझ ही नहीं सकते। यानि वैकल्पिक नैरेटिव जो बाकी लोगों द्वारा गढ़ा जा रहा है, वह असली नैरेटिव पर हावी हो जायेगी और सच की आवाज़ धीमी हो जायेगी, जो वास्तव में ज्यादा तेज़ और प्रभावशाली होनी चाहिए। इसकी पहल शिक्षक, शिक्षक समुदाय और शिक्षकों के शुभ-चिंतकों व हित चाहने वालों की तरफ से होनी चाहिए। ऐसे प्रयास हो रहे हैं, मगर उन प्रयासों को व्यवस्थागत रूप में आगे ले जाने की जरूरत है।

बच्चों को मिले विकल्प चुनने की आज़ादी

दिल्ली यूनिवर्सिटी के सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ़ एजुकेशन से शोध कर रही रंजना सिंह कहती हैं, “पहली बात, समझने की समझ में ये भी बहुत जरुरी है की बच्चों को आज़ादी मिले की वो कौन सी गतिविधियां करना चाहते हैं। यानि जैसे किसी 1 प्रश्न का 1 ही उत्तर को बार बार दोहराना सही नहीं है उसी प्रकार 1 एक्टिविटी के साथ और भी विकल्प हो करने के लिए ताकि बच्चों के पास चुनाव के अवसर हों।”

दूसरी बात, “बच्चे के लिए ये विकल्प कब बना पाएंगे,,,,जब उन्हें पता होगा के उन्हें किस तरह से चीज़ें ज्यादा समझ आती हैं। जैसे कुछ बच्चे लिखना पसंद करते है औए वो कहते भी हैं के मै ये लिख लेता हूँ नहीं तो भूल जाऊंगा। तो वहीं कुछ बच्चों को चित्र बनाकर बताना ज्यादा पसंद होता है।”

2 Comments on समझने की ‘समझ’ पर भी काम करने की जरूरत है?

  1. Virjesh Singh // November 24, 2017 at 4:47 am //

    बहुत-बहुत शुक्रिया दिवाकर जी, आपकी यह टिप्पणी बेहद ख़ास है।

  2. Diwakkar Kukretii // November 24, 2017 at 4:43 am //

    समझ बहुत गजब है .

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