मुद्दा: ‘नकल, नम्बर और परीक्षा के त्रिकोण को समझने की जरूरत है’
नकल करने की प्रवृत्ति और नकल कराने की मनोवृत्ति का बीजारोपण कहां से होता है, इसे समझने की जरूरत है। नंबरों की होड़ और फेल होने का डर इसके दो बड़े कारण हैं। फेल होने के बाद निराशा का शिकार होने वाले और सार्वजनिक रूप से अपमानित होने वाले छात्रों के लिए….नकल एक टॉनिक की तरह है।
“सभी नकल करने वाले एक जैसे होते हैं। नकल करने वालों में प्रतिभा नहीं होती। नकल करने वाले जीवन में कुछ कर नहीं पाते।” ऐसा मानना ग़लत है। यह उसी तरह का निष्कर्ष निकाल लेना है कि समूचा बिहार, समूचा यूपी, समूचा राजस्थान ऐसा ही है। इस तरह के आसान निष्कर्षों से बचना चाहिए। अभिभावकों को शिक्षा के साथ जोड़ने का सकारात्मक रास्ता खोजना चाहिए, ताकि नकल कराने के लिए दीवारों पर चढ़ने की जरूरत न पड़े।
ऐसा कोई रास्ता निकालना चाहिए की छात्र परीक्षा के डर से आज़ाद हो। अभिभावक अपने पुराने अनुभवों को बच्चों पर लादने की कोशिश से बाज आएं। अच्छा होगा कि नंबरों की होड़ पर विराम लगे। प्रतिभा और नंबर को तराजू के दोनों तरफ़ रखकर तौलने की प्रवृत्ति को हतोत्साहित किया जाए। थोड़ा वक़्त लगे लेकिन प्रवेश परीक्षाओं का आधार बनाकर या फिर नंबरों के महत्व को कम करके एक रास्ता निकाला जा सकता है।
जिस समाज में फेल होना अपराध होना है। वहां नकल करना सामाजिक रूप से वैधता पा जाता है। दोनों बातें एक सिक्के के दो पहलू सरीखी हैं। आज नकल, नंबर और परीक्षा के त्रिकोण को नए सिरे से समझने की जरूरत है।
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