बाल-साहित्य में कविताएंः ‘बस्ता खुद चलकर घर आए’
कोविड-19 के संकट वाले दिनों में लगभग 1700 कविताएँ पढ़ने का समय मिला। मुझे हैरानी हुई कि मात्र छह फीसदी कविताएं ही मुझे आनन्द दे सकीं। मैं यह मानता और जानता हूँ कि आनंद की अपनी सीमा है। हर किसी की अपनी मनोवृत्ति भी है।
यह क़तई ज़रूरी नहीं है कि मुझे पसंद आने वाली कविताएँ आपको भी पसंद आएँ। यह भी हुआ कि पढ़ते-पढ़ते मैं कई बार अपना बालमन छोड़कर बड़ापन में आ गया। कभी मुझे लगा कि ये कविता तो बड़ों की कविता है! कभी लगा कि ये कविता बच्चों के लिए हो ही नहीं सकती ! कभी-कभी लगा कि यह कविता तो सभी को अच्छी लगेगी। कभी-कभी ऐसी कविताएं भी आँखों के सामने से गुजरीं जिन्हें पढ़कर मन प्रसन्न हुआ।
‘पगडण्डी बोली’
राजा चैरसिया बच्चों के बीच में हमेशा लोकप्रिय रहे हैं। वे अलग तरह की कविताओं के लिए जाने जाते रहे हैं। सड़क और पगडण्डी की बहस में मानवीकरण वे ही कर सकते हैं। सड़क के बड़बोलेपन का जवाब पगडण्डी किस तरह से देती है-
पगडण्डी बोली, तुम बातें,
करो न ऐसी घटिया
जनम लिया है, तुमने मुझसे,
तुम हो मेरी बिटिया।
राजा चैरसिया की कविताएं सीधे बच्चों के मन की बातें प्रस्तुत करती नज़र आती है। बच्चे जानते हैं कि बड़े कब नाराज़ हैं। कब प्रसन्न हैं। बड़ों से किस मौके पर कैसी बात करनी चाहिए। लेकिन राजा चैरसिया गुस्से वाले पिता से बच्चे की सीधी बातचीत तक करा देते हैं। एक अंश-
गुस्से की ऐसी आदत से
हम भयभीत रहा करते हैं
हँसने गाने के ये दिन हैं
लेकिन कष्ट सहा करते हैं
दादी कहती गुस्सैलों को
ही जल्दी से आए बुढ़ापा।
‘बस्ता खुद चलकर घर आए’
माधव कौशिक बच्चों की उलझनों को सामने लाते हैं। वह उनकी कथा-व्यथा को रचनाओं में शामिल करते हैं।
एक अंश-
काश! कोई जादू कर जाए
बस्ता खुद चलकर घर आए।
माधव कौशिक बच्चों को अस्तित्ववाद से आगे देखते हैं। वे भी नकारते हैं। उनके भी अपने तर्क हैं। एक अंश-
घिसे-पिटे परियों के किससे नहीं सुनूँगा?
खुली आँख से झूठे सपने नहीं बुनूँगा।
मुझे पता चंदा की धरती पथरीली है,
इसीलिए धब्बों की छायाएँ नीली हैं।
लक्ष्मीशंकर वाजपेयी भी जीव-जगत की जानकारियों को अपनी कविताओं में पिरोते हैं। समस्याओं और सुविधाओं से उपजे सवालों को उनकी कविताएं अलग अंदाज़ में प्रस्तुत करती हैं। एक अंश-
,बिजली कहाँ गई है,
उसको ज़रा बुलाओ ना
इस गर्मी में जाती क्यों है,
उसको डाँट लगाओ ना।
जाने-माने कवि और भाषाविद् सुरेंद्र विक्रम की कई कविताएं स्कूली किताबों में बच्चे पढ़ रहे हैं। उनकी रचनाएं समाज और भविष्य का पता देती हैं। एक अंश-
हिंदी,इंग्लिश,जीके का ही,
बोझ हो गया काफी
बाहर पड़ी मैथ की काॅपी,
कहाँ रखे ज्योग्राफी?
रोज़-रोज़ यह फूल-फूलकर
बनता जाता हाथी
कैसे इससे मुक्ति मिलेगी
परेशान सब साथी
अखिलेश श्रीवास्तव ‘चमन’ बाल-साहित्य के सक्रिय रचनाकार है। वे बच्चों के करीब खू़ब दिखाई पड़ते हैं। एक अंश-
पापा तुमने कभी न जाना
क्यों हम गुमसुम होते हैं।
मम्मी तुमने कभी न समझा
आखिर क्यों हम रोते हैं।
अहद प्रकाश की रचनाएं भी बच्चों को भा जाने वाली हैं। वे निरर्थक और ध्वन्यात्मक शब्दों को पिरोना जानते हैं। एक अंश-
अंबक टंबक
टंबक टुल्ला
अपना बचपन
है रसगुल्ला
हूंदराम बलवाणी की रचनाओं में हास्य भी है। वे शब्दचित्र बनाने में सफल होते हैं। एक अंश-
लोभीराम है लोभ से खाना
भोंदूराम कुछ समझ न पाना
पेटूराम के पेट में चूहे
लगे दौड़ने सब हड़पाया
जैसे नाम हैं, वैसे काम
जाने कितने,कैसे राम!
श्याम सुशील वरिष्ठ कवि है। बच्चों के लिए उन्होंने कई नायाब रचनाएँ लिखी हैं। वे बच्चों की नज़र से उन वस्तुओं,चीज़ों,प्रतीकों और ख़्यालों को कविता का विषय बनाते हैं, जिनमें अमूमन बड़ों की नज़र नहीं पड़ती। एक अंश-
हवा धूल को छेड़ के भागी
सोती धूल अचानक जागी
उड़ी हवा के पीछे पीछे
हवा हो गई धूल के नीचे
कई रचनाकर धूप को आफत बताते हैं जब गर्मी आती है। वहीं कई रचनाकार सर्दी को दुश्मन घोषित कर देते हैं। वहीं श्याम सुशील जाड़े की धूप की बात कहते हैं। एक अंश-
गरमाहट देती है
दोस्त के हाथ सी
जाड़े की धूप!
नागेश पांडेय ‘संजय’ बाल साहित्य के मर्मज्ञ कवि हैं। गद्यकार भी हैं। समग्र बाल साहित्य के अध्येता भी है। वह संवेदना के स्तर पर आम जीवन में भी बेहद गंभीर हैं। बच्चों में गंभीरता का परिचय वे अपनी रचनाओं के माध्यम से कराते हैं। घोड़े के भारी-भरकम शरीर और काम पर एक बच्चा कैसी प्रतिक्रिया करता है। एक अंश-
कैसे चल पाते हो इतना?
दुखते होंगे पैर।
खूब पीठ पर चाबुक पड़ते,
लगती होगी चोट।
सूरजपाल चैहान की नज़र में बच्चे भी सूक्ष्म अवलोकन करते हैं। एक अंश-
एक रुपए की अब न पूछ
दो के नोट की नीचे मूँछ
नोट पाँच का है शरमाता,
दस का भी तो कुछ नहीं आता।
प्रदीप शुक्ल नए समय को रचनाओं में रेखांकित करते हैं। आज के बच्चों की ध्वनि और चाहतें उनकी कविता में शामिल हैं। अब गूगल में सर्च कर सब खोज लोगे। लेकिन खोई हुई भैंस को कैसे खोजेंगे? एक अंश-
जिसे खोजना हो अब तुमको।
गूगल में डालो तुम सबको।
कक्का कहें चबाकर लईय्या
मेरी भैंस खोज दो भैय्या।
‘फिर मैं किससे पूछूँ पापा’
घमण्डीलाला अग्रवाल वरिष्ठ कवि हैं। कई विधाओं में सिद्धहस्त हैं। वे अलग तरह के प्रयोग भी कविताओं में करते हैं। एक अंश-
चलती-फिरती शालाएँ हैं
प्यारी दादी-नानी।
रावेन्द्र कुमार रवि बालसाहित्य के विशेष अध्येता हैं। पूरी ऊर्जा के साथ बाल-साहित्य के उन्नयन में प्रयासरत् हैं। गद्य के साथ पद्य में भी महारत हासिल है। वे बहुत-बहुत सूक्ष्म चीज़ों,वस्तुओं,सेवाओं और बातों को अपनी कविताओं में शामिल करते हैं। एक अंश-
एक मटर की फली हरी,
डसमें रहती एक परी!
प्री अभी यह नन्ही-सी है,
पंख नहीं हैं इसके आए!
दीनदयाल शर्मा लम्बे समय से बाल-साहित्य की साधना में लगे हुए हैं। वे बच्चों के मासूम सवालों को सम्मान देते हैं। एक अंश-
फिर मैं किससे पूछूँ पापा,
मुझको बतलाएगा कौन।
डाँट-डपट के कर देते हैं,
मुझको पापा सारे मौन।
‘मेरा सपना पूरा करना’
मोहम्मद साजिद खान भी विविध विधाओं में सिद्धहस्त हैं। वे छोटी-बड़ी रचनाओं के लिए जाने -जाते हैं। उनकी रचनाओं में मानवीय संवेगों की प्रमुखता रहती है। उनकी रचनाएँ सरल,सहज भाषा के साथ कई गूढ़ अर्थों को समझने की सामथ्र्य रखती है। उनकी रचनाओं में बच्चों के सार्थक तर्क देखे जा सकते हैं। एक अंश-
मम्मी-पापा का है कहना,
मेरा सपना पूरा करना
अपने जैसा सबको गढ़ना
क्या अच्छा लगता है?
मोहम्मद साजिद खान की एक और ख़ास बात है कि वे बच्चों की समझ को भी बड़े करीने से प्रस्तुत करते हैं। एक ओर बाल स्वभाव को बाल-साहित्य पेटू बताता है। बच्चों में झगड़ा करने की आदत को,पशु-पक्षियों को चोटिल करने की बात करता है। पढ़ने से जी चुराने वाला चरित्र बारम्बार दिखाता है वहीं वे बच्चों की सकारात्मक सोच को भी तरीके से प्रस्तुत करते हैं-
घर पर सबके आज बने हैं
ढेर-ढेर पकवान
दम-दम दमक रहा घर सबका
आएँगे मेहमान।
(मनोहर चमोली जी शिक्षण, बाल साहित्य लेखन और अध्ययन में सक्रियता के साथ संलग्न हैं। कविताओं पर होने वाली यह चर्चा आपको कैसी लगी, लिखिए कमेंट बॉक्स में)
बहुत सुंदर चर्चा ।