यात्रा वृत्तांतः ‘नानकमत्ता में मेला और मेले में हम’
वर्तमान में जबकि देखा जा रहा है बच्चों को पढ़ाई के नाम पर फिर एक बार ऑनलाइन के बहाने व्यस्त रखने की कोशिशें हो रही है। तब जश्न-ए-बचपन व्हाट्सएप्प ग्रुप का निर्माण इस आशा के साथ किये गए है कि बच्चा दिन में थोड़े ही समय सही संगीत, सिनेमा, पेंटिंग, साहित्य और रंगमंच से जुड़ अपनी भीतर मौजूद रचनात्मकता को प्रकट करे। मजे-मजे में अपनी रुचि के अनुरूप कुछ मस्ती करते हुए सीख भी ले।
इसमें साहित्य का पन्ना महेश पुनेठा, सिनेमा संजय जोशी, ओरेगामी सुदर्शन जुयाल, पेंटिंग सुरेश लाल और कल्लोल चक्रवर्ती, रंगमंच जहूर आलम और कपिल शर्मा मुख्य रूप से इससे जुड़े हुए हैं। यह यात्रा वृत्तांत जश्न-ए-बचपन श्रृंखला के तहत होने वाली गतिविधियों के दौरान रिया चंद ने लिखा है। वे उत्तराखंड के नानकमत्ता पब्लिक स्कूल में 10वीं की पढ़ाई कर रही हैं।
नानकमत्ता का मेला
नानकमत्ता में मेला और मेले में हम। हज़ारों की तादात में लोगों की भीड़ में अब हम भी शामिल हो चुके हैं। हम यानि मैं, भाई, मम्मी और पापा। हर साल दिवाली के मौके पर सिक्ख गुरु, गुरु नानक देव जी की नगरी नानकमत्ता में एक भव्य और शानदार मेला लगता है। यह वक़्त होता है समृद्धि का, जब सभी की ख़रीफ़ की फ़सलें कट चुकी होती हैं। यह वो समय होता है जब परिवार के सभी लोग एक साथ मिलकर त्योहार मनाते हैं।
अपने मम्मी पापा और भाई के साथ मैं भी निकल पड़ी मेले की ओर। पापा के बाइक पार्क करने तक हम लोग दूर से मेले में जाते लोगों को देख रहे थे। लग रहा था मानो हम थम गए हों और दुनिया अपनी रफ़्तार से ही चल रही हो। सभी लोग अपने या तो अपने परिवार वालों के साथ आये थे, या फ़िर अपने दोस्तों के साथ।
पापा के आते ही हम भी चल पड़े अपनी मंज़िल यानि मेले की ओर। रोड की दोनों ओर बहुत सारी दुकाने लगी थी। कभी कहीं से आवाज़ आ रही थी कि -“50 के 2 खिलौने।” तो कभी कोई के रहा कि- “हर माल 100 रुपए।”
मेले की चहल-पहल में जब मैं ‘अकेली’ हो गई
मेले में इतनी चहल-पहल थी कि क्या कहना। पर उसी चहल-पहल के बीच, मैं सोच में ऐसे खो गयी कि मुझे पता ही नहीं चला बाकी सब मुझसे आगे कब निकल गए। एक ठेले के सामने कूड़े का ढेर देखकर मैं चौक गयी। उससे ज़्यादा तो तब, जब देखा कि लोग वहाँ इतने चाव से खाना खा रहे थे। मैं अपनी जगह पर ही जम गयी और सोचने लगी कि कैसे लोग इतनी अस्वच्छ जगह पर कुछ भी खा सकते हैं। मुझे यह ध्यान ही नहीं रहा कि मेरे आस पास क्या चल रहा है, मेरी नज़र तो उन मैले से हाथों पर गढ़ गयी जो खाना पका रहे थे।
इतने में ही पीछे से मुझे किसीका धक्का लगा और मैंने पाया कि मैं वहाँ अकेली ही खड़ी थी। मम्मी पापा और भाई उस भीड़ में कहीं ओझल हो गए थे। मैं घबरा गयी और उन्हें इधर उधर ढूँढने लगी। जैसे जैसे सूरज छिप रहा था, मेरा डर बढ़ता जा रहा था।
आख़िर में बहुत ढूँढने के बाद मुझे मम्मी पापा एक दुकान में खड़े दिखे। उन्हें देखना आज तक का मेरा सबसे चरम सुख था। मैं जल्दी से उनकी ओर भागी और पीछे जाकर खड़ी हो गयी।
(रिया चंद नानकमत्ता पब्लिक स्कूल में 10वीं कक्षा में अध्ययनरत हैं। वह अपनी स्कूल की दीवार पत्रिका के सम्पादक मंडल से जुड़ी हैं। अपने विद्यालय के अन्य विद्यार्थियों के साथ मिलकर एक मासिक अखबार भी निकालती हैं। जश्न-ए-बचपन की कोशिश है बच्चों की सृजनात्मकता को अभिव्यक्ति होने का अवसर मिले।)
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